
प्राकृतिक आपदाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। ये आपदाएँ प्रकृति-प्रदत्त नहीं, बल्कि मानवकृत हैं। इनसे निपटने के दीर्घकालिक उपायों के कार्यान्वयन में अब और देर नहीं की जा सकती है।

नवउदारवादी युग में हिन्दू धर्म विचारधारा के स्तर पर दो रूपों में दिखाई पड़ने लगा। एक सामाजिक न्याय के नाम पर हिन्दू धर्म पर लगातार आक्रमण करनेवाली शक्तियां थी। तो दूसरी ओर धर्म को केंद्र में लेकर राजनीति करने वाली शक्तियां थीं। इन दोनों शक्तियों की टकराहट का एक ही उद्देश्य था - धर्म का जितना हो सके, उसे राजनीतिक विचारधारा के रूप में सत्ता हासिल करने के लिए उपयोग में लाया जा सके।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ न तो धार्मिक संगठन है और न ही सांस्कृतिक। साहित्य, कला, संस्कृति के विकास में इसका कोई योगदान नहीं है। पूँजीवाद के दलदल में संस्कृति की खाल ओढ़कर खड़े इस संगठन की हुल्लड़बाजी के सिवा कोई उपलब्धि नहीं है।

इस आलेख में क्रॉनी कैपिटलिज्म के वर्तमान चरित्र एवं उत्तर अवस्था का विश्लेषण किया गया है। यदि अंत तक पढ़कर लाइक, कमेंट और शेयर करते हैं तो, इस विचार-यात्रा में आपकी सहभागिता के कारण, हमें ख़ुशी होगी।

इस आलेख में 'नो डिटेंशन पालिसी' की समाप्ति की अधिसूचना पर सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से विचार किया गया है। अंत तक पढ़कर यदि आप अपनी प्रतिक्रिया देते हैं तो इससे वैचारिक प्रक्रिया निर्मित होगी।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की यह दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी कि 1991 का कानून 1947 से पहले के स्थानों के धार्मिक चरित्र की जाँच करने से नहीं रोकता है, ने ऐतिहासिक मस्जिदों का सर्वेक्षण करने के लिए अदालती आदेशों की बाढ़ ला दी है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या उन्हें मंदिरों को नष्ट करने के बाद सदियों पहले बनाया गया था। इसने सत्तारूढ़ पार्टी और निर्वाचित सरकारों द्वारा समर्थित हिंदुत्व संगठनों को खतरनाक तरीके से, यहाँ तक कि लापरवाही से अतीत को उजागर करने में सक्षम बनाया है। इसने पुरानी लड़ाइयों को पुनर्जीवित करने और नई लड़ाइयों को बनाने में मदद की है, और इसके माध्यम से खतरनाक रूप से सांप्रदायिक दरार को बढ़ाया है, जिससे धार्मिक लड़ाइयों को बढ़ावा मिला है, जो पीढ़ियों तक चल सकती हैं।

मानवीय संपर्क, जिसके तहत विद्यार्थी कक्षा में दिलचस्प प्रश्न पूछ सकते थे, शिक्षकों को चुनौती दे सकते थे, आत्मनिरीक्षण कर सकते थे या अपनी बहस को कक्षा से बाहर निकालकर गलियारों और कैंटीन तक ले जा सकते थे, धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है, क्योंकि शैक्षणिक परियोजना व्यक्तिगत और अलगावकारी होती जा रही है।

जाति, वर्ग, जातीयता और लिंग की जटिलताओं पर विचार करने की आवश्यकता है। यह न्याय का प्रश्न है और साथ ही असमानता का भी, जो अन्याय को जन्म देती है।

वो भी उतने ही बड़े दरिंदे हैं, जो बेटियों के साथ हुए अपराधों को सत्ता की सीढ़ियाँ बनाते हैं।

बीच बहस में