बिहार के चुनाव और उसके रिजल्ट पर ज्यादा कुछ नहीं कहा। चुनाव हुए कई दिन बीते और रिजल्ट हुए चार दिन बीत रहे हैं। आज जब चिड़िया आकाश में सुबह सुबह उड़ रही थी और सूरज की सुनहरी किरणें धरती पर फ़ैल रही थीं तो मैंने चुनाव और उसके रिजल्ट पर सोचना शुरू किया। चुनाव के पूर्व मैं बहुत उत्सुक था और उत्साहित भी, लेकिन टिकट बंटवारे के दौरान मैं उदास होता गया। मेरी रूचि चुनाव से हट गयी। वोट देने और साथियों द्वारा आहूत एकाध बैठक में शामिल होने के सिवा मैंने कुछ नहीं किया। अब जब चुनाव संपन्न हो चुका है, रिजल्ट भी सामने है, तब मेरे पास कुछ सवाल हैं और यह आग्रह भी कि इसके उत्तर ढूंढें जायें। हम मौसमी आचरण न करें। यह सवाल न पक्ष से है, ना विपक्ष से। यह सवाल खुद से है और भारतीय नागरिक से है।
पहला सवाल – लोकतंत्र में चुनाव निष्पक्ष होना चाहिए या नहीं? उत्तर अगर हां है तो इससे जुड़े कई मौजूं सवाल हैं। क्या बिहार का चुनाव निष्पक्ष था? क्या बिहार के चुनाव में आचार संहिता का उल्लंघन नहीं हुआ? क्या चुनाव घोषणा के बाद महिलाओं के खाते में दस-दस हजार रुपए देना आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है? क्या हरियाणा से ट्रेन रिजर्व करवा कर वोटर को लाद कर लाना उचित है? एस आई आर के नाम पर वोटर को काटना, मनमाने ढंग से बढ़ाना और जीविका दीदियों को चुनाव में लगाना सही था? जो चुनाव जीत गए हैं, यह प्रश्न उनके लिए भी है, क्योंकि आपकी जीत के पीछे लोकतंत्र की हार छिपी है। आज आपको यह अनैतिक प्रैक्टिस अच्छी लग सकती है, लेकिन कल जब कोई दूसरा सत्ता में होगा तो इसी अनैतिक प्रैक्टिस का हवाला देकर दूसरी अनैतिक प्रैक्टिस करेगा। जैसे कांग्रेस के अवैध प्रैक्टिस का हवाला देकर आज अपनी अवैध प्रैक्टिस को सही ठहराया जा रहा है।
चुनाव में करोड़ों करोड़ खर्च हो रहे हैं। राजनैतिक दलों द्वारा यह पैसा दो तरह से इकट्ठा किया जाता है । एक देशी और विदेशी पूंजीपतियों से और दूसरे टिकट बेच कर। दोनों प्रैक्टिस जोरों पर हैं। पक्ष हो या विपक्ष, इस नंगई में दोनों शामिल हैं। वामपंथी पार्टियों में अभी थोड़ी लोकलाज बाकी है, लेकिन ये पार्टियां जनता की नजर से उतर चुकी है।
पक्ष और विपक्ष में एक गहरा अंतर है। पक्ष यानी बीजेपी के पास एक स्पष्ट एजेंडा है। उसके विचारों के केंद्र में हिन्दू राष्ट्र है। इसके लिए आर एस एस, उसके सैकड़ों अनुषांगिक संगठन, हजारों विद्यालय काम कर रहे हैं। उसके साथ बाबाओं की फौज है। और फिर ये संगठन किसी भी तरह का प्रैक्टिस कर सकते हैं। जगह-जगह इनके कार्यालय हैं और उनकी सक्रियता है। विभाजन के बाद हिन्दू जनता के अंदर एक गांठ है। वे इसको सहलाते रहते हैं। दूसरी तरफ विचारों का घोर अभाव है, इसलिए वे चुनावों में भीड़ जुटाते हैं। कांग्रेस के पास आजादी आंदोलन की वसीयत है, लेकिन वे भी इस वसीयत को लेकर सचेत नहीं हैं। उनके नेता और कार्यकर्ता शायद ही अपने पूर्वजों के विचारों को पढ़ते हैं या पू्र्व में घटी राजनीतिक घटनाओं की सच्चाई को जानते हैं। उनके नेता अपने कार्यकर्ताओं को न सीखते हैं और न सीखता हैं। संगठन तो लुंज-पुंज है ही। आजकल डा लोहिया और जयप्रकाश नारायण को गलियाने का एक नया रिवाज शुरू हुआ है। अपनी गलतियों को दूसरे पर मढ़ कर मुक्त होने की कोशिश किसी नतीजे पर नहीं ले जायेगी। लालू यादव या नीतीश कुमार समाजवादियों की वारिस नहीं हैं। इन लोगों की बड़ी ग़लती यह है कि इन लोगों ने विचारों को त्याग दिया। वे पढ़े लिखे लोगों से घृणा करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं।
तब सवाल यह है कि क्या किया जाए? मुझे लगता है कि महात्मा गांधी, पेरियार, डॉ अम्बेडकर, डॉ लोहिया, नेहरू, अबुल कलाम आजाद, महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, कर्पूरी ठाकुर, जयप्रकाश नारायण, खान अब्दुल गफ्फार खान आदि की वैचारिक परंपराओं को परखें और जिद्दू कृष्णमूर्ति, विवेकानंद आदि के दार्शनिक अवदानों को समझें और समझाएं। एक वैचारिक और सांगठनिक आंदोलन की शुरुआत करें। उनके सिर अगर दस हैं तो आपको बीस सिर का सृजन करना ही होगा।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर







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