यह आलेख केदार दास श्रम एवं समाज अध्ययन संस्थान के द्वारा ‘केंद्रीय बजट 2024’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में दिये गये वक्तव्य का लेखान्तरण है। इसमें शिक्षा के बजट की प्रवृत्ति और दिशा का विश्लेषण किया गया है। सुधी पाठकों से अनुरोध है कि अंत में अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें।
बजट के बारे में दो बातें हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए। पहला, कि यह हमेशा राष्ट्रीय-सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। अगर व्यावहारिक रूप से राष्ट्रीय-सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप बजट नहीं बनाया जा रहा हो तो भी, आदर्शात्मक रूप से, इस मान्यता को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है कि ऐसा होना चाहिए। दूसरा, बजट में सरकार की प्राथमिकता प्रतिबिंबित होती है। यह ज़रूरी नहीं है कि बजट की प्राथमिकताएँ राष्ट्रीय-सामाजिक आवश्यकताओं या जनाकांक्षाओं के अनुरूप ही हों। वे अलग भी हो सकती हैं। यह प्राथमिकता बजट बनाने वाला सत्तारूढ़ दल तय करता है। इस तरह आदर्श और व्यवहार के समन्वय या संघर्ष से बजट का आबंटन तय होता है।
बजट की प्रवृत्ति :
बजट की अपनी प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति भी प्राथमिकता की देन है। इसे भी जानना-समझना ज़रूरी है। कुछ ऐसे मंत्रालय हैं, जिनका बजट हमेशा अधिक रहता है। रक्षा, रेल तथा रोड ट्रांसपोर्ट और हाईवे ऐसे विभाग हैं, जिन पर हमेशा कुल बजट के 60% से अधिक खर्च किया जाता है। इस बार भी इन तीन विभागों पर कुल बजट का 63% खर्च किया गया है। इन तीनों में डिफेंस ऐसा मंत्रालय है, जिसमें अधिकतम निवेश करके राजसत्ता आंतरिक एवं बाह्य शत्रुओं से अपने को संरक्षित करती है। रेल और रोड पूँजीवाद और औद्योगिक गतिशीलता के चक्के होते हैं, जो कच्चे और तैयार मालों की ढुलाई को सुगम बनाते हैं। प्रत्यक्ष रूप में इन तीनों में से कोई मंत्रालय आम जीवन के बुनियादी मसलों, यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, पोषण, आवास, सामाजिक न्याय, पर्यावरण, मानव गरिमा आदि को संबोधित नहीं करता है। लेकिन इन तीनों मंत्रालयों में ही सर्वाधिक निवेश इस प्रवृत्ति का द्योतक है कि सरकार की सर्वोपरि प्राथमिकता राजसत्ता का संरक्षण और पूँजीवादी विकास है।
इसी के समानांतर सामाजिक क्षेत्र के मंत्रालयों में किए जाने वाले व्यय को देखें। सामाजिक क्षेत्र के मंत्रालयों में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, श्रम एवं नियोजन, शिक्षा, अल्पसंख्यक, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण, महिला एवं बाल विकास, कृषि एवं कृषक कल्याण आदि 16 मंत्रालयों का बजट उपर्युक्त तीन मंत्रालयों के बजट का लगभग एक तिहाई होता है। सीबीजीए के विश्लेषण के अनुसार सामाजिक क्षेत्र के इन 16 मंत्रालयों के बजट आबंटन में लगातार कमी आती जा रही है। वर्ष 2019-20 के वास्तविक बजट में इन 16 विभागों के बजट की हिस्सेदारी जहाँ 23.5% थी, वहीं 2024-25 के इस वर्तमान बजट में यह हिस्सेदारी घटकर 21.3% रह गई है। बीच के वर्षों में भी, कोरोना-काल को छोड़कर, यह लगातार कम रही है और वर्ष 2022-23 के बाद यह लगातार 22% से नीचे रही है।
उपर्युक्त तीन मंत्रालयों और सामाजिक क्षेत्र के 16 मंत्रालयों के बीच वित्तपोषण की गहरी असमानता को समझते हुए ही शिक्षा के बजट पर विचार करना चाहिए।
शिक्षा बजट को किन आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में देखा जाना चाहिए?
बजट की पृष्ठभूमि में शिक्षा अधिकार और राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की आवश्यकताओं को रखकर देखना चाहिए। शिक्षा अधिकार की दृष्टि से लगातार घटता हुआ नामांकन, बढ़ता हुआ छीजन, छात्र-शिक्षक अनुपात, दिव्यांगों, छात्राओं और वंचित समूह के बच्चों की पहुँच और ठहराव, डिजिटल पहुँच, बच्चों के सीखने का स्तर आदि अनेक मामले अभी चिंताजनक स्थिति में हैं। अभी तक हम विद्यालय कहलाने लायक़ संरचना तक नहीं खड़ी कर पाये हैं। राष्ट्रीय स्तर पर, कुछ दिन पहले तक, 25.5% संरचनात्मक विकास ही हमारे विद्यालयों में हो सका था। न्यायसंगत और समावेशी विकास के लिए, नागरिक गरिमा और सामाजिक शांति के लिए, आर्थिक उन्नति और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिए शिक्षा की इन आवश्यकताओं की पूर्ति की ज़रूरत थी। यदि समय रहते अतिरिक्त उपाय नहीं किए गए तो, SDG, 2023 के अनुसार 2030 तक हमारे 84 मिलियन बच्चे और युवा स्कूल-कॉलेज से बाहर हो जाएँगे और 300 मिलियन अक्षर-ज्ञान और अंक-कौशल से वंचित हो जाएँगे।
शिक्षा के बजट को इन आवश्यकताओं की पृष्ठभूमि में रखकर देखे जाने की ज़रूरत है।
बजट की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को भी रखकर देखे जाने की ज़रूरत है। शिक्षा नीति लागू होने के बाद यह चौथा बजट है। इस नीति की अनुशंसाओं में, शिक्षा के नये तरीक़े से कायाकल्प के लिए अधिक धन-निवेश की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है और बहुत पुरानी माँग पर फिर से मुहर लगाते हुए शिक्षा में जीडीपी के 6 प्रतिशत निवेश की अनुशंसा को दुहराया गया है। यह नीति, वर्तमान सरकार का ही, अति महत्वाकांक्षी और बहुप्रचारित दस्तावेज है, जिसके बारे में बार-बार कहा गया कि इस नीति के द्वारा शिक्षा का संपूर्ण कायाकल्प हो जायेगा और भारत ‘विश्वगुरु’ हो जाएगा।
इसलिए इस नीति की अनुशंसाओं को लागू करने की दृष्टि से यह बजट कितना सहायक है, यह देखना भी महत्वपूर्ण है।
शिक्षा का बजट :
शिक्षा के बजट को पहले सरकार की प्राथमिकता की दृष्टि से देखते हैं। वित्तमंत्री ने बजट पेश करते हुए इस बजट की 9 प्राथमिकताएँ बतायीं। वे प्राथमिकताएँ हैं – कृषि, सामाजिक न्याय, विनिर्माण, नगर विकास, ऊर्जा सुरक्षा, नवोन्मेष, शोध और अगली पीढ़ी का सुधार। इन प्राथमिकताओं में शिक्षा सीधे तौर पर कहीं नहीं है। इसका मतलब है कि इस बजट में सरकार शिक्षा की आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए तत्पर नहीं है। दूसरी तरफ़ यदि पदानुक्रम की दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं तो शिक्षा मंत्रालय का बजट 16वें स्थान पर आता है। जो चीजें ज़्यादा महत्वपूर्ण होती हैं, उन्हें प्राथमिकता के तौर पर पहले कहा जाता या रखा जाता है, कम ज़रूरी या ग़ैर ज़रूरी बातों को बाद में या अंत में कहा या रखा जाता है। इस पदानुक्रम की दृष्टि से भी कम ज़रूरी श्रेणी में शिक्षा को पाते हैं।
वर्ष 2024-25 के बजट में शिक्षा के लिए कुल 1,20,628 करोड़ रुपये का एस्टिमेट तैयार किया गया है। लेकिन पिछले वर्ष 2023-24 (RE) में शिक्षा का कुल बजट 1,29,718 करोड़ रुपये का था। इस तरह इस वर्ष शिक्षा के बजट में लगभग 9 हज़ार करोड़ की कटौती की गई है। यह कटौती ऐसे समय में की गई है, जब शैक्षिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, तमाम चेतावनियाँ भयावहता की ओर इशारा कर रही हैं, शिक्षा अधिकार की प्रतिपूर्ति तथा शिक्षा नीति की अनुशंसाओं पर खड़ा उतरने के लिए भी शिक्षा में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता थी।
इस 1,20,628 करोड़ रुपये में से स्कूली शिक्षा के लिए 73,008.10 करोड़ रुपये दिये गये, जिसके लिये पिछले वर्ष 2023-24 (RE) में 72,473.80 करोड़ रुपये आबंटित किए गए थे। अर्थात् स्कूली शिक्षा के लिए बजट में बहुत ही मामूली वृद्धि की गई। लेकिन वहीं उच्च शिक्षा के लिए 47,619.77 करोड़ ही आबंटित किए गए, जिसके लिये पिछले वर्ष 2023-24 में 57,244.48 करोड़ रुपये आबंटित किए गए थे। अर्थात् पिछले वर्ष की अपेक्षा लगभग 10 हज़ार करोड़ कम।
इस तरह राशि के आबंटन की दृष्टि से शिक्षा का बजट अत्यंत निराश करने वाला है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस गाजे-बाजे के साथ शिक्षा नीति का रंगीन सामियाना टांगकर वातावरण-निर्माण की कोशिश की जा रही थी, उसके बाँस-बल्ले अब उखड़ने शुरू हो गए हैं।
शिक्षा बजट की प्रवृत्ति :
वर्ष 2009-10 से लेकर वर्ष 2024-25 तक के शिक्षा बजट पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो अब तक तीन बार – वर्ष 2015-16, वर्ष 2021-22 और वर्ष 2024-25 में – पिछले वर्ष की अपेक्षा बजट में कटौती होते हुए देखते हैं। ध्यातव्य है कि ये तीनों साल, जब शिक्षा के बजट में कटौती की गई है, वर्तमान सत्तारूढ़ दल ही शासन में रहा है। यह एक अजीब विरोधाभास है कि इसी सत्तारूढ़ दल के द्वारा एक और ‘विश्वगुरु’ होने के सपने भी बाँटे गए और दूसरी ओर उन सपनों के पूरा होने की लागतों में कटौती भी की गई।
यह भी ध्यातव्य है कि कुल बजट के बढ़ते हुए आकार के साथ शिक्षा के बजट का आकार भी बढ़ा तो है, मगर कुल बजट में उसकी हिस्सेदारी लगातार घटती गई है। सीबीजीए के विश्लेषण के अनुसार वर्ष 2009-19 में कुल बजट में शिक्षा बजट की हिस्सेदारी 4.36% थी, जो वर्ष 2011-12 में बढ़कर 5.04% हो गई। इस दौरान यह शीर्ष था। फिर भी वर्ष 2014-15 तक 4.61% की हिस्सेदारी लेकर यह 4% से ऊपर ही था। वर्ष 2009-10 से लेकर वर्ष 2024-25 की कालावधि में पहली बार कुल बजट में शिक्षा के बजट का हिस्सा 2015-16 में 3.89% पर आकर 4% से नीचे लुढ़क गया और लगातार लुढ़कते हुए वर्ष 2021-22 में यह 2.68% पर पहुँचकर 3% से भी नीचे चला गया। इस वर्ष 2024-25 में तो कुल बजट में शिक्षा महज़ 2.50% राशि ही हासिल कर पायी है।
शिक्षा में जीडीपी के 6 प्रतिशत का निवेश बहुत पुरानी माँग है। कोठारी कमीशन ने ही इसकी अनुशंसा की थी, जिसे शिक्षा नीति, 2020 में भी दुहराया गया है। सीबीजीए ने शिक्षा नीति 2020 के बाद जीडीपी में शिक्षा बजट के प्रतिशत का विश्लेषण किया है। वर्ष 2019-20 में शिक्षा का बजट जीडीपी का 0.45% था। यह सूचना ही बेहद हताश करने वाली है। लेकिन इससे भी अधिक हताशा तब होती है, जब क्रमागत रूप से कम होते हुए इस वर्ष 2024-25 में शिक्षा का बजट जीडीपी के 0.37% पर आ जाता है। यह परिस्थिति एक ऐसी चिड़िया का आभास देती है, जिसके जीवन-रस को निकालकर उसके डैनों में खूबसूरत शब्दों के कुछ रंगीन पंख खोंस दिये गये हों।
शिक्षा के बजट का स्रोत :
यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि शिक्षा में खर्च के लिए पैसे की व्यवस्था नियमित कर से नहीं की जाती है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता पर होने वाले खर्च के 75% की प्रतिपूर्ति उपकर से होती है। इसमें से 59% प्राथमिक शिक्षा उपकर से और 16% माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा उपकर से जुटाये जाते हैं। उच्च शिक्षा के लिए भी 33% राशि की प्रतिपूर्ति उच्च शिक्षा उपकर से होती है।
ज्ञात हो कि उपकर विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये केंद्र सरकार के द्वारा लगाया जाने वाला एक अतिरिक्त और अस्थायी शुल्क है, जिसे उद्देश्य पूरा होने के बाद बंद बंद कर दिया जाएगा। इसी शिक्षा उपकर से समग्र शिक्षा अभियान, प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण योजना, स्कूल-कॉलेज खोलना, शिक्षा-ऋण, वेतन तथा अन्य अनेक योजनाओं का वित्तपोषण होता है।
शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभाग का वित्तपोषण एक तदर्थ एवं अस्थायी स्रोत से होनेवाली आय के हवाले है। शिक्षा के वित्तपोषण की यह रचना शिक्षा के प्रति राजकीय गंभीरता पर प्रश्न खड़े करती है। यदि कार्य-कारण संबंध का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाये तो शिक्षा के ख़स्ताहाल होने में इस तदर्थ मनोवृत्ति का परिणाम परिलक्षित होगा।
शिक्षा के बजट की दिशा :
भारतीय समाज की रचना सामाजिक विशिष्टीकरण के सिद्धांत पर हुई है। इस रचनात्मक विशिष्टीकरण के कारण एक ही स्थान पर निवास करने वाला एक पूज्य हो जाता है, दूसरा अछूत। यह विशिष्टीकरण केवल जातीय व्यवस्था में ही नहीं, बल्कि सामाजिक, लैंगिक, आर्थिक, यहाँ तक कि क्षेत्रीय स्तर पर भी प्रकट होकर विभेदकारी असमानता को सृजित करता है। भारतीय व्यवस्था में असमानता के कुछ ऐसे कुत्सित रूप आज भी जीवित हैं, जो दुनिया में अन्यत्र नहीं हैं। शिक्षा में समानता के सिद्धांत पर चलकर इन कुत्सित काँटों को कम किया जा सकता था।
परंतु, अर्थव्यवस्था की तरह ही, शिक्षा भी विशिष्टीकरण या असमानता के पोषण की ओर उन्मुख रही है। इसी उन्मुखता के कारण केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, पीएमश्री विद्यालय, जो विशिष्ट और मॉडल स्कूल हैं, के बजट की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। सीबीजीए के विश्लेषण के अनुसार वर्ष 2019-20 में शिक्षा बजट में इन विशिष्ट विद्यालयों की हिस्सेदारी 19% थी, वह वर्ष 2024-25 में बढ़कर 29% हो गई है। लेकिन इसी कालखंड में समग्र शिक्षा के बजट की हिस्सेदारी 62% से घटाकर 51% हो गई। इसी तरह World Class Institution के लिए 700% की वृद्धि की गई है (वर्ष 2016-17में इसके लिए 1 करोड़ रुपये, वर्ष 2017-18 में 50 करोड़ रुपये और वर्ष 2024-25 में 10,324 करोड़ रुपये)। जबकि यूजीसी के बजट में 44% की कमी कर दी गई है।
इससे शिक्षा के रास्ते असमानता का पोषण होता है।
निष्कर्ष
इस तरह यह बजट न तो शिक्षा अधिकार की आवश्यकताओं को संबोधित कर पाता है और न ही शिक्षा नीति की महत्वाकांक्षाओं को उड़ान दे सकने में समर्थ हो पाता है।
उपर्युक्त विवेचन से दो निष्कर्ष निकालते हैं। पहला यह कि सरकार सार्वजनिक शिक्षा के वित्तपोषण से लगातार अपने हाथ खींचती जा रही है। दूसरा यह कि वित्तपोषण की दिशा मॉडल स्कूल-कॉलेज के वित्तपोषण की दिशा में शिफ्ट हो गई है। ऐसे में आमजन के साथ खड़े तमाम शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिकों का कर्तव्य है कि समतापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा के सशक्तिकरण के मसले को सामाजिक-राजनीतिक चिंता का विषय बनाने की दिशा में पहल करें।
स्रोत एवं आधार :
- Expenditure Budget, 2024-25
- Revisiting the Priorities: An Analysis of Union Budget 2024-25 by Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA)
- The Budget that Didn’t Deliver by Centre for Financial Accountability (CFA)