धूल उड़ाती सन्न-सन्न भागती गाड़ियों का क़ाफ़िला। साहब के इशारे पर गाड़ी घुमाता ड्राइवर। टास्क से अनजान एक-दूसरे का मुँह ताकते ऑर्डर की प्रतीक्षा में बंदूक़ थामे पुलिसकर्मी। तभी साहब की गाड़ी रुकती है। क़ाफ़िले की दूसरी गाड़ियाँ भी। पुलिसवाले कूदकर पोजीशन लेते हैं। साहब चिल्लाते हैं – ‘फायर!’ ठाँय-ठाँय – गोलियाँ छूटती हैं और फिर सन्नाटा।
नक्सलियों, दुर्दांत अपराधियों और कालाबाज़ारियों-भ्रष्टाचारियों पर छापामारी के इसी पुलिसिया प्लान को स्कूल पर छापामारी के लिये अपनाया है बिहार के शिक्षा विभाग ने। रात जब गहरा जाएगी तो ज़िले के शिक्षा अधिकारी को पटना से खबर जाएगी कि किस स्कूल पर धावा बोलना है। सुबह में ज़िला शिक्षा अधिकारी उस स्कूल पर धावा बोलेंगे।

यह धावा कोई नया नहीं है। इसकी शुरुआत हुई एक ही दिन में कई-कई बार निरीक्षण से। जीविका दीदी और टोला सेवक भी निरीक्षण करके ऊपर रिपोर्ट करने लगे। ग़रीब शिक्षक कुछ बोलते, उसके पहले ही उन्हें सस्पेंड-डिसमिस किया जाने लगा, ऊपर से फ़ौजदारी मुक़दमा भी। प्रशासनिक आतंक का एक साम्राज्य क़ायम कर दिया गया। डरे-सहमे शिक्षक। जैसा कहा गया, वैसा करने लगे। फिर रोज़ हाज़िरी बही, बच्चे की उपस्थिति, मध्याह्न भोजन आदि के कई फ़ोटो-वीडियो रोज़-रोज़ भेजे जाने का फ़रमान जारी हुआ। पढ़ाने से ज़्यादा यह महत्वपूर्ण हो गया। ज़रूरी था, इसलिए इसमें लग गये। लेकिन इतने से संतोष न हुआ। मुँह देखना ज़रूरी था। तो घड़ी में 9 बजकर 30 मिनट हो, उसके पहले सेल्फ़ी भेजना अनिवार्य कर दिया गया। 9.30 के पहले ही स्कूल पहुँचकर सेल्फ़ी लेने की अफ़रातफ़री में कितने के पैर टूटे, कितने का एक्सीडेंट हुआ, जानें भी जा रही हैं, इसकी चिंता करने वाला कोई न हुआ। ग़रीब शिक्षक की जान की क़ीमत इतनी नहीं होती है कि इसके चलते उत्पीड़न ही बंद कर दिया जाये। सो उत्पीड़न बदस्तूर जारी रहा। शिक्षक भी शुरुआती चूँ-चपड़ करके एडजस्ट हो गये।
यही एडजस्ट हो जाना, प्रताड़ना को क़बूल कर लेना गवारा नहीं है। इसीलिए प्रताड़ना का अगला अध्याय शुरू हुआ है – छापेमारी।
क्या कभी आपने सोचा है कि केवल शिक्षकों पर ही नकेल क्यों कसी जा रही है? क्या कभी आपने सोचा कि फ़ोन करने पर 20 मिनट के भीतर पुलिस के अनिवार्य रूप से घटनास्थल पर पहुँचना अनिवार्य होने का आदेश क्यों नहीं जारी होता है ताकि समय रहते हमारे जान-माल की रक्षा हो सके। ऐसा आदेश क्यों नहीं जारी होता है और पालन कराये जाने की चिंता क्यों नहीं दिखती है कि अस्पताल में गंभीर मरीज़ के पहुँचने के 5 मिनट के भीतर इलाज शुरू हो जाये। अन्य विभाग और संस्थान भी हैं। उन विभागों और संस्थानों में स्कूल से अधिक अनियमितता और लापरवाही है। लेकिन उन विभागों और संस्थानों पर नकेल कसने की तत्परता कहीं नहीं दिखती है। एक्सीडेंट से बचते-बचाते शिक्षक अगर 10 मिनट देर से भी पहुँचता है तो धरती इधर-से-उधर नहीं हो जाएगी। ऐसा कुछ नहीं बिगड़ेगा, जिसे बताया जा सके। लेकिन डॉक्टर समय पर इलाज न शुरू करे, पुलिस समय पर न आए तो जीवन की हानि है। लेकिन उनके लिए समय पर पहुँचना या इलाज शुरू करने की कोई बाध्यता नहीं है। पुलिस न भी आ सकती है, डॉक्टर न भी देख सकता है। लेकिन शिक्षक को 9.30 में आना-ही-आना है। नहीं तो वेतन बंद हो जाएगा, सस्पेंड हो जाएगा, बर्खास्त कर दिया जाएगा और यदि बोला तो जेल जाएगा। इसीलिए ज़रूरी है यह सोचना कि आख़िर शिक्षकों पर ही छापेमारी क्यों?
पिछले दिनों की एक खबर पर गौर करें। बेतिया के ज़िला शिक्षा अधिकारी के यहाँ से बोरियों में भरकर रखे गये 3 करोड़ से अधिक नक़द और गहने-ज़ेवर आदि मिले। क्या यह माना जा सकता है कि बिहार में यह इकलौता शिक्षा अधिकारी था, जिसे अब पकड़ लिया गया है। बाक़ी शिक्षा अधिकारी गंगाजल से धोये हुए और एकदम पाक-साफ़ हैं? यदि नहीं तो दूसरे अधिकारी के यहाँ छापे क्यों नहीं पड़े? इसलिए कि यह भ्रष्टाचार व्यवस्थागत है, राज्य द्वारा पोषित और संरक्षित। इसलिए ऐसी कार्रवाइयों का सिलसिला नहीं चलाया जाता है, जिसमें व्यवस्था की बागडोर सँभाले लोग ही असहज हो जायें।
लेकिन हम दूसरी बात करना चाहते हैं। उक्त अधिकारी शिक्षा विभाग में काम करते हैं तो या तय है कि उनके पास पाये गये रुपए भी शिक्षा विभाग में ही किए गए भ्रष्टाचार के होंगे। ये पैसे कुछ विकास कार्यों के कमीशन से उगाहे गये होंगे और कुछ शिक्षकों का भयादोहन करके। हम इस प्रश्न को छोड़ देते हैं कि विकास कार्यों में कमीशन की राशि जोड़कर प्राक्कलित राशि तय होती है या घटिया विनिर्माण करके कमीशन दिया जाता है। हम अभी केवल उस भयादोहन की बात करेंगे, जो व्यवस्था को ठीक करने के नाम पर इन अधिकारियों के लिए उगाही का अवसर उत्पन्न करता है। आमजन को आभास होता है कि व्यवस्था चाक-चौबंद हो रही है। लेकिन आँखों में धूल झोंकने की तरह का यह आभास उत्पन्न कर कुत्सित अभिप्रायों की पूर्ति होती है। उक्त अधिकारी के यहाँ करोड़ों रुपये मिलना इसका उदाहरण है। ये उसी समय की उगाही के पैसे होंगे, जब शिक्षकों पर सबसे अधिक नकेल कसी जा रही थी। अब विद्यालयों पर गुप्त छापेमारी भी उसी योजना का अगला अध्याय है।
ऐसे आदेशों के दूसरे पक्ष को देखते हैं। इस तरीक़े से, अपराधियों के विरुद्ध सड़क पर गश्ती किए जाने की तरह, बार-बार स्कूल का निरीक्षण करने, फ़ोटो, वीडियो, ऐप आदि के माध्यम से सतत निगरानी करने, नक्सलियों के विरुद्ध की जाने वाली कार्रवाइयों की तरह छापेमारी की योजनाएँ बनाने आदि की क्रमश: क्रूर होती जाने वाली व्यवस्था समाज को संदेश देती है। संदेश यह कि ये विद्यालय नकारा हैं, अविश्वसनीय हैं, इसी सलूक के लायक़ हैं। जबकि राज्य की दूसरी कई अन्य संस्थाओं के लिये यह बात ज़्यादा सही साबित होती है, मगर यह संदेश केवल स्कूल-कॉलेज के लिये ही दिया जाता है। इसका कारण नवउदारवाद में शैक्षिक संस्थाओं को बदनाम करके बर्बाद करने की योजना होती है। और, इसी बदनामी की ढाल लेकर सार्वजनिक विद्यालयों-महाविद्यालयों में लगातार कम होते बच्चों के कारण होने वाली आलोचना से राज्य अपनी रक्षा कर लेता है। इतना ही नहीं, बल्कि स्कूलों को बंद करने, उन्हें पदावनत (degrade) करने से होने वाली आलोचनाओं को भी इसी ढाल से रोक लेता है। सतत निरीक्षण, निगरानी, गुप्त छापामारी आदि कार्रवाइयाँ स्कूलों को बदनाम करके बंद करने की गहरी साज़िश के ही क्रियात्मक रूप हैं।
शिक्षा केवल प्रशासनिक व्यवहार की चीज नहीं है। शैक्षिक प्रक्रिया के सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, शिक्षाशास्त्रीय आदि अनेक आयाम हैं। उनमें निरीक्षण और निगरानी की भूमिका बहुत छोटी है, रुपए में दो आना के बराबर। उसके सर्वांग की अनदेखी करके केवल निरीक्षण-निगरानी के प्रशासनिक तरीक़े से शिक्षा में मौलिक परिवर्तन संभव नहीं है। लेकिन गौण को ही मुख्य बना दिया गया है। शिक्षाशास्त्र, समाजशास्त्र आदि की भूमिका के बग़ैर, पूरी तरह एक प्रशासनिक कार्य मात्र।
शैक्षिक संस्थाओं पर प्रशासनिक प्रहार के पीछे गहरी राजनीतिक आर्थिकी भी है। वह यह कि राजकीय और ग़ैर राजकीय व्यवस्था को जितने शिक्षित कामगार की ज़रूरत है, उतने शिक्षित मानव संसाधन के उत्पादन के लिए अब निजी संस्थाएँ खड़ी हो गई हैं। मशीनों और एमआई, एआई आदि के बढ़ते उपयोग ने मानव-श्रम की ज़रूरत को कम कर दिया है। शिक्षित कामगारों की ज़रूरतें निजी संस्थाओं से उत्पादित कामगारों से ही पूरी हो जा सकती हैं। इसी राजनीतिक आर्थिकी के कारण सरकार अपने हाथ खींचती जा रही है। ये सारे दमनकारी आदेश-निर्देश सार्वजनिक शैक्षिक संस्थाओं को बदनाम करके मिटाने के इसी उद्देश्य की पूर्ति के प्रयास हैं। लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि जिस प्रकार कोई दुकानदार हमारे गाँव में दुकान खोलकर हमें अन्न की आपूर्ति तो कर दे सकता है, लेकिन गाँव के खाद्य संकट का समाधान नहीं कर सकता है, उसी प्रकार निजी संस्थाएँ शिक्षा बेच तो सकती हैं, मगर शैक्षिक ज़रूरतों का समाधान नहीं कर सकती हैं। यह कर्तव्य-भार सरकार को ही उठाना पड़ेगा। इसलिए व्यापारियों के हाथों में नियति को नहीं सौंपा जा सकता है।
प्रश्न यह भी है कि जब राज्य का प्रशासन नक्सलियों के ऊपर किए जाने वाले हमलों की तर्ज़ पर स्कूलों में छापेमारी की योजनाएँ बना रहे हैं तो शिक्षक विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं। इसका सीधा-सा उत्तर यह दिया जाता है कि वे अनेक गुटों में बँटे हुए हैं, इसलिए उनमें ताक़त नहीं रह गई है। यह सतही कारण है। ये हमले किसी एक गुट पर नहीं हैं। इस मामले में सबके हित एक साथ बँधे हुए हैं। वास्तविकता समाज के साथ उनके सरोकार, उनके जुड़ाव में कमी में निहित है। कल तक जो शिक्षक समाज का सबसे सम्मानित और श्रद्धेय कामगार था, उस समय भी, जब वह गाँव में चंदा वसूलकर अपनी आजीविका चलाता था, आज समाज में सबसे कामचोर, बेईमान और अयोग्य कामगार के रूप में जाना जाने लगा है। यह समाज से उसके सरोकार के लगातार समाप्त होते जाने का परिणाम है। यही कारण है कि आज जब प्रशासन उनके दमन और प्रताड़ना का दौर क़ायम किए हुए है तो समाज उनके साथ खड़ा नहीं हो पा रहा है। वे ख़ुद खड़े होकर प्रतिरोध की आवाज उठाने में अपने को अकेला पाते हैं। इसलिए शिक्षक को अपनी खोई हुई गरिमा को फिर से हासिल करने के लिए समाज से और सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव क़ायम करना होगा।
यह अत्यंत ही वीभत्स स्थिति है। जिन शिक्षकों के ज़िम्मे बच्चों में मानव गरिमा के संचार का दायित्व है, उन्हें ही पददलित बनाकर किस प्रकार के राष्ट्र के निर्माण की संभावना को अंजाम दिया जा रहा है?

बिहार में शिक्षा अपनें सबसे निचले पायदान पर है, यह नीति आयोग की रिपोर्ट भी बता रही है। शिक्षा के में सुधार के नाम पर आतंक फैलाया जा रहा है। शिक्षा अधिकारी वसूली भाई बने हुए है। निरीह शिक्षक बली का बकरा बन रहे। एक समय था एक शिक्षक की इज्जत और रसूख कई गॉंव तक फैला रहता था, आज वही शिक्षक खुद को कैदी महसूस कर रहा।
शिक्षा में बुनियादी सुधार की जरूरत है, डरानें धमकानें से कुछ नहीं होगा।
डराना-धमकाना पुलिसिया रवैया है, अपराधियों के साथ किया जाने वाला व्यवहार, न कि शैक्षिक व्यवस्था में उपयोग किया जाने वाला। ठीक कहा आपने कि शिक्षा में बुनियादी सुधार की जरूरत है, डराने की प्रशासनिक व्यवस्था स्थिति को और भी बदतर बना रही है।