सोवियत क्रांति के सौ वर्ष

साल 2017 सोवियत क्रांति का सौवाँ वर्ष है। पूरे विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियाँ और उसी तरह भारत की भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ ‘महान सोवियत क्रांति’ का शताब्दी वर्ष मना रही हैं। 8 नवंबर, 1917 को बोल्शेविकों के द्वारा सत्ता पर कब्जे के साथ सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन की जो शुरुआत हुई, वह 24 अगस्त, 1991 को तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्वाचोव के द्वारा सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पद से त्यागपत्र और कम्युनिस्ट शासन की समाप्ति की घोषणा के साथ ही 74 वर्षों के बाद समाप्त हो गई।

रूस की क्रांति की पृष्ठभूमि में वहाँ की जनता की अकल्पनीय फटेहाली थी। न तो उनके पास ठंड से बचने के लिए तन ढ़ँकने के वस्त्र थे और न ही भूख से ऐंठती अँतड़ियों को शांत करने के लिए एक मुट्ठी अनाज था। मार्च, 1917 की ठंड में वे ठिठुरते हुए पेट्रोग्राद की सड़कों पर बिलबिला रहे थे। पेट्रोग्राद की सजी हुई दूकानें गर्म रोटियों से भरी हुई तो थीं, परन्तु वे रोटियाँ उनके लिए न थीं। और, आखिर वही हुआ, ऐसी स्थिति में जिसका अंदाजा किया जा सकता है। वे असंख्य भूखे-नंगे लोग दूकानों पर टूट पड़े और उन्हें लूटने लगे। जार्ज निकोलस द्वितीय की सरकार ने सेना को उन पर गोलियाँ चलाने का हुक्म दिया। लेकिन निरंकुश, स्वेच्छाचारी और अत्याचारी जारशाही से सेना भी त्रस्त थी। सेना के मन में भी भूखे-नंगे लोगों के प्रति सहानुभूति हो गई थी और उनमें भी क्रांति की भावना भर गई थी। फलस्वरूप उन्होंने गरीबों पर गोली चलाने से साफ इन्कार कर दिया। इस घटना ने परिवर्तनकामी क्रांति को अवश्यंभावी बना दिया और उसी महीने में जार को पदच्युत कर जार्ज स्लाब की अध्यक्षता में एक ‘समाजवादी सरकार’ की स्थापना हुई।

इस क्रांतिकारी परिवर्तन के परिणामस्वरूप जार के हाथ से सत्ता तो छिन गई, परन्तु वह मध्य वर्ग के हाथों में चली गई। जिन भूखे, नंगे, गरीबों, मजदूरों ने इस क्रांति को अंजाम दिया था, वे अभी भी सत्ता में हिस्सेदारी से बेदखल थे। उसी समय ब्लादिमीर लेनिन ने ‘दुनिया के मजदूरो एक हो’ के नारे के साथ मजदूरों के साथ मिलकर दूसरी क्रांति की और भारी मार-काट के बाद उसी साल 8 नवंबर को सत्ता पर कब्जा करके मजदूरों के कम्युनिस्ट शासन की शुरुआत की। लेनिन के नेतृत्व में की गई इस क्रांति को ही रूसी क्रांति, बोल्शेविक क्रांति या सोवियत क्रांति कहा जाता है और उसी की शतवार्षिकी पूरी दुनिया इस साल मना रही है।

रूस के गरीबों और मजदूरों की इस जीत ने दुनिया भर के मजदूरों और गरीबों को आंदोलित कर दिया। फिर तो क्रांतियों का सिलसिला ही चल पड़ा। साल 1917 में ठंडे मुल्क रूस से भभकी हुई क्रांति की इस लपट ने साल 1950 के आते-आते लगभग आधे विश्व को अपनी लपेट में ले लिया और बाकी बची दुनिया के मुल्कों में भी लाल झंडे का रुआब झलकने लगा था।

वे कौन-से कारण थे या सोवियत संघ में वह कौन-सी बात दिखायी पड़ रही थी, जिसके कारण दुनिया भर के गरीब, मजदूर, वंचित, उत्पीड़ित लोग उसकी ओर पागलों की तरह आकृष्ट हो रहे थे? वह पहली बात थी समानता की। ज्ञात सभ्यता के कई हजार वर्षों के इतिहास में पहली बार यह हुआ था कि वहाँ पर गैरबराबरी को पूरी तरह खत्म कर दिया गया। अब वहाँ किसी आर्थिक, लैंगिक या वंशानुगत आधार पर कोई खाई नहीं रही। उत्पादन के सारे साधन, भूमि, उद्योग या अन्य भी सब कुछ, राज्य के अधीन हो गए, जिससे आर्थिक आधार पर अंतर और उत्पीड़न की जड़ ही कट गई। दुनिया भर के तमाम पीड़ितों, शोषितों, कामगारों और भूखे-नंगे लोगों के लिए यह बड़ा सुकून देने वाला था। दूसरी बड़ी बात यह थी कि दुनिया के तमाम पूँजीवादी राष्ट्रों के उलट सोवियत संघ वह देश हुआ, जिसके पास अपने सारे नागरिकों के लिए, उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार, काम थे। अब वहाँ एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं था। इसके अलावा राज्य ने सबके लिए समान रूप से चिकित्सा, सबके लिए अनिवार्य शिक्षा और सारे लोगों के लिए आवास की व्यवस्था की। इस तरह अपने समस्त नागरिकों के प्रति सभी प्रकार की जवाबदेही राज्य की हो गई।

इसका परिणाम यह हुआ कि वहाँ के कामगारों ने अभूतपूर्व उत्साह का परिचय देते हुए अल्पकाल में ही वहाँ विशालकाय उद्योगों, और कारखानों को खड़ा कर दिया, भीमाकार बाँधों का निर्माण कर दिया, बड़े-बड़े अनुसंधान और वैज्ञानिक प्रयोग करते हुए चंद्रमा पर अपना यान उतार दिया और अमेरिका के मुकाबले विश्व की महाशक्ति के रूप में अपने को स्थापित कर लिया। इतने अल्पकाल में इतना सब कुछ हो जाना अद्भुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय था। सबकी समानता, राज्य के द्वारा समस्त नागरिकों की चिंता और अद्भुत विकास ही वे कारण थे, जिसने दुनिया भर के मजदूरों, वंचितों और उत्पीड़ितों को अपनी ओर बेतरह आकर्षित किया और उसी के कारण 1950 तक आते-आते लगभग आधी दुनिया के देशों में समाजवाद का झंडा लहराने लगा था।

लेकिन फिर क्या हुआ कि अपनी तरुणाई के दिनों में समाजवाद को लाने के लिए क्रांति में भाग लेने वाली पीढ़ी ही अधेड़ होते-होते समाजवाद के खात्मे के लिए सड़कों पर उतर पड़ी। आर्थिक समानता के जिस सपने को साकार करने के लिए लाखों लोगों की लाशें बिछा दी गईं, जिस समाजवाद का सूरज खून के महासागर को पार करके उगा था, उससे इतनी जल्दी निराशा क्यों हो गई? वह सूरज दोपहर होने के पहले ही ढ़लने क्यों लगा? सोवियत संघ के दुर्जेय दुर्ग के साथ ही दुनिया के दूसरे-दूसरे मुल्कों में भी समाजवाद के किले एक-एक कर ढ़हते चले गए और होते-होते स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि आज दुनिया में चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया, वियतनाम और लाओस – इन पाँच मुल्कों में ही कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रह गया है। और, इन बचे हुए देशों में भी केवल शासक पार्टी कम्युनिस्ट है, वहाँ की व्यवस्था में कम्युनिज्म नहीं है। ये बचे हुए देश भी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा शासित कैपिटलिस्ट तौर-तरीकों वाले देश बनकर रह गए हैं।

पहला कारण तो यह हुआ कि समाजवाद ने समानता तो स्थापित की, लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हरण कर लिया। अब लोग वही सोच और बोल सकते थे, जो वहाँ की पार्टी सोचती और बोलती थी। उसके विरुद्ध बोलने या असंतोष जताने को बगावत माना गया और इस बगावत के इल्जाम में हजारों-लाखों लोगों को कत्ल करके दहशत का वातावरण निर्मित किया गया। आखिर लोग कब तक चुप रहते? एक लंबी चुप्पी के बाद व्यवस्था के विरुद्ध आवाजें मजबूत होने लगीं और अंततोगत्वा पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक व्यवस्था कायम हो गई।

दूसरा प्रमुख कारण था पूँजीवादी समृद्ध देशों की तुलना में भौतिक सुख-सुविधाओं का अभाव। सोवियत संघ के लोग जब अपने देश की चौहद्दी से निकलकर किसी यूरोपियन समृद्ध देश में जाते तो वहाँ के आलीशान भवन, गाड़ियों और व्यक्तिगत सुविधाओं के सारे नजारे देखकर अवाक् रह जाते और, भीतर-ही-भीतर, उन्हीं सुखाकांक्षाओं को लेकर अपने देश लौटते और अपने स्वजनों के बीच उसे चटकारे लेकर सुनाते। देश-दुनिया के दरवाजे खुल जाने के कारण उँचे तबके के अधिकांश लोगों के भीतर ये लालसाएँ दिन-ब-दिन बलवती होती चली गईं। सत्ता और समाज में प्रतिष्ठित ऐसे लोगों ने असंतोष को और भी भड़काने का काम किया।

उधर व्यक्तिगत सुखाकांक्षाएँ बढ़ रही थीं और इधर राज्य उनकी पूर्ति करने में अपने को असमर्थ पा रहा था। वहाँ उत्पादन तो बड़ी तेजी से और बहुत हुआ, परन्तु उसका उपयोग अपने नागरिकों की सुख-सुविधा बढ़ाने के बदले अपने खर्चे पर दुनिया के अन्य देशों में समाजवाद लाने और अमेरिका के मुकाबले सैन्य-क्षमता में ‘महाशक्ति’ बनने पर खर्च हुआ। फलतः राज्य के द्वारा नागरिकों को प्रदान की जाने वाली सुविधाएँ प्राथमिक स्तर से आगे नहीं बढ़ीं। परिणाम व्यवस्था के प्रति असंतोष के रूप में सामने आया।

सोवियत संघ में समाजवाद की स्थापना और तेजी से अन्य देशों में उसके प्रसार ने पूँजीवादी देशों को आशंका से भर दिया था। चिनगारियाँ उन देशों में भी पहुँच चुकी थीं। इसलिए डर लगने लगा था कि कहीं लपटें भी न उठने लगे। इस आशंका से त्रस्त पूँजीवादी देशों का मुख्य मकसद समाजवाद को समाप्त करना हो गया और वे इसमें कामयाब भी हुए।

लेकिन यहाँ पर प्रश्न यह खड़ा होता है कि समाजवाद की जड़ें क्या इतनी कमजोर होती हैं कि पूँजीवाद के धक्के को बर्दाश्त न कर सकें? फिर यह भी प्रश्न खड़ा होता है कि मार्क्सवाद के प्रवर्तकों ने जो यह प्रमाणित किया था कि समाजवादी समाज सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त परम स्वतंत्रता का समाज होगा और उसमें पूँजीवाद की अपेक्षा सुख-समृद्धि के बेहतर अवसर होंगे, वैसा सोवियत संघ में क्यों नहीं हो सका?

वस्तुतः इसके लिए समाजवाद की स्थापना के लिए आवश्यक मार्क्सीय सिद्धांत और रूस की परिस्थिति को समझना आवश्यक है। मार्क्सवाद के संस्थापकों ने ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विश्लेषण करते हुए यह मत स्थापित किया था कि समाजवाद के लिए पूँजीवाद का पूर्ण विकसित होना आवश्यक है। पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास के द्वारा ही, वर्ग-विरोध के रूप में, समाजवादी आगमन का गर्भाधान होता है। संपूर्ण पूँजीवादी प्रणाली में उत्पादन की सामूहिकता और व्यक्तिगत हस्तगतकरण के रूप में असंगति प्रारंभ से ही मौजूद रहती है। प्रोन्नत प्रविधि की सहायता लेने के कारण उत्पादन विनिमय से आगे निकल जाता है। ऐसी परिस्थिति की पुनः-पुनः आवृत्ति और मजदूर वर्ग की ठोकर पूँजीपति वर्ग को तोड़कर रख देती है और तब समाज के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि उत्पादक शक्तियों को अपने अधीन में कर ले (ड्यूहरिंग मत खंडन, एंगेल्स, पृ0 443)। इस प्रकार समाजवाद के आगमन के लिए पूँजीवाद का होना उतना ही आवश्यक है, जितना कि स्वयं सर्वहारा वर्ग। इसीलिए एंगेल्स ने कहा था कि ऐसे देश में इस क्रांति को आसानी से संपन्न करना, जहाँ पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा न विकसित हुआ हो, समाजवाद की वर्णमाला से भी अपरिचय प्रमाणित करता है (संकलित रचनाएँ, का0 मार्क्स, फ्रे0 एंगेल्स, खण्ड 2, भाग 2, पृ0 193)। समाज के द्वारा उत्पादक शक्तियों पर अधिकार के कारण समाजवाद में उत्पादनशीलता का विकास पूँजीवाद से अधिक होता है। इस तरह समाजवाद अपने समस्त पूर्व युगों से अधिक उत्पादनशीलता वाला समाज है (समाजवादी विचारधारा और संस्कृति, लेनिन, पृ0 30)। इसलिए समाज द्वारा वितरण की व्यवस्था वाला समाजवाद उच्चतर सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य वाली सभ्यता है।

समाजवाद की स्थापना के लिए इस आवश्यक परिस्थिति की तलाश जब हम सोवियत समाजवाद की स्थापना के काल में करते हैं तो पाते हैं कि वहाँ पूँजीवाद का पूर्ण विकास तो क्या सामंतवाद की पूर्ण समाप्ति भी नहीं हो पाई थी। पूँजीवाद की तो अभी पलकें ही फूटी थीं। वहाँ 1861 ई0 तक कृषि दासत्व चला आ रहा था। 1885 के पश्चात वहाँ कच्चे लोहे का उत्पादन तेजी से विकसित हुआ था और 1891 में सरकार द्वारा रेलवे लाइनों को बिछाया जाना शुरु हुआ था। खनिजों का उत्पादन और यातायात के साधनों का विकास पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के लक्षण हैं। इन पच्चीस-तीस वर्षों में ही रूसी पूँजीवाद का इतना विकास संभव नहीं है कि वह पूँजीवादी अंतर्विरोध की चरम स्थिति पर पहुँच जाए। फिर 1905 में हुई क्रांति को सोवियत इतिहासकारों ने ‘बुर्जुआ प्रजातांत्रिक क्रांति’ की संज्ञा दी है, जिसमें क्रांतिकारियों की पराजय हुई थी। अर्थात 1905 तक रूसी पूँजीवाद इतना ही विकसित हुआ था कि वह वहाँ के सामंती ढ़ाँचे के सामने पराजित हो गया था।

एंगेल्स की अप्रतिम प्रतिभा ने यह पहचान लिया था कि रूस निर्विवाद रूप से क्रांति की देहरी पर खड़ा है (संकलित रचनाएँ, मार्क्स-एंगेल्स, खंड 2, भाग 2, पृ0 205)। उसकी आर्थिक विशृंखलता क्रांति की भूमि तैयार कर रही थी। लेकिन रूस की क्रांति के बारे में एंगेल्स का जो पुर्वानुमान था, उसकी तुलना फ्रांसिसी क्रांति से की जा सकती है (मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के मूल तत्व, प्रधान संपादक ग0 न. वांल्कोव, पृ0 100)। द्रष्टव्य है कि 1889 में हुई फ्रांसिसी क्रांति सामंतवाद के विरुद्ध पूँजीवाद की लड़ाई थी, न कि उस क्रांति के द्वारा वहाँ समाजवाद लाया गया था।

रूस में जनता के असंतोष को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन वह असंतोष पतनशील सामंतवाद के प्रति था, जो नवीन आर्थिक संबंधों के बोझ को न सँभाल सकने पर भी अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहता था। इसलिए रूस में क्रांति तो अवश्यंभावी थी। परन्तु जिस क्रांति के द्वारा पूँजीवाद को स्थापित होना था, उस क्रांति के द्वारा, अव्यवस्था का लाभ उठाकर, मार्क्स के समाजवाद से प्रभावित नायकों ने समाजवाद की स्थापना कर डाली। फलतः सोवियत संघ का समाज पूँजीवाद की एक अनिवार्य मंजिल को तय ही नहीं कर पाया। रूस के साथ ही अन्य देशों में भी, जहाँ समाजवाद को जबरन लाया गया है, यही बात हुई। इन सारे देशों में उत्पादनशीलता का वह विकास नहीं हो पाया था, जिसके समान वितरण से संपूर्ण समाज सुखी होता है। इन सारे देशों में समानता के छलनामय नारों के द्वारा जिस समानता की घोषणा की गई, उसमें जनता के सम्मुख दिन-दिन बढ़ता भ्रष्टाचार, दारिद्र्य औा शासन की निरंकुशता के सिवा और कुछ हाथ नहीं आया। इस तरह रूस और उसकी तरह के अन्य देशों में जन्मा हुआ समाजवाद असमय प्रसव की विकलांग संतान साबित हुआ, कालांतर में जिसकी असामयिक मृत्यु भी हो गई।

जब पूँजीवादी उत्पादन संबंधों की परिपक्वावस्था में उसकी आंतरिक असंगति से ही समाजवाद के अवतरण की परिस्थितियाँ स्वतः प्रकट होंगी, तो प्रश्न खड़ा होता है कि क्या तब तक प्रगतिशील ताकतों को गाल पर हाथ रखकर प्रतीक्षा करते रहनी चाहिए? नहीं। जब तक परिवर्तन की परिस्थितियाँ परिपक्व नहीं हो जाती हैं, तब तक प्रगतिशील बुद्धिजीवी ताकतों का यह कर्तव्य है कि वह परिवर्तन की परिस्थितियों में तीव्रता लाने का काम करे। वह सर्वहारा वर्ग को संगठित कर वर्ग चेतना से लैस करने का काम करते हुए वह हारावल दस्ता तैयार करे, जो उचित समय पर ठोकर मारकर जंग लगी पूँजीवादी संरचना को ध्वस्त कर दे और विभेदविहीन ऐसी उन्नत समाजवादी व्यवस्था को स्थापित कर सके, जो दीर्घ काल तक अवाम को सुकून, सुरक्षा और सुख प्रदान कर सके।

समाजवाद के सौ वर्षों के इतिहास का अवलोकन हमें यही सिखाता है।

Dr. Anil Kumar Roy
Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

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