बहुत पुराने जमाने की बात है। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ थे, दूर-दूर तक फैला हुआ सघन जंगल था और उस जंगल में मारकर खा जाने वाले तथा मरकर खाये जाने वाले जानवरों की भरमार थी। उसी जंगल के बीच पहाड़ों की तलहटी में एक बस्ती थी। ऊँचे पहाड़ों और भयावह दुर्गम जंगलों से घिरी हुई उस बस्ती में न तो कभी कोई बाहर से आता था और न ही उस बस्ती के लोग बाहर जा पाते थे।
लेकिन उस बस्ती के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते थे। वे दिन भर शिकार करते, फल-मूल-कंदों को लाते और शाम होने के पहले ही गुफाओं में दुबक जाते। हर रात उनके लिए मृत्यु की यातना लेकर आती। उस बस्ती में अभी तक प्रकाश का आविष्कार नहीं हुआ था। इसलिए रात होने पर वे अपनी रक्षा नहीं कर पाते थे। कभी तो दौड़ते-भागते पत्थरों से टकराकर चोटिल हो जाते, कभी गढ़े में गिरकर हाथ-पैर तुड़वा लेते, कभी किसी को कोई विषैला जीव डँस लेता और कभी कोई किसी हिंसक पशु का आहार हो जाता। रात उनके लिए बड़ी भयावह होती। अंधेरे के विरुद्ध बस्ती के सारे लोगों ने अपने-अपने ढंग से बहुत सारे उपाय किए, परंतु कोई उपाय कामयाब नहीं हो सका। उनकी रूहों को कँपानेवाली रात उसी रौ से आती रही।
जब किसी का कोई वश न चला तो उस बस्ती के राजा ने सारे पंडितों की एक बैठक बुलाई। उस बैठक में अंधेरे की समस्या को दूर करने के उपायों पर पंडितों में गहन विमर्श और काफी विवाद हुआ। अंत में सारे पंडित एक सुर में इस निष्कर्ष में पहुँचे कि अंधेरा इस बस्ती पर दैवी आपदा है। देवता रुष्ट हैं, इसलिए कोई उपाय कामयाब नहीं होता। इस अभिशाप को दूर करने के लिए देवता को मनाना होगा। देवता ही प्रसन्न होकर इस अभिशाप से मुक्त कर सकते हैं। असंभव को संभव करने के लिए विराट प्रयास की आवश्यकता होती है। देवता को प्रसन्न करने के लिए भी विधिपूर्वक विराट आयोजन होने चाहिए। प्रजा के दुखों से दुखी नेकदिल राजा को भी यह उपाय पसंद आया।
पूरे राज्य में प्रमुख और पवित्र स्थानों को चिन्हित कर देवता की आराधना का भव्य राजकीय आयोजन किया गया। बस्ती के सारे पंडित इस पुनीत कार्य में लगाए गए। बस्ती की आपदा अब तो चली ही जाएगी, उनके सुख-चैन के दिन अब तो आ ही गए, मानकर बस्ती के लोगों ने खुले हाथों और उदार हृदय से इस आराधना में सहयोग किया। बस्ती की सारी योजनाओं को रोककर पूरे राजकोष को इस विपदानाशक महायोजन में झोंक दिया गया। पूरी बस्ती में स्थान-स्थान पर विशाल भूमि-खंडों को सुगंधित द्रव्यों से लीप-पोतकर देवता को प्रसन्न करने की आराधना का आयोजन किया गया। उन सुगंधित भूमियों पर फल, मूल, कंद, अन्न, पशु, द्रव्यों आदि को आकाश की ओर उठा-उठाकर पंडित देवताओं को अर्पित करते और उच्च स्वर में उनसे प्रसन्न होने और अंधेरा दूर करने का निवेदन करते। उन पवित्र पंडितों की दिव्य आराधना की गूँज दिगंत तक सुनाई पड़ने लगी। लोगों को लगा कि उनके दुख-दर्द के दिन अब गए। उन्हें विश्वास हुआ कि सुगंधित द्रव्यों से सुवासित इस भूमि पर पवित्र पंडितों की प्रार्थना का प्रभाव उजाले को जरूर ले आयेगा।
अंधेरे को भगाने के लिए आकाश के देवता की आराधना करते हुए काफी दिन बीत गए। देवता को प्रसन्न करने में संलग्न पंडितों के मुखमंडल की कान्ति दिव्य हो गई, उनके घरों की स्त्रियॉं और बच्चे पुष्ट सौन्दर्य से मंडित होकर वस्त्राभूषणों से लद गए। परंतु अंधेरा उसी तरह कायम रहा। जब शुक्ल पक्ष आता, उत्साहित होकर पंडित बस्ती के लोगों और राजा को समझाते कि देखो, अंधेरा जा रहा है। सदियों से जो अंधेरा कायम है, उसके जाने में समय तो लगेगा, एकाएक तो नहीं जाएगा। इसी तरह धीरे-धीरे जाएगा। और, लोगों के साथ राजा के मन में भी आशा बँधती कि चलो, सारी मेहनत और खर्च का सुफल मिल रहा है। फिर वे दूने उत्साह से दान-दक्षिणा देने लगते। परंतु कृष्णपक्ष में वे उदास हो जाते। लोगों को और राजा को लगता कि सारी मेहनत और खर्च पानी में चला गया। उस समय पंडित उन्हें समझाते कि घबराने की कोई बात नहीं है। उजाले के देवता से लड़ते हुए अंधेरे ने यह मायाजाल फैलाया है। कुछ ही दिनों में शैतानी मायाजाल कट जाएगा तो उजाले के देवता का राज्य कायम हो जाएगा। और, सचमुच आठ-दस दिनों के बाद उजाला मुस्कुराकर अपनी सफ़ेद चादर पसारने लगता तो लोगों में फिर से विश्वास का संचार होने लगता।
उजाले के देवता को पुकारते हुए और उसे अन्न, वस्त्र, धन, पशु अर्पित करते हुए कई दशक हो गए थे। अंधेरा उसी तरह आ रहा था। पंडितों के वचन पर से लोगों का विश्वास उठने लगा था। राजकोष खाली हो गया था। लोगों पर अनेक तरह के नए कर लाद दिये गए थे। उजाले के देवता की आराधना में लोगों ने मुट्ठियाँ बाँधनी शुरू कर दी थीं। राजकीय और सामाजिक सहयोग के अभाव में अंधेरे को भगाने का यह आयोजन धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
लेकिन समस्या तो जहाँ-की-तहाँ थी। बस्ती के लोगों के कष्टों का अंत नहीं हुआ। बस्तीवाले राजा के यहाँ गुहार लगाने लगे। बस्तीवालों के दुखों से पीड़ित राजा ने इस बार अपने सारे अधिकारियों की बैठक बुलाई। बैठक में तरह-तरह के विचार आए। एक उच्चाधिकारी का सुझाव था कि इस मसले पर अंधेरे के राजा से पत्र-व्यवहार किया जाये। एक दूसरे उच्चाधिकारी का सुझाव था कि इस पूरे मामले की जाँच गुप्तचरों से करायी जानी चाहिए। इन विचारों पर अनेक प्रकार से खंडन-मंडन हुआ। परंतु सेनापति के सुझाव को सर्वसम्मति से मान लिया गया। सेनापति का कहना था कि मार के डर से तो भूत भी भाग जाता है। हमारी इतनी बड़ी सेना है। यदि वह रात भर अंधेरे को मारती-काटती रहे तो निश्चित ही एक दिन यह अंधेरा डंडों और नुकीले तथा धारदार हथियारों की मार से मारा जाएगा या घायल होकर भाग जाएगा। सारे लोगों ने अपने अन्यभव से इस सुझाव को पसंद किया, राजा ने भी। बस्ती के सारे लोगों को लगा कि दुख-दर्द के दिन अब गए। उनकी बस्ती की वीर सेना अब अंधेरे को मिटाकर ही दम लेगी।
अगले दिन से योजना पर अमल किया जाने लगा। अंधेरा घिरने से पहले ही सारी सेना हथियार सँभाल लेती और सूरज डूबते ही वह पूरे जी-जान से अंधेरे से युद्ध करने पिल पड़ती। लठैत लाठियाँ भाँजने लगते, कोई धारदार हथियारों से अंधेरे को टुकड़े-टुकड़े में काटने लगता और कोई लकड़ियों और पत्थरों से बने नुकीले भालों को अंधेरे की छाती का निशाना बना-बनाकर फेंकता। इतने जोश के साथ इतना बड़ा युद्ध छिड़ गया कि लगा कि अंधेरा अब बच नहीं सकता।
परंतु कई महीने तक जी-जान अर्पित करके युद्ध करते-करते जब सेना बुरी तरह पस्त हो गई और अंधेरा हटने का नाम नहीं ले रहा था तो सेनापति ने राजा को समझाया कि अंधेरे को केवल सेना के बल पर नहीं हराया जा सकता है। गाँव के सारे लोगों को इस युद्ध में सम्मिलित होना होगा, तभी अंधेरे को हराया जा सकता है। उसने राजा को सलाह दी कि युवकों के लिए अंधेरे से युद्ध करने की अनिवार्यता की राजाज्ञा निकाल दी जाए। पूरी बस्ती जब अंधेरे से लड़ाई में शामिल हो जाएगी, तभी उसे हराया जा सकता है।
राजा अंधेरे के अपार बल को देख ही रहा था। उसे सेनापति की सलाह सही लगी और उसने कल होकर अंधेरे के विरुद्ध युद्ध में बस्ती के सारे युवकों की अनिवार्य सैन्य-सेवा की राजाज्ञा जारी कर दी। अब बस्ती के सारे युवक भी अंधेरा घिरते ही लाठी-डंडा आदि लेकर अंधेरे के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गए। चारों ओर अपूर्व उत्साह के साथ लाठी-डंडे भाँजे जाने लगे, भाले फेंके जाने लगे। लगा कि अंधेरा तो इस बार दम तोड़ ही देगा।
लेकिन कुछ ही दिनों के बाद एक नयी समस्या खड़ी हो गयी। बस्ती के लोगों में कानाफूसी होने लगी, असंतोष फैलाने लगा और जगह-जगह बैठकें होने लगीं कि सेना तो राजकोष से पोषित होती है, शत्रुओं से लड़ना उनका काम ही होता है। लेकिन, दिन भर अपने-अपने कामों से थके युवकों से रात में मुफ्त राजकीय सेवा लेना मानवाधिकार का हनन है। राजा को भी सूचना मिली और उसे यह असंतोष सही प्रतीत हुआ। अत: उसने अंधेरे के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने वाले सारे युवकों को उत्साहित करने के लिए विशेष भत्ते की राजकोषीय व्यवस्था कर दी। अंधेरे के विरुद्ध युद्ध पूरे उत्साह से जारी रहा।
अंधेरे के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध करते हुए कई दशक बीत गए। एक दिन यह देखने के लिए कि अंधेरे पर अब तक कितनी विजय प्राप्त की जा सकी है, राजा रात में हाथी पर सवार होकर बस्ती में निकाला। उसे पूरी बस्ती में कोई भी अंधेरे से युद्ध करता हुआ नहीं मिला। युवक भत्ता ले-लेकर अपने घरों में सोए हुए थे और सैनिक टहल रहे थे। युद्ध कोई भी नहीं कर रहा था। कल होकर राजा ने अंधेरे के विरुद्ध सशस्त्र अभियान को बंद करने की राजाज्ञा जारी कर दी।
अंधेरे का प्रकोप बदस्तूर जारी था। इस बार राजा ने अलग-अलग कार्यों में निष्णात बस्ती के सारे पेशेवर विशेषज्ञों की बैठक बुलायी। वे पेशेवर विशेषज्ञ अपने-अपने कार्यों में सुदक्ष और प्रसिद्धि-प्राप्त थे। इन्हीं पेशेवरों ने राजा की कन्दरा को अद्भुत और अभेद्य बनाया था। इन्होंने ही शिकार को सुगम बनाने वाले नुकीले और धारदार हथियारों का आविष्कार किया था। राजा को अप्रतिम मेधा-संपन्न अपने पेशेवर विशेषज्ञों की योजना पर पूरा भरोसा था। उन विशेषज्ञों में काफी वाद-विवाद हुआ। एक-पर-एक सुझाव आए। लेकिन दूसरे लोग उसमें त्रुटियाँ निकाल देते थे।
पेशेवर विशेषज्ञों की उस बैठक में वह बूढ़ा भी था, जिसने राजा की कन्दरा को अभेद्य बनाने का डिजायन तैयार किया था। उसकी कल्पनाशीलता के सब लोग कायल थे। राजा भी उसकी इज्जत करता था। जब उससे पूछा गया तो उसने बताया कि अंधेरा रात की समस्या है। दिन होने पर वह बस्ती से भाग जाता है और पहाड़ों की कन्दराओं और घने जंगलों में जाकर छिप जाता है। फिर रात होने पर ही बस्ती में आता है। यदि बस्ती के चारों ओर ऊँची चहारदीवारी बना दी जाए तो फिर अंधेरा रात में आ नहीं पाएगा और उजाला जा नहीं पाएगा।
यह तर्क अकाट्य था। सारे लोगों ने अंधेरे को इसी रूप में आते-जाते देखा था। चहारदीवारी बनाने के सुझाव पर कोई विरोध नहीं हुआ। राजा को भी यह सुझाव पसंद आया। सबने उस वृद्ध की भूरि-भूरि प्रशंसा की और कल से बस्ती के चारों ओर ऊँची चहारदीवारी के निर्माण का कार्य प्रारंभ हो गया।
चहारदीवारी काफी ऊँची हो गई थी। गिलहरी भी उसके ऊपर नहीं चढ़ सकती थी। परंतु, पता नहीं अंधेरा कैसे उतनी ऊँची चहारदीवारी को भी फाँद करके आ जाता था। अंधेरे का आना-जाना जारी रहा और उसके साथ ही चहारदीवारी का ऊँचा होना भी। आखिर कितनी ऊँचाई तक अंधेरा फाँद पाएगा चहारदीवारी को। एक-न-एक दिन तो ऐसा आयेगा, जब वह इतनी ऊँची चहारदीवारी को लाँघ नहीं पाएगा। तब बस्तिवालों के सुख और चैन के दिन आएंगे। बस्तीवाले रोज चहरदीवारी लाँघकर अंधेरे के इस पार न आ सकने का त्योहार मनाने का इंतजार करते। अंधेरे के आ जाने पर उसकी ऊँचाई और बढ़ाई जाती और शाम में फिर अंधेरे के न आ सकने का त्योहार मनाने का इंतजार किया जाता। फिर भी अंधेरे के आ जाने पर कल होकर चहारदीवारी की ऊँचाई और बढ़ाई जाती।
अंधेरे को रोकने के प्रयास में चहारदीवारी पहाड़ों से भी ऊँची हो गई, इतनी ऊँची कि सूरज का आना ही रुक गया। अब वहाँ दिन-रात अंधेरा रहने लगा। अंधेरे को आने से रोकने के प्रयास में अंधेरे का जाना ही रुक गया। पहले तो आधा समय उजाला रहता भी था। अब तो अंधेरा अहर्निश कायम हो गया।
इधर प्रकाश के अभाव में लोगों और पशुओं को अजीब-अजीब बीमारियाँ होने लगीं। फसलें पीली हो गईं और खेत बंजर हो गए। राजा को लगा कुछ गलत हो रहा है। उसने मंत्रियों और सभासदों से सलाह ली। सबने एकसुर में कहा कि निकास रुक जाने के कारण अंधेरा कुपित हो गया है। चहारदीवारी को तोड़कर उसे तत्काल निकलने का रास्ता देना चाहिए। और, सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव के पास होने पर कल से चहारदीवारी को तोड़ डालने की राजाज्ञा जारी कर दी गई।
चहारदीवारी के टूट जाने से दिन का उजाला तो आने लगा, किन्तु रात में अंधेरे का प्रकोप पहले की तरह ही जारी रहा। इस बार राजा ने बस्ती के सारे बुद्धिमान और समझदार लोगों की बैठक बुलायी। ये वे लोग थे, जिन्होंने निगूढ़ तत्वज्ञान का बयान किया था, जो प्रकृति के रहस्यों को समझ-समझ कर लोगों को बताते थे, जिन्होंने जीवन और समाज को बदल देने वाले बड़े-बड़े आविष्कार किए थे और जो लोग बस्ती के नीति-निर्देशक तत्वों का निर्धारण करते थे। राजा को इनसे बड़ी उम्मीद थी। राजा ने उनसे बस्ती की सनातन समस्या पर सुझाव माँगे तो उन्होंने भाँति-भाँति के अकाट्य सुझाव प्रस्तुत किए। परंतु राजा को बस्ती के सबसे सम्मानित बुजुर्ग के विचार पसंद आए, वह बस्ती का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति था। उसके दादा ने चक्के का आविष्कार किया था, उसके पिता ने ही नुकीले हथियार बनाए थे और खुद उसने वृक्ष की छालों से बने कड़े और रूखे वस्त्रों को मुलायम बनाने की खोज की थी। वह खानदानी अन्वेषक था। जब उससे पूछा गया तो उसने अपनी गंभीर वाणी में कहा – “हमलोगों ने अंधेरे के खिलाफ अनेक उपाय किए हैं। परंतु वे सारे व्यर्थ हो गए। पहले किए गए प्रयासों से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि अंधेरे को आनन-फानन में नहीं मिटाया जा सकता है। यदि हम धैर्य से काम लें और दीर्घकालीन योजना बनाएँ, तभी अंधेरे को समाप्त कर सकते हैं।“ उसने आगे कहा – “अंधेरे को समाप्त करना केवल राजा का ही कर्तव्य नहीं है। बल्कि पूरी बस्ती को इस अभियान में संलग्न होना चाहिए।“
अपनी लंबी भूमिका के बाद उसने कार्ययोजना बतायी कि यदि बस्ती का प्रत्येक व्यक्ति दस टोकरी अंधेरा रोज फेंक देगा तो धीरे-धीरे अंधेरा कमजोर होकर समाप्त हो जाएगा।
उस अन्वेषी विचारक का सुझाव सबको पसंद आया, राजा को भी। सबको लगा कि उनके दिमाग में इतना सरल सुझाव पहले क्यों नहीं आया। सबने उसके सुझाव को खूब सराहा और उसे साधुवाद दिया। उसी समय राजाज्ञा जारी कर दी गयी कि बस्ती के सारे लोग रोज दस टोकरी अंधेरा बस्ती के बाहर फेंकेंगे। उस दिन से उस बस्ती के सारे लोग रोज दस टोकरी अंधेरा बस्ती के बाहर फेंकने लगे।
कहते हैं कि उस गाँव के लोग आज भी अंधेरे को टोकरियों में ले जाकर बस्ती के बाहर फेंक आते हैं। लेकिन, गाँव में अब भी अंधेरा कायम है, क्योंकि गाँववालों को अब भी विश्वास है कि अंधेरा इसी तरह खत्म होगा।
(यह कहानी एक लोककथा पर आधारित है।)