प्रधानमंत्री का जन्म 1950 में होता है और 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो जाती है। गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं कि प्रधानमंत्री को महात्मा गांधी ने अपनी गोद में खिलाया था। इससे भी मजेदार है प्रधानमंत्री का वक्तव्य। उनका कहना है कि उनके पिता आजादी के आंदोलन में पांच वर्षों के लिए जेल गए और जब वे जेल से छूटने वाले थे तो उनका जन्म हुआ। वे बहुत लक्की हैं।
मैं इन पंक्तियों से कोई ओछा निष्कर्ष नहीं निकालूंगा। सोशल मीडिया पर बहुत ही भद्दे और ओछे तर्क निकाले गए हैं। दरअसल मतदाता को लुभाने के लिए वे कुछ भी बोल सकते हैं। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को अपने वक्तव्य का अंदाजा ही नहीं होता कि उनके ऐसा बोलने से क्या क्या अर्थ निकलेंगे? ऐसा ही ऊलजलूल वक्तव्य गृहमंत्री ने संसद में दिया था। नेहरू को असम्मानित करना था तो सरदार पटेल को जीवित कर बताया कि कैसे नेहरू ने 1960 में सरदार पटेल को बेइज्जत किया। सरदार पटेल की कुर्सी पर बैठ जाने से कोई सरदार पटेल नहीं हो जाता या नेहरू की कुर्सी पर बैठने से कोई नेहरू नहीं हो जाता। वैसे मेरा मानना है कि किसी को किसी की तरह नहीं होना चाहिए। प्रकृति ने हरेक को अलग-अलग व्यक्तित्व दिया है। आदमी की सार्थकता इसी में है कि वह अपने व्यक्तित्व के साथ न्याय करे। प्रकृति नकल बर्दाश्त नहीं करती। वह सृजन करती है। हर क्षण नयी रहती है। नकलची का कोई व्यक्तित्व नहीं होता।
दस साल प्रधानमंत्री रहने के बाद मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। वे विचारवान व्यक्ति थे। वे नपे-तुले बोलते थे। प्रेस सम्मेलन करते थे और जो फैसले ले रहे होते थे, वे राष्ट्र को बताते थे। हम सब उनके कई फैसलों से असहमत थे, मगर वे ऊलजलूल नहीं बकते थे। अभी तो ऊलजलूल वक्तव्यों का स्वर्णिम काल है। ऐसे लोगों के साथ इतिहास क्या न्याय करेगा?
दूसरे, पढ़े-लिखे समाज के प्रति भी इतिहास बहुत सदय नहीं रहेगा। जब ऐसे लोग देश को डिक्टेट कर रहे हैं, तब पढ़ा-लिखा वर्ग या तो तालियां पीट रहा है या चुप है या कुछ लोगों ने आवाज दी और वह नक्कारखाने की तूती बन कर रह गई। अनेक पढ़े लिखे लोगों ने तो इस आवाज का भी मजाक उड़ाने की कोशिश की।
गजब का युग है। धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ का एक प्रहरी कहता है –
रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ ……
संस्कृति थी एक बूढ़े और अंधे की
जिसकी संतानों ने
महायुद्ध घोषित किए
जिसकी अंधेपन की मर्यादा
गलित अंग वेश्या-सी
प्रजाजनों को भी रोगी बनाती रही
उस अंधी संस्कृति
उस रोगी मर्यादा की
रक्षा हम करते रहे
सत्रह दिन
आज जिस दौर में लगता है कि महाभारत की पूर्वपीठिका बनायी जा रही है, प्रहरी तो सत्रह दिनों तक ही मर्यादाहीन सत्ता की रक्षा करता रहा और हम सब तो न जाने कितने सालों और महीनों से रक्षा कर रहे हैं – गलित अंग वेश्या की संस्कृति की । सचमुच रक्षणीय नहीं है कुछ भी, तब भी रक्षा किये जा रहे हैं।
जो खिलवाड़ कर रहा है, वह तो जानबूझकर कर रहा है। वह दोषी कम है, उससे ज्यादा दोषी वह है जो खुली आंखों से देख कर भी नहीं देख रहा है या डर से तालियां पीट रहा है। जिस युग में नाली की गैस से चाय बन रही हो, पकौड़े तलने से रोजगार का खात्मा हो रहा हो और युवाओं को मस्त रहने के लिए रील बनाने के नुस्खे प्रस्तुत किए जा रहे हों, वह युग कोई साधारण युग नहीं होगा। सचमुच हम सब असाधारण युग के वासी हैं।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर





