
12 जून, 2024 को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। ज्ञात हो कि 25 जून, 1975 को ही आपातकाल की घोषणा की गई थी। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक अर्थात् 21 महीने की इस कालावधि को ‘लोकतंत्र की हत्या’, भारतीय इतिहास का काला अध्याय’ आदि विशेषणों से अभिहित किया जाता रहा है। इस घटना के व्यतीत हुए 49 वर्ष बीत चुके हैं। उस आंदोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी के अनेक लोग अब नहीं हैं और जो बचे हैं, वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। आम जीवन की स्मृतियों में वह प्रसंग धुँधला हो गया है। फिर आज वह कौन-सी विशेष बात हो गई, जिसके कारण आधी शताब्दी पूर्व के प्रसंग को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत आ पड़ी?

ग्लोबल पीस इंडेक्स (GPI) 2024 की रिपोर्ट में वैश्विक शांति की स्थिति में 0.56% की गिरावट दर्ज की गई है, और दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार संघर्षों की संख्या 56 तक पहुँच गई है। 97 देशों में शांति की स्थिति खराब हुई है, जबकि 92 देश सीमाओं के बाहर संघर्षों में संलिप्त हैं। गाजा और यूक्रेन में संघर्षों के कारण 2023 में 162,000 लोगों की मौत हुई, और हिंसा का वैश्विक आर्थिक प्रभाव 19.1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गया है, जो वैश्विक जीडीपी का 13.5% है। भारत समेत कई देशों ने शांति में सुधार किया है, लेकिन उत्तरी अमेरिका में सबसे बड़ी गिरावट देखी गई है। रिपोर्ट यह संकेत देती है कि वैश्विक शांति की दिशा में सामूहिक और सतत प्रयासों की आवश्यकता है, क्योंकि बिना शांति के मानवता के विकास और उसकी गरिमा की कल्पना नहीं की जा सकती।

लोकसभा चुनाव में अपने बूते 240 सीट प्राप्त कर भाजपा अल्पमत में है। अब उसे सरकार बनाने के लिए जदयू और टीडीपी के समर्थन की अत्यधिक जरूरत है। उक्त दोनों दलों ने समर्थन देकर सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया है। शुरुआत में एनडीए गठबंधन की सरकार की बात करने वाले नरेन्द्र मोदी ने पुनः अपने पुराने स्वेच्छाचारी रवैए का परिचय देना शुरू कर दिया है। इस बात की पुष्टि मंत्रीमंडल के गठन से स्पष्ट हो जाती है। लगभग सभी महत्वपूर्ण विभाग भाजपा के नेताओं को सुपुर्द कर दिया गया है और एनडीए के घटक दलों खासकर जदयू एवं टीडीपी को झुनझुना थमा दिया गया है।

लोकसभा चुनाव, 2024 के अधिकांश चुनावी विश्लेषण विषयनिष्ठ हो रहे हैं। इन विश्लेषणों में विश्लेषक एक कहानी गढ़कर निष्कर्ष तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है। प्रस्तुत आलेख में लेखक ने चार वेरिएबल को आधार बनाते हुए चुनाव के छह चरणों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया है। यह विश्लेषण न केवल इस चुनाव को समझने में मदद करता है, बल्कि राजनीति और सामाजिक मनोविज्ञान को समझने में भी मददगार साबित होता है।

परिवार, शिक्षा प्रणाली, राज्य-कानून, धर्म, कलाएँ, मिडिया आदि ये सारी सामाजिक संस्थाएँ हमारे समाज में औरत बनाने का काम करती हैं- मादा को स्त्री बनाती हैं। सर्वजनीन है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है, मार-मार के बनाया जाता है उसको स्त्री। यही स्त्री की स्थिति तय करती है और नारी विमर्श में इसे अनदेखा कर दिया जाता है।

निजी मुनाफे पर आधारित पूँजीवाद और राजनीतिक सत्ता का अपवित्र गठबंधन बाल श्रम को कायम रखता है। जब तक पूँजीवादी शक्तियों के मुक़ाबले सामाजिक शक्तियाँ अपनी अधिक मजबूती नहीं दिखाती है, तब तक तमाम क़ानूनों के बावजूद बालश्रम का धब्बा कायम रहेगा।

यह कैबिनेट द्वारा स्वीकृत है, संसद द्वारा नहीं। अर्थात एक पार्टी की शिक्षा नीति है।…यह शिक्षा नीति अनौपचारिकता, सांप्रदायिकता, केन्द्रीयता और निजीकरण की बढ़ोत्तरी के चार पायों पर खड़ी है। इन पायों को ही मजबूत करने का निहितार्थ इस शिक्षा नीति में छिपा हुआ है।

दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर किसान केवल इसलिए नहीं आंदोलनरत हैं कि उनकी अस्मिता ख़तरे में है। अस्मिता तो ख़तरे में है ही। बल्कि वे इसलिए भी लड़ रहे हैं ताकि इस देश को भूख और तबाही से बचाया जा सके। इस तरह यह लड़ाई पूरे देश के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई है।

कोरोना आज विश्व की एकमात्र और सबसे बड़ी समस्या है। दुनिया में आज न तो सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव सनसनी पैदा करता है, न जीडीपी बढ़ाने की होड़ है, न घटते जलस्तर की चिंता है और न ही स्कूल बंद बच्चों की बदहाली की फ़िक्र है। मानव-सभ्यता के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि एक बीमारी की चपेट में एक ही साथ पूरी दुनिया आ गई हो। इसलिए दुनिया के तमाम देशों में जिस एक बात के भूत, वर्तमान और भविष्य की सर्वाधिक चर्चा और चिंता की जा रही है, वह कोरोना है।

नीति राजसत्ता की वह परिकल्पना होती है, जो यह दिखाती है कि व्यवस्था को किन रास्तों से होकर कहाँ तक ले जाना है। इसकी भूमिका दिशा-निर्देशक की होती है। राज्य नीतियाँ बनाता है और फिर उन नीतियों को अमल में लाने के लिए क्रियान्वयन की योजना का निर्माण करता है। यद्यपि नीतियाँ न तो बाध्यकारी होती हैं और न ही उनका कोई कानूनी आधार होता है। फिर भी एक नैतिक दवाब बनाने में इसकी भूमिका होती है। अन्य नीतियों की तरह इस शिक्षा नीति का भी यही महत्व है यह शिक्षा का अवसर मुहैया कराने और उसका परिणाम प्राप्त करने के दृष्टिकोण को उजागर करती है।