रात कभी ठेलों के नीचे
कभी दुकानों की आड़ में
कट जाती है आवारी जिंदगी
उम्र भर जुगाड़ में
बिहार में बालश्रम की वर्तमान परिस्थितियों पर चिंता करने के पूर्व बालश्रम की राजनीतिक आर्थिकी को समझ लेना जरूरी है, क्योंकि वही बालश्रम को बनाए रखने की संचालक शक्ति है। इसके साथ ही संवैधानिक संदर्भों और कानूनी कवायदों पर भी चलते-फिरते एक नजर डालते चलेंगे।
सबसे पहले श्रम के स्वरूप और श्रम-मूल्य के निर्धारण की सैद्धांतिकी को समझते हैं। श्रम के स्वरूप और मजदूरी का निर्धारण पूँजी की प्रकृति के द्वारा होता है। औद्योगिक और व्यापारिक पूँजी की प्रकृति मुनाफा पर आधारित है। मुनाफा कमाने के तीन उपाय हैं – लागत कम हो, कीमत ज्यादा हो और बिक्री अधिक हो। बिक्री का अधिक होना व्यावसायिक कौशलों पर निर्भर करता है और ग्राहकों की एक निश्चित संख्या और जरूरत की एक सीमा होने के कारण बाजार का विस्तार एक हद से ज्यादा नहीं हो पाता है। कीमत भी बाजार की प्रतिस्पर्धा नियंत्रित करती है। इसलिए उसे भी अनियंत्रित रूप से नहीं बढ़ाया जा सकता है। अब बच गयी लागत। लागत को ही कम करके अधिकतम मुनाफा कमाया जा सकता है। लागत कम करने का जो सबसे प्रिय उपाय अपनाया जा रहा है, वह है श्रम का मशीनीकरण। मशीनों में एकबारगी निवेश करके आवर्ती व्यय से छुटकारा मिल जाता है। फिर भी मानव-श्रम की आवश्यकता बनी रहती है। इस मानव-श्रम की लागत को कम करने के लिए या तो श्रम के घंटे को बढ़ाया जाता है या श्रम-मूल्य को कम किया जाता है। इसीलिए, पूँजी के हितों को ध्यान में रखते हुए, आठ घंटे काम के जिस अधिकार को खून की होली खेलकर प्राप्त किया गया था, उसे फिर से बारह घंटे कर दिया गया है। इसके दूसरे बिन्दु, श्रम-मूल्य को कम करके लाभांश को बढ़ाने का उद्देश्य ही बच्चों को मजदूरी के लिए खींचता है। इसीलिए ऐसे कार्य, जिनमें उच्च दक्षता वाले कौशलों की जरूरत नहीं होती है, जैसे घरेलू काम, होटलों में बर्तन माँजने का काम, ईंट भट्ठे पर काम, सफाई और कचड़ा बीनने का काम, अभ्रक बीनने का काम, कालीन बुनने का काम, बीड़ी बनाने का काम आदि में बच्चे बड़ी संख्या में काम करते हुए देखे जाते हैं। इसका कारण यही है कि बच्चे सस्ता मजदूर होते हैं। उन्हें मामूली या न के बराबर मजदूरी देनी पड़ती है और कभी-कभी तो वे केवल पेट पर काम करते हैं। उनसे अधिक देर तक काम लिया जा सकता है। उनके बदले यदि वयस्क काम करते हैं तो उन्हें अधिक पगार या मजदूरी देनी पड़ती है। वे आठ घंटे से अधिक काम का ओवर टाइम और अन्य सुविधाएँ माँगेंगे और माँगें पूरी न होने पर नियामक संस्थाओं में शिकायत करके नियोक्ता को परेशान करेंगे। बाल मजदूर इस तरह की कोई परेशानी नहीं खडा करता है और उसे न्यूनतम भुगतान करना पड़ता है। इस तरह अधिकतम मुनाफे की मंशा से चलाये जा रहे उद्योग और धंधे तथा घरेलू कामगारों के रूप में बाल मजदूर को तरजीह देना नियोक्ता के लिए सब तरह से फायदेमंद होता है। इसीलिए औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व ‘बाल श्रम’ की अवधारणा भी नहीं मिलती है। औद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त निजी मुनाफे पर आधारित उद्योगों की आवश्यकता ने बाल श्रम को पैदा किया है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि उत्पादन में लागत कम हो और कीमत वही रहे तो लाभांश बढ़ जाता है। कृषि, घरेलू कामों और उद्योग-धंधों में कम लागत तथा अधिकतम लाभ की यही आर्थिकी बच्चों को मजदूर बनाती है।
पूँजी का एक काम श्रमिकों को विवश और कमजोर बनाए रखना भी होता है। यह इसलिए ताकि आसानी से और कम लागत पर श्रम को खरीदा जा सके। वह उन्हें इतना श्रम-मूल्य नहीं प्रदान करता है, जिससे वे बचत कर सकें और भविष्य में आने वाली विपदा से निपट सकें। उस स्थिति में उन्हें कमजोर होकर अपेक्षाकृत कम मूल्य में भी अपने को श्रम-बाजार में बेचकर जीवन और परिवार की रक्षा करने के लिए विवश होना पड़ता है। कोरोना में मजदूरों की त्रासदी को इसके उदाहरण के तौर पर स्पष्टता से देखा जा सकता है। अधिकांश बाल मजदूर ऐसे ही बेरोजगार या कम आय वाले माता-पिता की सन्तानें हैं, जिन्हें साल में सौ दिनों का भी रोजगार नहीं मिलता है। इसलिए बच्चे को काम करना पड़ता है। अभिभावकों की यही आर्थिक विवशता बच्चों को बाल मजदूरी की ओर धकेलती है। इस तरह रोजगार तो मिल जाता है, मगर बच्चों को, उनके माता-पिता को नहीं।
अब, राजनीति इसमें किस तरह सहायक होती है, इसे समझने की कोशिश करते हैं। यह सर्वमान्य है कि लोकतन्त्र पूँजीवाद की राजनीतिक व्यवस्था है। जिन देशों में निजी पूँजीवाद है, जो कि दुनिया के लगभग तमाम देशों में है, वहाँ राजनीतिक सत्ता पूँजीपतियों के मैनेजर के रूप में कार्य करती है। असल में सत्ता पूँजीपतियों के हाथ में होती है, सरकार उसकी सहूलियत के लिए व्यवस्थापक की भूमिका में होती है। अपने ही देश की स्थितियों को देखकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। दुनिया के अन्य पूँजीवादी देशों के भी यही हालात हैं। तो, जो सरकार निजी पूँजी के संरक्षण और संवर्धन के लिए नियुक्त होती है, वह ऐसे काम सख्ती से कैसे कर सकती है, जो काम पूँजीपतियों के लाभों के विरुद्ध हो। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के द्वारा 18 वर्ष की अवस्था पूरी होने तक बच्चा माने जाने के बावजूद यूरोपियन देशों में 13 वर्ष और अमेरिका में 12 वर्ष से कम अवस्था को ही बच्चा की श्रेणी में रखा गया है। भारत में भी, राजनीतिक रूप से तो 18 वर्ष की अवस्था पूरी होने के बाद ही वयस्क माना गया है, लेकिन काम करने और पढ़ने के मामले में उसे 14 वर्ष में ही वयस्क मान लिया जाता है।
राजनीतिक मंशा को इस तरह भी समझा जा सकता है कि 20 नवंबर, 1989 को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा के द्वारा जब जीवन, सुरक्षा, विकास और सहभागिता के चार मूल सिद्धांतों पर ऐतिहासिक “बाल अधिकार समझौता” को पारित किया गया तो अमेरिका जैसे देश ने उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और भारत ने 1992 में इस टिप्पणी के साथ हस्ताक्षर किया कि इसे एकाएक निर्मूल कर देना भारत की अर्थव्यवस्था के लिए घातक होगा। इसी से बालश्रम के प्रति राजनीतिक मंशा समझ में आ सकती है। इसीलिए 14 वर्ष की अवस्था तक बालश्रम को रोकने के प्रावधान के अनुपालन की उड़ती हुई धज्जियाँ सब लोग रोज देखते हैं।
इसी सैद्धांतिकी को पृष्ठभूमि में रखकर देश और दुनिया की तरह बिहार में भी बालश्रम को देखना चाहिए।
कोरोना के रूप में अचानक टपक पड़ी आपदा ने देश-दुनिया की तरह बिहार की व्यवस्था की भी चूलें हिला कर रख दी हैं। यद्यपि ठीक-ठीक गणना उपलब्ध नहीं है, क्योंकि मजदूरों के अंतर्प्रान्तीय आवागमन पर नजर रखने और उनकी सुरक्षा के लिए कोई विनियमन नहीं है। फिर भी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, पहली लहर के समय ही, लगभग 30 लाख प्रवासी मजदूर बेरोजगार होकर बिहार लौटे। जिन औद्योगिक या व्यापारिक समूहों में वे काम करते थे, उन्होंने आपदा के समय उनके हिफाजत की कोई फिक्र नहीं की। अखबारी खबरों के अनुसार इनमें से 80 प्रतिशत दुबारा प्रवास पर जाने के इच्छुक नहीं थे। पहले से ही गरीबी और बेरोजगारी से त्रस्त बिहार जैसे प्रांत में कोरोना के कारण और ज्यादा गरीबी और बेरोजगारी बढ़ गई है। असंगठित क्षेत्र के कारीगर, मजदूर, सड़कों और गुमटियों में रोजगार करने वाले उद्यमी, दुकानों पर काम करने वाले श्रमिक – सबके-सब हतप्रभ की भाँति भटक रहे हैं। कुछ नहीं सूझने पर सब बेरोजगार हुए लोग सब्जी बेचने के ही काम में लग गए हैं। पहली बंदी के समय ही सरकार जिस स्किल मैपिंग के द्वारा योग्यतानुसार रोजगार सृजन का आश्वासन दे रही थी, उसके बारे में दूसरी लहर समाप्त होने तक पता नहीं कि वह क्या, कितना और किस तरह हुआ। उससे कितने लोग लाभान्वित हुए और उन्हें कौन-सा रोजगार मिला, इसके बारे में कोई खबर चर्चित नहीं हुई। जबकि देश में पहले से ही 45 वर्षों में सबसे अधिक बेरोजगारी ने कमर तोड़ रखी थी, उस पर, खबरों के मुताबिक, इस कोरोना के कारण संगठित क्षेत्र के करीब एक करोड़ और लोग बेरोजगार हुए हैं और करीब साठ प्रतिशत लोगों का कहना है कि उनकी आय में कमी आई है। अर्थात आर्थिक उपार्जन के सारे नाले यहाँ पहले से ही बंद हैं और जो लोग पहले से हैं, वे ही बिलबिला रहे हैं। इस तंगी में 30-35 लाख लोग और जुड़ जाएँगे तो क्या होगा? सोचकर ही रहमदिल लोगों का कलेजा बैठ जाएगा।
यही वह परिस्थिति है, जिसके बारे में ऊपर इंगित किया गया था कि अधिकांश बाल श्रमिक बेरोजगार अभिभावक की संतानें होते हैं। पहले की पहलों से बालश्रमिकों के होने में जो थोड़ी कमी आई होगी, जिस कमी का कोई प्रामाणिक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, अब इस नई आर्थिक परिस्थितियों के कारण, पहले के सारे प्रयासों पर पानी फेरते हुए, बाढ़ के पानी की तरह, बालश्रम में बेतहाशा वृद्धि होगी। दाने-दाने को मुँहताज अभिभावकों की जैविक विवशता होगी कि वे अपनी मासूम संतानों को किसी के यहाँ काम पर रख दें ताकि, कम-से-कम उस बच्चे का पेट चल जाये और यदि कुछ कमा सके तो घर में भी कुछ लाये। इस तरह लाखों बच्चे असमय मजदूरी की कालकोठरी में ढकेल दिये जाएँगे। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव एंटोनिओ गुटेरेस भी स्वीकारते हैं _ “….. और पाँच वर्ष की आयु से कम करीब 14.4 करोड़ बच्चों का भी विकास नहीं हो रहा है। हमारी खाड़ी-व्यवस्था ढह रही है और कोविद 19 ने हालत को बुरा बनाया है।“ बिहार जैसा गरीब और पिछड़ा प्रांत इस भयावहता से और अधिक पीड़ित होगा। और, यही परिस्थिति होगी बच्चों के श्रमिक बनने की।
उन लाखों बाल श्रमिकों को बचाने के जो उपाय होने चाहिए थे, उसके लिए हमारी व्यवस्था न तो पहले से तैयार है और न ही प्रतिबद्ध। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि जो बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं, वे बाल मजदूर हैं। विद्यालय बालश्रम से बचाने की सबसे मजबूत दीवार हो सकते थे। परंतु विद्यालयों के पास इन अतिरिक्त लाखों छात्रों को सँभाल सकने लायक न तो पर्याप्त शिक्षक हैं और न ही कक्षाएँ। एक गणना के अनुसार अभी बिहार में जहाँ 62000 और अधिक विद्यालयों के निर्माण की आवश्यकता थी, वहाँ 1773 विद्यालय पहले और इस कोरोना के समय 1057 विद्यालयों को बंद किया जा रहा है। तमाम भ्रष्टाचारों के बावजूद जिन आंगनबाड़ी केन्द्रों में बच्चों को पोषक आहार के साथ कुछ सीखने का भी अवसर था, उन्हें अब विद्यालयों में समाहित करके पहुँच से दूर किए जाने का आदेश निर्गत कर दिया गया है। विद्यालयों में शिक्षकों की भी भारी कमी है। विगत बिहार विधानसभा सत्र में सदन को सूचित करते हुए शिक्षामंत्री ने बताया कि विद्यालयों में शिक्षकों के 7,26,937 स्वीकृत पदों पर केवल 4,13,159 शिक्षक कार्यरत हैं। उसी सत्र में शिक्षामंत्री ने सदन को यह भी सूचित किया था कि कक्षा 8 से 9 में जाने में करीब 22 प्रतिशत छीजन हो जाता है। जब सामान्य दिनों में छीजन की दर इतनी ज्यादा है तो अनुमान लगाया जा सकता है कि कोरोना से उत्पन्न त्रासदी के कारण वह पचास प्रतिशत हो जा सकता है। दैनिक भास्कर में 24 मई, 2021 को छपी खबर के मुताबिक करीब 7 लाख बच्चों के स्कूल-वापसी की उम्मीद नहीं है। अर्थात ये अब ये छात्र के बदले बाल मजदूर में तब्दील हो जाएंगे। लेकिन इसकी रोकथाम के लिए न तो कोई प्रयास हो रहा है और न ही कोई चर्चा।
राज्य के पास बालश्रम को रोकने के प्रावधान भी कागज पर लिखे हुए हैं। 1950 में बड़े धूमधाम से लागू हुए संसार के सबसे विशाल संविधान में बालश्रम की मनाही, शिक्षा की अनिवार्यता और बाल-गरिमा के संरक्षण की जवाबदेही राज्य को प्रदान की गई है। संविधान की धारा 21 (क) 6 से 14 वर्ष तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करती है। धारा 24 14 वर्ष से कम आयु वालों को कारख़ाना, खदान और संकटमय कार्यों में लगाने से मना करती है। धारा 39 (ङ) और (च) बच्चों की सुकुमारता के दुरुपयोग और शोषण से रक्षा की सिफ़ारिश करती है और आर्थिक विवशताओं के कारण आयु के प्रतिकूल कार्यों में संलिप्तता की मनाही करती है। केंद्र ने 1986 में ही बालश्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम बनाया। बिहार में भी 2009 में बालश्रम उन्मूलन, विमुक्ति एवं पुनर्वास – राज्य कार्ययोजना का निर्माण किया गया। 2016 में बाल एवं किशोर श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम भी पारित हुआ। 2017 में भी बालश्रम उन्मूलन तथा किशोर श्रम निषेध एवं विनियमन हेतु राज्य कार्य योजना का निर्माण किया गया। इन प्रमुख अधिनियमों के बीच भी अनेक ऐसे नियम-कानून हैं, जो बालश्रम का निषेध करते हैं। लेकिन इतने ढेर सारे नियम-क़ानूनों के बावजूद इतनी बड़ी तादाद में बाल श्रमिकों का होना ही क़ानूनों के कार्यान्वयन के प्रति राज्य की संजीदगी की पोल खोलता है।
इस आलेख की शुरुआत में कविता की जिन चार पंक्तियों को रखा गया है, अभिनंदन गोपाल लिखित “जिंदगी के नन्हें शहजादे” शीर्षक वह कविता बिहार में बालश्रम उन्मूलन के स्टेट एक्शन प्लान के आमुख में दर्ज हैं। 2017 में ही तैयार उसी एक्शन प्लान में, विगत जनगणना के आँकड़ों के आधार पर, स्वीकारोक्ति है कि बिहार में 46 प्रतिशत बच्चे यानि लगभग आधे बच्चे, किसी-न-किसी रूप में बाल श्रमिक हैं। व्यवस्था की बलिवेदी पर असमय बलि चढ़ा दिये गए इन बच्चों की संख्या 10,88,509 है और यह संख्या देश के कुल बाल श्रमिकों का 10.7 प्रतिशत है। संसार के एक तिहाई बाल श्रमिक केवल भारत में हैं और उनमें 100 में 11 बाल श्रमिक केवल बिहार से आते हैं। यद्यपि यह गणना पुरानी है, लेकिन पूरे देश की तरह बिहार ने भी बच्चों के प्रति अपनी संवेदनशीलता कभी नहीं दिखाई, इसलिए कोई दूसरी प्रामाणिक गणना उपलब्ध नहीं है। 2009 में प्रदत्त निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार के दबाव और आकर्षण तथा 2009 में ही बालश्रम उन्मूलन, विमुक्ति एवं पुनर्वास – राज्य कार्य योजना के तहत गठित बाल श्रमिक धावा दल के धावों के कारण बाल श्रमिकों की संख्या में कुछ कमी आई होगी, ऐसा माना जा सकता है। कितनी कमी आई, इसके बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता। केवल इतना दिखाई पड़ा कि कुछ दिनों के बाद ही धावा दलों की तख्ती लगी गाडियाँ परिसर में खड़े-खड़े सड़ने लगीं। बच्चे अब भी ढाबा, घरों, दुकानों, सवारी गाड़ियों और कृषि कार्यों, सफाई कार्यों में लगे हुए सबको दिखाई पड़ते थे, सरकार को छोड़कर। अर्थात बाल श्रमिक तब भी बहुतायत रहे, केवल सरकार अन्यमनस्क हो गई।
बिहार के Draft state action plan for Elimination of Child Labour Prohibition and Regulation of Adolescent Labour के Chapter 4, Para 2 में भी शैक्षिक अवसरों के अभाव को ही बाल श्रमिक होने का प्रधान कारण बताया गया है – “A wide range of issues seems responsible for shaping ones perception towards education. Poor quality of teaching, indifference of teachers, difficulties in accessing entitlements, distance of school and inability to bear the additional cost of tuitions or stationeries were recounted as some of the factors that often make parents look at their decision of sending children to work as a judicious choice.” लेकिन इस स्वीकारोक्ति का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि इस चित्र को बदलने की कोई कोशिश नहीं हुई है।
कहने का मतलब यह कि निजी मुनाफे पर आधारित पूँजीवाद और राजनीतिक सत्ता का अपवित्र गठबंधन बाल श्रम को कायम रखता है। जब तक पूँजीवादी शक्तियों के मुक़ाबले सामाजिक शक्तियाँ अपनी अधिक मजबूती नहीं दिखाती है, तब तक तमाम क़ानूनों के बावजूद बालश्रम का धब्बा कायम रहेगा। बिहार जैसे पिछड़े प्रांत में तो फिर से लाखों बच्चों के नए बाल श्रमिक होने की संभावना की पृष्ठभूमि तैयार हो गई है।
सहायक स्रोत :
- Bihar State action plan 2017 for Elimination of Child Labour
- Child Labour is encouraged when parents are unemployed, The Indian Express, Chandigarh, 14 March, 2015
- Child Labour in India – An Overview, M. C. Naidu & K. Dashrath Ramaiah, Journal of Social Sciences (9 October, 2017)
- Child Labour in India, Wikipedia
- “Beyond Child Labour – Affirming Rights”, UNICEF, 2001
- Bihar short of 280,000 Teachers, indiaspend.com
- असंगठित क्षेत्र के कार्यरत बाल श्रमिकों के सामाजिक-आर्थिक अध्ययन, सुनीता एवं डॉ. बी एल सोलेकर, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर, anvpublication.org/journals
- दैनिक भास्कर, 11 अक्तूबर, 2014
- दैनिक भास्कर, 24 मई, 2021