शिक्षा का स्वरूप और पढ़ाये जाने वाले विषय सदा से सामाजिक, आर्थिक और कार्यालयी (राजकीय) आवश्यकताओं के पूर्त्यर्थ गढ़े भी जाते रहे हैं और उसका विस्तार भी इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के हिसाब से होता रहा है। प्राचीन काल में धर्मशास्त्र, व्याकरण, अस्त्र-शस्त्र संचालन आदि सीमित विषयों की शिक्षा तद् युगीन सीमित सामाजिक-आर्थिक-राजकीय आवश्यकताओं के अनुरूप थी। चूँकि आर्थिक और राजकीय गतिविधियाँ सीमित थीं, इस कारण शिक्षित-प्रशिक्षित लोगों की माँग भी कम थी। शिक्षित-प्रशिक्षित लोगों की माँग कम थी, इसलिए शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाएँ भी कम थीं। जो थीं भी, वे अनौपचारिक थीं।
वर्ष 1760 में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति ने न केवल राजतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था के बदले लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए राह बनायी, जिसके कारण वर्ष 1788 तक आते-आते अमेरिका में संवैधानिक शासन की शुरुआत हुई, बल्कि सामाजिक जीवन, आर्थिक गतिविधियों और कार्यालयी आवश्यकताओं में भी परिवर्तन हुआ। अब गाँवों में बिखरकर बसने वाली आबादी कल-कारख़ानों के निकट बसने लगी, जिससे सघन आबादी वाले नये नगरों का विकास हुआ। इन नगरों में रहने वाले लोगों का रहन-सहन और आवश्यकताएँ पहले की अपेक्षा बदल गयीं। आर्थिक गतिविधि का मुख्य आधार भी कृषि उत्पाद से औद्योगिक उत्पादों की ओर जाने लगा। इसी समय से कारख़ानों, बैंकों, रेलों, प्रशासनिक कार्यालयों आदि में शिक्षित-प्रशिक्षित लोगों की माँग भी बढ़ने लगी। अब इन आवश्यकताओं के अनुरूप ही शिक्षा के पढ़ने-पढ़ाये जाने वाले विषयों और स्वरूप में भी युगांतरकारी परिवर्तन हुआ।
अब वेदों, धर्मग्रंथों, व्याकरण की जगह इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इंजीनियरिंग, मेडिकल, वाणिज्य आदि वे विषय पढ़ाए जाने लगे, जो कारख़ानों, उद्योगों और राजकीय आवश्यकताओं के अनुरूप थे। अर्थव्यवस्था की गतिशीलता और राजकीय व्यवहारों में उपयोगी होने के कारण इन विषयों के जानकारों की माँग बढ़ी और ये, प्राचीन विषयों की अपेक्षा, उन्नत रोज़गार के साधन भी बने। इसलिए नये विषयों के पठन-पाठन के प्रति रुझान में वृद्धि हुई।
वृहद् पैमाने पर कल-कारख़ाने और कार्यालयों के खोले जाने के कारण वृहद् पैमाने पर शिक्षित-प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता भी हुई। इसलिए अनौपचारिक शैक्षिक संस्थानों की जगह औपचारिक स्कूल-कॉलेज खोले जाने लगे ताकि इन कार्यों में नियोजन के लिए कार्य के अनुरूप प्रशिक्षित योग्यताधारी पर्याप्त संख्या उपलब्ध हो सकें। इसी समय, नियुक्ति के लिए, विशाल पैमाने पर उपस्थित होने वाले अनजान उम्मीदवारों की न्यूनतम योग्यता की पहचान के लिए परीक्षा बोर्ड भी विकसित किए गए।
चूँकि आर्थिक गतिविधि और राजकीय व्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण होता है, इसलिए उस आर्थिक और राजकीय व्यवस्था की आवश्यकता के अनुरूप युवक-युवतियों को तैयार करने के लिए सरकार ने शिक्षा को भी अपने नियंत्रण में लेकर उसे एक औपचारिक व्यवस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया। समाज के हाथों से खिसककर शिक्षा राज्य के नियंत्रण में चली गयी। अब राज्य आर्थिक-राजकीय आवश्यकताओं को पूर्त करने वाले विद्यालयों-विश्वविद्यालयों और विषयों को मान्यता देने लगा, पाठ्यक्रम निर्धारित करने लगा और यहाँ तक कि कार्यालयी आवश्यकताओं के अनुरूप ही उसने विद्यालयों-महाविद्यालयों में अनुशासन का भी पाठ्यक्रम बना दिया। इस तरह पूरी शैक्षिक व्यवस्था सत्ता और पूँजीपतियों और उनके गठजोड़ के हितों की कठपुतली होकर रह गई। औद्योगिक विकास की कोख से उत्पन्न आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था की इस पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया में मानवीय संवेदना और सामाजिक चेतना से उसका संबंध-विच्छेद लगातार बढ़ता चला गया।
मानव-जीवन और मानवीय संवेदना तथा सामाजिक जीवन और सामाजिक चेतना से शिक्षा को विलग करने के लंबे प्रयास में सफलता के बाद सत्ता और पूँजीपतियों ने इसे अपने-अपने हितों में उपयोग करना शुरू कर दिया। एक तो यह हुआ कि आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था के प्रथम चरण में मानविकी आदि के विषय, जो मानवीय-सामाजिक दृष्टि से उच्चतर दर्जे के समझे जाते थे, औद्योगिक और व्यावसायिक उपयोग के विषय न रहने के कारण, दोयम दर्जे के विषय के रूप में पहचाने जाने लगे। दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता ने इसे अपनी विचारधारा के प्रचार का साधन बनाना शुरू किया। उधर नवउदारवाद के खुले दरवाज़े से आकर पूँजीपतियों ने शिक्षा पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया को इस क़ब्ज़े के लिए आमंत्रित करते हुए शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का पथ प्रशस्त कर दिया गया। सत्ता और पूँजी के हितों को नीतिगत आधार देने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लायी गई। शिक्षा पर राजकीय व्यय को कम करने, उसे राजनीतिक एजेंडा का हथियार बनाने और उसे पूँजीपतियों के हाथ में सौंप देने का ही नीतिगत दस्तावेज है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020।
इस तरह शिक्षा की धारा सत्ता और पूँजीपतियों के हितों की खेती को सींचने की ओर मोड़ दी गई है। सत्ता और पूँजीपतियों के हित सामाजिक और मानवीय मूल्यों से अलग हैं, कहें तो लगभग विपरीत। शिक्षा की इस नवीन धारा के रास्ते में सामाजिक आवश्यकताएँ और मानवीय संवेदना नहीं आती हैं। ऐसा ही रहा तो सामाजिकता बंजर ज़मीन की तरह हो जाएगी और मनुष्य रोबोट की तरह, पालतू और नियंत्रित। ऐसा होने में बहुत ज़्यादा समय बाक़ी नहीं है।
इसीलिए सामाजिक-मानवीय आधार पर शिक्षा के स्वरूप के पुनर्गठन की ज़रूरत है। इस नवीन परिस्थिति में शिक्षा के एक ऐसे प्रारूप की ज़रूरत है, जो राजनीतिक आवश्यकताओं की चेरी न बनकर सामाजिक हितों की पूर्ति करती हो, जो मनुष्य को क्लर्क-मात्र न बनाकर मानवीय गरिमा से भी संपन्न बनाये, जो शिक्षार्थी को औद्योगिक और व्यावसायिक समूहों के उपयोग का रोबोट-मात्र न बनाकर मानवीय संवेदना और सामाजिक चेतना से भी समन्वित कर सके, जो केवल धन्नासेठों के महलों की ही शोभा-मात्र न हो, बल्कि झोपड़ियों में भी अवसर की ज्योति जगाती हो, जो ख़ुद भी समानता पर आधारित होकर सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए मानसिकता और परिवेश का निर्माण करती हो, जो बेरोज़गारी के विरुद्ध रोज़गार के रास्ते बनाती हो, जो समावेशी हो और प्रेम और करुणा से पूर्ण जगत का निर्माण करती हो।
सत्ता अपने लिए काम कर रही है, पूँजीपति अपने हितों की पूर्ति में संलग्न हैं। समाज, सामाजिक हितों, मानव और मानवीय हितों से उनका कोई वास्ता नहीं है। ऐसे में सामाजिक और मानवीय हितों के लिए समाज और सामाजिक लोगों को ही खड़ा होना होगा, उन्हें ही आगे बढ़कर शिक्षा के स्वरूप के पुनर्गठन की चिंता करनी होगी। यही आज की ज़रूरत है।
शिक्षा का पूंजीवादी विकास पर आछा लेख है लेकिन सुगम भी है।
धन्यवाद!
Good article
सटीक और सारगर्भित लेख
धन्यवाद!