बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र : काँटे की टक्कर के बीच मिनी बिहार में तब्दील  

पिछले लेख में आपने पढ़ा था तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र के चुनाव का विश्लेषण। इस लेख में प्रस्तुत है बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के चुनाव का विभिन्न आधारों पर विश्लेषण।

बिहार विधानसभा चुनाव, 2025 में बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र मुझे लोकसभा चुनाव, 2019 के बेगूसराय संसदीय क्षेत्र की याद दिला रहा है। इस चुनाव में जब भी महागठबंधन की चर्चा होगी, बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर चर्चा के बिना उस चर्चा के मुकम्मल होने की कल्पना नहीं की जा सकती, कुछ इसलिए भी कि पिछले दो विधानसभा चुनावों के दौरान सीपीआई ने हरलाखी के साथ इस सीट को हासिल करने के लिए पूरे बिहार में अपनी राजनीतिक संभावनाओं को दाँव पर लगाया है, जिसके कारण बछवाड़ा सीपीआई के लिए दुखती हुई रग बन चुका है। राजद और उसके नेतृत्व ने उसे बड़ी चालाकी से काँग्रेस के साथ भिड़ाकर इसकी एवज में लेफ्ट के खाते से न केवल मटिहानी सीट छीनी, वरन् मटिहानी के बहाने पूरे लेफ्ट राजनीति के तर्कजाल को ध्वस्त करते हुए वैचारिक राजनीति के मोर्चे पर उसे उसकी बढ़त से वंचित कर दिया।

दरअसल बछवाड़ा सीट पर सीपीआई भी दावा करती है और काँग्रेस भी। सीपीआई जहाँ इस सीट को अपनी परम्परागत सीट मानती है और काँग्रेस के दावे को ख़ारिज करती है, वहीं काँग्रेस सीपीआई के इस दावे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यदि इन दावों और प्रति-दावों के बीच उनके औचित्य के प्रश्न पर विचार करें, तो जहाँ काँग्रेस को यहाँ से आठ बार जीत हासिल हुई है और एक बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय ने जीत हासिल की है, वहीं सीपीआई को चार बार। सन् 1985 में पहली बार यहाँ से सीपीआई के उम्मीदवार अयोध्या प्रसाद सिंह को जीत हासिल हुई और उसके बाद से अबतक तीन बार अवधेश राय (1990, 1995, 2010) में जीत हासिल हुई है। फ़रवरी, 2005 में रामदेव राय को यहाँ से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत मिली, तो नवम्बर, 2005 में काँग्रेस उम्मीदवार के रूप में। वर्ष 2015 में रामदेव राय ने एक बार फिर से महागठबंधन (काँग्रेस) के उम्मीदवार के रूप चुनावी जीत हासिल की। इस प्रकार रामदेव राय ने दो बार काँग्रेस उम्मीदवार के रूप में और एक बार निर्दलीय के रूप में इस विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की है। अगर विधानसभा चुनाव, 2000 से अबतक की बात की जाए, तो यह सीट तीन बार रामदेव राय के क़ब्ज़े में रही है, जबकि एक-एक बार राजद, सीपीआई और भाजपा के क़ब्ज़े में। इस दृष्टि से देखा जाए, तो बछवाड़ा के सन्दर्भ में दावेदारी के मसले पर सीपीआई और काँग्रेस दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं और इस स्थिति को निश्चित तौर पर दोनों को स्वीकारना चाहिए। इस क्षेत्र से गरीब दास के पिताजी रामदेव राय सर्वाधिक छह बार विधायक निर्वाचित हुए, जबकि अवधेश राय तीन बार विधायक निर्वाचित हो चुके हैं। हाँ, बड़े दल के रूप में काँग्रेस से उदारता और सदाशयता की अपेक्षा जाती है और यह अपेक्षा वाज़िब भी है, पर काँग्रेस की अपनी मजबूरियाँ हैं। अगर काँग्रेस सीपीआई के दावे को स्वीकार करती है, तो उसे गरीबदास को खोना पड़ेगा जो उसके लिए दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में घाटे का सौदा होगा। जिसके लिए काँग्रेस अभी तैयार नहीं हैं और न ही वह अभी इस स्थिति में है कि वह किसी अन्य तरीक़े से गरीबदास को कम्पनसेट करते हुए उन्हें कहीं और एडजस्ट कर सकें या इंगेज़ कर सके। इस ख़तरे का आभास उसे वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में मिल चुका है। इसीलिए सीपीआई को भी काँग्रेस की इस मजबूरी को समझना होगा, अन्यथा दोनों को इसकी क़ीमत चुकानी होगी।

बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र का रोचक इतिहास:

आजादी के बाद 1952 से अबतक होने वाले 17 विधानसभा चुनावों में काँग्रेस ने आठ बार जीत हासिल की है, तो सीपीआई ने चार बार। इसके अलावा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, राजद और भाजपा ने एक-एक बार सफलता पायी है, जबकि एक बार निर्दलीय विधायक के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय को सफलता मिली है। इस दृष्टि से देखा जाय, तो बछवाड़ा विधानसभा अपनी सीमा पर अवस्थित बरौनी/तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र और दलसिंह सराय/ उजियारपुर विधानसभा के रुझानों से भिन्न मिश्रित राजनीतिक रुझानों को प्रदर्शित करता रहा है।

यादवों के राजनीतिक वर्चस्व वाला क्षेत्र:.

पिछले 12 विधानसभा चुनावों में से 11 चुनावों में यहाँ की जनता ने अपने प्रतिनिधियों रूप में यादव उम्मीदवार को चुना है। पिछली बार भी अगर भाजपा को सफलता मिली और वो भी मार्जिनल लीड के साथ, तो इसीलिए कि विपक्ष के साथ-साथ यादव वोट भी अवधेश राय और गरीब दास के बीच बँटे। सन् 1972 से अबतक के इतिहास में सन् 2020 में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी गैर-यदुवंशी प्रत्याशी को इस क्षेत्र का नेतृत्व करने का मौका मिला। और, ऐसा भी पहली बार ही हुआ, जब दक्षिणपंथी राजनीतिक दल जनसंघ/भाजपा को इस विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सफलता मिली।

भविष्य की संभावना:

अब सवाल यह उठता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में क्या इस क्षेत्र के मतदाता अवधेश राय या गरीबदास के नाम पर अन्तिम रूप से मुहर लगाकर इस बात की पुष्टि करेंगे कि इस विधानसभा क्षेत्र में यादवों का राजनीतिक दबदबा कायम रहेगा, या फिर इस बात पर मुहर लगेगी कि विधानसभा चुनाव, 2020 में इस क्षेत्र के मतदाता नई करवट ले चुके हैं और यादवों के राजनीतिक वर्चस्व के दिन अब लद चुके हैं। ये तमाम सवाल अभी भविष्य के गर्भ में हैं, और इनके जवाब के लिए हमें 14 नवम्बर का इंतजार करना होगा।

क्या इतिहास खुद को दोहराएगा:

बछवाड़ा विधानसभा का इतिहास बड़ा रोचक रहा है और उतना ही रोचक रहा है वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता की चुनावी राजनीति का इतिहास। पिछले छह विधानसभा चुनावों के दौरान इसने कई अपने विधायक को दुबारा मौक़ा नहीं दिया है। चुनावी राजनीति में कुछ ऐसा ही इतिहास वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता का भी रहा है। हार और जीत का एक सतत क्रम चला आ रहा है। इस दृष्टि से दोनों ही ट्रेंड इस बात का संकेत देते हैं कि सुरेन्द्र मेहता इस बार विधानसभा चुनाव हारने जा रहे हैं। पर, ट्रेंड तो बनते ही टूटने के लिए हैं। फिर सवाल यह उठता है कि क्या सुरेन्द्र मेहता नये सिरे से इतिहास लिख पायेंगे, या फिर इतिहास अपने को दुहरायेगा, यह तो आने वाला समय बतलायेगा।

डेमोग्राफी डिटेल्स: वोटबैंक

बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में तकरीबन 3,10,463 वोटर्स हैं। इनमें यादवों के वोट करीब 46 हजार (15%) हैं, जबकि कोइरी, कुर्मी एवं धानुक मतदाताओं की संख्या करीब 40 हज़ार (13%) है। भूमिहार मतदाता करीब 36 हजार (12%) हैं, तो मुस्लिम मतदाता तकरीबन 30 हजार (9%)। दलितों की आबादी करीब 52 हजार (17%) है जिनमें करीब 22-24 हजार पासवान (7-8%) हैं। इसके अलावा, 11 प्रतिशत वैश्य, (2.5-3)% ब्राह्मण, 2% राजपूत, 2% माँझी और तकरीबन 15 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियाँ हैं।

सुरेन्द्र मेहता: बड़े रोड़े हैं इस राह पे:

इसके अलावा, उनके दोनों विरोधी: अवधेश राय और गरीबदास की इस क्षेत्र में सक्रियता लगातार बनी रही है। लोकसभा चुनाव के दौरान अवधेश राय स्वयं बेगूसराय लोकसभा से सीपीआई के उम्मीदवार थे और उस चुनाव में गरीबदास ने खुलकर सीपीआई उम्मीदवार का साथ दिया था। इतना ही नहीं, पिछले पाँच वर्षों के दौरान गरीबदास ने क्षेत्र में अपनी सक्रियता बनाए रखी है।

सीपीआई: गहराते आन्तरिक मतभेद:

संगठन और नेतृत्व में रहने के क्या फ़ायदे हैं, इसे समझना हो, तो अवधेश राय की राजनीतिक यात्रा को देखिए। लगातार हार के बावजूद वे न केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपने लिए कम्युनिस्ट पार्टी और महागठबंधन की टिकट सुनिश्चित करने की स्थिति में हैं, वरन् इसके लिए उन्होंने बिहार राज्य में सीपीआई के राजनीतिक भविष्य को भी दाँव पर लगाने से परहेज़ नहीं किया है। परिणाम यह कि बछवाड़ा होल्ड करने के चक्कर में पिछली बार सीपीआई को महज़ छह सीटों पर संतोष करना पड़ा और इस बार भी कमोबेश वैसी ही स्थिति है। आगामी चुनाव में महागठबंधन में सीपीआई के हिस्से छह सीटें आयीं, जबकि सीपीआई 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, काँग्रेस पर इस आरोप के साथ कि उसने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है, उसका उल्लंघन किया है। यहाँ तक कि उनके लिए पार्टी ने न केवल पचहत्तर साल की उम्र-सीमा को दरकिनार किया है, वरन् संगठन में रहने के बावजूद उन्हें चुनावी राजनीति में शामिल होने की अनुमति दी है।

चौतरफ़ा घिरे अवधेश राय:

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उनकी उम्मीदवारी के फ़ाइनल होने के पहले से ही उनकी कार्यशैली और उनके रवैये को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं, और इसकी प्रतिक्रिया में युवा वामपंथियों में ग़रीबदास के प्रति गहरा आकर्षण और गहरी सहानुभूति देखी जा रही है। भले ही वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं, पर उनमें अन्दर-ही-अन्दर अवधेश राय के प्रति आक्रोश और गरीबदास के प्रति सॉफ़्टनेस महसूसा जा सकता है।

सीपीआई की बढ़ती मुश्किलें:

इन तमाम चुनौतियों के बावजूद सीपीआई और अवधेश राय की दावेदारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अवधेश राय के पास न केवल लम्बा राजनीतिक अनुभव है, वरन् वे संगठन के आदमी हैं और संगठन पर उनकी मज़बूत पकड़ भी है। इतना ही नहीं, वे अपने प्रति सहानुभूति पैदा कर पाने में भी समर्थ हैं। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि परम्परागत वोटों में बिखराव के बावजूद वे पिछले विधानसभा चुनाव में महज़ साढ़े चार सौ वोटों से हारे थे और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में तमाम समीकरणों के बावजूद इस विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने गिरिराज सिंह पर बढ़त हासिल की।

माहौल गरीबदास के पक्ष में:

कारण यह कि भाजपा-विरोधी वोटों के अवधेश राय और गरीबदास के बीच बँटने के कारण एक खतरा तो अन्त-अन्त तक बना रहेगा कि कहीं इसका फायदा पिछली बार की तरह एक बार फिर से सुरेन्द्र मेहता को न मिल जाए। लेकिन, इसके लिए भाजपा को अपने अंतर्विरोधो से बाहर निकलना होगा और उस नकारात्मक माहौल से बचना होगा, जो निर्मित होता दिख रहा है। इसकी झलक 25 अक्टूबर को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के बेगूसराय दौरे में भी मिलती है, जिसने भाजपा की आन्तरिक गुटबंदी को तेज करते हुए उसके अन्तर्विरोधों को सतह पर ला दिया। इसका प्रतिकूल असर बेगूसराय में भाजपा के साथ-साथ एनडीए की राजनीतिक संभावनाओं पर भी पड़ सकता है।

सभी पक्षों के लिए खुला है परिणाम:

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मेंटरिंग(सिविल सेवा परीक्षा हेतु,ब्लॉगर,लेखक और राजनीतिक विश्लेषक)

कुमार सर्वेश
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