बिहार में जो महाभारत की लड़ाई हो रही थी, उसके सभी सेनानी प्रचार कर अपने-अपने शिविर में लौट आए। उन्होंने अपने अपने तीर-कमान शस्त्रागार में जमा कर दिए हैं। एक दिन की चुप्पी है, लेकिन नेताओं के घोड़े अपने अपने क्षेत्र में हिनहिना रहे हैं। उन्होंने अपने घोड़े मुहल्ले-मुहल्ले में भेज दिया है और वे अपना काम सुचारू ढंग से कर रहे हैं। जनता की हैसियत के अनुसार वे दान-दक्षिणा दे रहे हैं। जनता भी कम नहीं है। विभिन्न रास्तों से जो दक्षिणा मिल रही है, उसे इंकार नहीं कर रहे। जनता मंदिर के पंडित बन गयी हैं। उन्हें तो दक्षिणा से काम, भगवान जिसका भला करें। देवमयी जनता बाजार में बिक रही है। पहले आश्वासन पर लुट जाती थी, अब पांच किलो अनाज और खाते में दस हजार पर। इसके बाद भी कुछ नगद-नारायण मिल जाए तो बुरा क्या है?
हम ऐसे लोकतंत्र को बचा रहे हैं, जो है ही नहीं। हरियाणा से रिजर्व ट्रेन से मतदाता बिहार लाये जा रहे हैं। बिहार के मतदाता विभिन्न राज्यों में फैले थे, वे बिहार आ रहे हैं। बिहार भी नहीं जानता था कि ऐसे-ऐसे अंतर्राज्यीय मतदाता उनके हैं। बिहार ताज्जुब में है, लेकिन सरकारी नेताओं के चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। चुनाव आयोग तो बेसुध पड़ा हुआ है ही। लगता है कि उसकी नसों से सभी खून खींच लिया गया है। वह आईसीयू में भर्ती है। आज जो हालात है, उसमें गांधी और डॉ अम्बेडकर ने कभी नहीं सोचा होगा कि लोकतंत्र यहां तक की यात्रा कर लेगा, वह भी बुलेट ट्रेन की रफ्तार से। संविधान अगर बुरे लोगों के हाथों में होगा तो उससे कट्टा, पिस्तौल, रिवाल्वर और बंदूक ही निकलेगा।
महाभारत की इस लड़ाई का मजेदार आख्यान यह है कि इसमें लड़ने वालों में कोई हताहत नहीं होता। वे सभी हेलीकॉप्टर पर सुरक्षित निकल जाते हैं। उनकी सेवा में नेताओं के सेवक और जनता के मालिक लगे हुए रहते हैं। लोकतंत्र में कहा जाता है कि जनता मालिक होती है। मुझे तो अब यह एकदम नहीं लगता। लोकतंत्र की जनता प्रजा बन गई है। राजा आसमान में उड़ रहा है। प्रजा नीचे आर्त पुकार कर रही है। सच पूछिए तो प्रजा अब नये ढंग से सोच नहीं पा रही ।उनके सारे सपने एक-एक कर मर रहे हैं। कबीरदास रहते तो उलटबांसी पढ़ते – कबीरदास की उलटी बानी, बरसे कंबल, भीगे पानी। बरसता कंबल है, भीगता पानी है।
लोकतंत्र लोगों का तंत्र है, लेकिन अब इस पर नेताओं का कब्जा है। चुनाव प्रचार में नेता जनता को देवमयी जनता कह कर नमन कर रहे थे। बीस दिन देवमयी और पांच साल प्रेतमयी। प्रधानमंत्री बिहार में कट्टा लेकर आये थे। उनकी पूरी फौज ने लोकतंत्र की गर्दन पर कट्टा रख दिया है। गजब का अंधा समय है। जानकीवल्लभ शास्त्री ने मेघगीत कविता में सही लिखा है –
ताड़ खड़खड़ाते हैं केवल; चील गीध ही गाते,
द्रवित दाह भी जम जाता धरती तक आते-आते,
कलरव करने वाले पंछी, पत्तों वाली डाली,
उन्हें कहाँ ठंडक मिलती है, इन्हें कहाँ हरियाली?
ऊपर-ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं,
कहते – ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!
इस नृशंस छीना-झपटी पर, फट कपटी पर,
उन्मद बादल,
मूसलधार शतधार नहीं बरसाता है!
तो सागर पर उमड़-घुमड़ कर, गरज-तरज कर, –
व्यर्थ गड़गड़ाने, गाने क्या आता है?
लोकतंत्र के आसमान में हर पांच साल पर बादल आयेगा। गड़गड़ायेगा भी, लेकिन व्यर्थ। पांच साल ऊपर-ही-ऊपर पीने का उपक्रम होगा। डॉ लोहिया ने कहा था कि पांच सालों तक जिंदा कौमें इंतजार नहीं करतीं। सच पूछिए तो जिंदा कौमें की एक शमां तो बननी चाहिए। तमाम बुरी परिस्थितियों के बाद भी कुछ लोग हैं, जो अलख जगाये हैं। अंधेरे के बाद सूर्य का आना भी निश्चित है।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर




