वर्ष 2020 के अगस्त में, जब पूरी दुनिया के साथ भारत भी कोरोना से होने वाली मौतों से सहमा हुआ था और कोरोना की पाबंदियों में कसमसा रहा था, उसी समय, जब यह देश शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, सुरक्षा, मानवाधिकार के बचे-खुचे पैबंद को भी खोता जा रहा था, भारत की सरकार ने दो नए और एक पुराने कृषि क़ानून को संशोधित रूप में पेश कर पूरे देश में हड़कंप मचा दिया। जिस तरह मंगल पांडेय के व्यक्तिगत विद्रोह ने, देखते-ही-देखते, पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की ज्वाला भड़का दी, उसी प्रकार सितंबर में शुरू हुए पंजाब के किसानों के असंतोष की लहर नवंबर होते-होते पूरे देश में फैल गई और किसानों के विशाल जमघट ने तीनों क़ानून की वापसी की माँग करते हुए दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाल दिया। भारत के इतिहास ने किसानों का इतना विशाल विद्रोह इसके पहले कभी नहीं देखा था।
शुरुआत से लेकर आज तक सरकार और उसके नुमाइंदे इस विद्रोह को कभी किसानों की नासमझी, कभी विपक्षी दलों की चाल, कभी ख़ालिस्तानी, कभी कम्युनिस्ट, कभी विदेशी फ़ंडिंग, कभी चीन और पाकिस्तान का षड्यंत्र, कभी दलालों की कारस्तानी बता-बताकर इस विद्रोह के तेवर को कुंठित करने का प्रयास करे रहे हैं, परंतु अपनी माँगों की बलिवेदी पर दर्जनों शहादतों के बावजूद यह विद्रोह केवल ज़िंदा ही नहीं है, बल्कि सत्ता के सिंहासन को हिला भी रहा है।
आख़िर क्यों शांतिप्रिय समझे जाने वाले किसानों को यह क़ानून ठंड और कोरोना से होने वाली मौतों से भी ज़्यादा भयानक लगता है? यह जानने के लिए पहले इस क़ानून के प्रमुख प्रावधानों को देखते हैं –
पहला क़ानून है – किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) अधिनियम 2020। यह विधेयक किसानों को कृषि उपज विपणन समिति (APMC) के बाहर कहीं भी अपनी उपज की बिक्री की छूट और एलेक्ट्रोनिक व्यापार की शुरुआत की व्यवस्था करता है। इसके साथ ही यह अधिनियम यह भी प्रलोभन देता है कि अब किसान कहीं भी उस जगह पर अपना उत्पाद बेच सकता है, जहाँ उसे सर्वाधिक क़ीमत मिलती हो। इसे ही व्यापार संवर्धन और सरलीकरण कहा गया है। इस विधेयक में कोरपोरेट्स बिना किसी तरह के पंजीकरण के और क़ानूनी दायरे में आए बिना किसानों की उपज की ख़रीद-बिक्री की खुली छूट दिए जाने के साथ ही एग्रिकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमिटी (APMC) के स्वामित्व वाले अनाज की मंडियों को इसमें शामिल नहीं किया गया है। सरकार यह मुँह से भले ही कह रही हो कि क्रय-विक्रय की इस खुली छूट से कोरपोरेट्स के बीच अनाज ख़रीदने की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण किसानों को अधिक क़ीमत मिलेगी। परंतु किसान ही नहीं, दूसरे कृषि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि इस तरह सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी से अपने हाथ खींचकर कंपनियों के खूनी पंजों में किसानों की गर्दन दे देना चाहती है।
दूसरा क़ानून है – किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएँ अधिनियम। यह अधिनियम अनुबंध में तय की गई राशि पर कोंट्रेक्ट फ़ार्मिंग की इजाज़त देता है, जिससे कोई भी पूँजीपति या कंपनी किराए पर ज़मीन लेकर अधिकतम लाभ और निर्यातक मूल्य वाली फसलें उगाकर बेच सकेगा। किसान अपने पूरे दम से इस क़ानून का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि इस तरह विशालकाय कंपनियों के जाल में फँसकर धीरे-धीरे अपनी ज़मीन पर से उनका मालिकाना हक़ ख़त्म हो जाएगा, ज़मीन को लेकर उनकी पहचान मिट जाएगी और विवाद होने की स्थिति में छोटे किसान बड़ी कंपनियों से टक्कर लेने की हालत में नहीं रहेंगे।
तीसरा क़ानून है – आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम। खाद्यान्नों का भंडारण करके कृत्रिम अभाव उत्पन्न करने पर रोक लगाने वाले पहले से चले आ रहे क़ानून में संशोधन करके अब इस क़ानून के तहत अनाज,दाल, तिलहन, आलू, प्याज़ आदि खाद्य पदार्थों के असीमित भंडारण की छूट दे दी गई है। अब निजी निवेशकर्ताओं को सरकार को सूचित करने की ज़रूरत नहीं है कि वे कितना अनाज जमा किए हुए हैं और कहाँ जमा किए हुए हैं। केवल किसानों के ही नहीं, बल्कि तमाम बुद्धिजीवियों के माथे पर यह क़ानून शिकन ला देता है कि बड़े पूँजीपति उपज के समय फसल को औने-पौने दाम में ख़रीदकर जमा करेंगे, जैसा कि व्यापार का चरित्र होता है और कृत्रिम अभाव उत्पन्न करके फिर महँगे दामों पर उसे बेचेंगे और इस तरह देश में महंगाई के कारण भूखमरी की नई पटकथा लिखी जाने लगेगी।
इस तरह पहला क़ानून ऐसा है, जैसे निरीह मेमने को शेरों के बाड़े में छोड़कर यह तर्क दिया जाय कि शेरों की आपसी प्रतिद्वंद्विता के कारण मेमना सुरक्षित रहेगा। दूसरा क़ानून पूरी ज़मीन को ही शेर का बाड़ा बना देता है और तीसरा क़ानून तो मेमनों से घास चरने का हक़ ही छीन लेता है।
कोंट्रेक्ट फ़ार्मिंग, जमाख़ोरी की आज़ादी और मुक्त विपणन की नव उदारवादी कृषि परिस्थितियों से भारत का पाला पहली बार पड़ने जा रहा है। इसलिए इसके पास इसके दुष्परिणामों का उदाहरण नहीं है। परंतु जिन देशों ने खेती को कंपनियों के हवाले किया है, उनके उदाहरण से सीख लेनी चाहिए।
मध्य अमेरिका का छोटा-सा देश ग्वाटेमाला ऐसा ही है, जिसके बारे में जुलाई, 2020 में प्रकाशित औक्सफ़ेम की रिपोर्ट दिल दहला देने वाली है। ग्वाटेमाला में पारंपरिक रूप से मुख्यतः मक्का और फिर बीन और चावल की खेती होती थी, जिससे वहाँ के लोगों की भूख की आवश्यकता की पूर्ति होती थी। लेकिन 2004 के डोमिनिकल रिपब्लिक-सेंट्रल अमेरिका-यूनाइटेड स्टेट्स फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट (DR CAFTA) के बाद वहाँ अमेरिकन कृषि कंपनियों ने किसानों की ज़मीन हथियाकर औद्योगिक और व्यावसायिक खेती की शुरुआत की। इसके बाद ग्वाटेमाला में भूख और बदहाली की काली छाया लगातार सघन होती गई है। 1980 के दशक में जहाँ खाद्यान्न की खपत का 98% घरेलू रूप से उत्पादित किया गया था, उस उत्पादन में अब 76% तक की गिरावट आ गई है। इस दुरभिसंधि के उपरांत ग्वाटेमाला में अमेरिकी आयात 90% तक बढ़ गया और 2004 में जहाँ मक्के का 649 मिट्रिक टन ही आयात करने की ज़रूरत पड़ी थी, 2019 आते-आते उस मक्के के आयात की ज़रूरत 1600 मिट्रिक टन हो गई। अर्थात इन निर्यातक फसलों की खेती के कारण खाद्यान्न फसलों का स्वावलंबन तो ख़त्म हो ही गया ऊपर से विदेशी आयात पर निर्भरता और व्यय बढ़ने लगा।
खाद्यान्न की उपलब्धता दुष्कर होने से भरपेट भोजन और पर्याप्त पोषण की संभावना भी कम हो जाती है। ग्वाटेमाला में भी यही हुआ। एक तो खाद्यान्न की कमी, ऊपर से कोविद 19 की मार ने मिलकर ग्वाटेमाला में भूखमरी के नए इतिहास को जन्म दिया। पहले से ही खाद्य असुरक्षा से घिरे 2.3 मिलियन लोगों में अगले चार महीनों में 80 लाख लोगों के और जुड़ने की संभावना पैदा कर दी। और, इसी तरह, पिछले साल की अपेक्षा, बच्चों के कुपोषण में भी 56.6% तक की वृद्धि हुई है। अर्थात खाद्यान्नों की कमी ने न केवल खर्च को बढ़ाया है, बल्कि कुपोषण और भूखमरी की नई इबारत भी लिखी है।
अपने व्यावसायिक चरित्र के अनुरूप इन कंपनियों ने खाद्यान्न के उत्पादन का व्यवस्थित रूप से विनाश करते हुए निर्यातोन्मुख कृषि मॉडल की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने पाम ऑयल और गन्ने की खेती की। इसका यह परिणाम यह तो हुआ कि ग्वाटेमाला पाम ऑयल के निर्यात में दुनिया दूसरा सबसे बड़ा देश और चीनी के निर्यात में चौथा सबसे बड़ा देश बन गया, परंतु वहाँ का आम अवाम दाने-दाने को मुँहताज हो गया।
जैसा कि हमेशा प्रलोभन दिया जाता है कि औद्योगीकरण से रोज़गार की वृद्धि होगी, वैसा ही मुंगेरीलाल का सपना वहाँ भी दिखाया गया। लेकिन उद्योगों में अब मानव-श्रम की नहीं, मशीनों और कृत्रिम बुद्धि की बड़ी भूमिका हो गई है। इसलिए अब उद्योगों से बेरोज़गारी ही बढ़ती है। वहाँ भी ऐसा ही हुआ और बड़ी संख्या में लोग जीविका-विहीन और अल्प आय वाले होकर रह गए। खाद्यान्नों की उपज का अभाव, आय की कमी और अनाजों की बढ़ती क़ीमत ने मिलकर ग्वाटेमाला के जनजीवन को अभाव और भूख के सागर में डुबो दिया।
बात केवल बढ़ती विपन्नता तक ही नहीं रुकी रही। रिपोर्ट बताती है कि वहाँ के लोग कहते हैं कि अब अपनी ज़मीन पर जाने के लिए भी कंपनी से अनुमति लेनी होती है और आने-जाने का हिसाब देना पड़ता है। कंपनियों ने सड़क के दोनों ओर पाम के पेड़ लगा दिए हैं और उन रास्तों पर जनसामान्य के चलने पर पाबंदी लगा दी है। अर्थात किसानों की ज़मीन को कंपनियाँ निजी ज़मीन की तरह इस्तेमाल कर रही हैं, लोग अपनी ही ज़मीन पर बेगाने हो गए हैं और चलने-फिरने की आज़ादी के मानवाधिकार से वंचित हो रहे हैं।
ज़मीन पर कंपनियों के क़ब्ज़े ने पर्यावरण को भी अपूरणीय क्षति पहुँचाई है। पाम की खेती के लिए 5500m3/ton पानी की ज़रूरत होती है, जो मक्के की खेती से पाँच गुना अधिक है। इससे वहाँ की जल पारिस्थितिकी का बड़ी तेज़ी से विघटन हो रहा है। इसके अतिरिक्त कारख़ानों के उत्सर्जन से वहाँ का पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र भी प्रभावित हो रहा है।मई 2015 में पाम के तेल के सबसे बड़े उत्पादक कंपनी PEPSA के कारख़ाने से उर्वरक और तेल का अपशिष्ट बह गया और आसपास के क्षेत्रों में मैलाथियन को फैला दिया। इसके परिणामस्वरूप चार गंभीर प्रभाव पड़े। पहला यह कि रीओ ला पासियो नदी का 150 किलोमीटर क्षतिग्रस्त हो गया। दूसरा यह कि सैक्साचे नगरपालिका के 17 में से 13 समुदाय इससे प्रभावित हुए। तीसरा यह कि ज़हरीले फैलाव के कारण नदी की 23 प्रजातियों की मछलियाँ मर गईं। और चौथी यह कि है कि नदी की पारिस्थितिकी कभी ठीक नहीं हो सकने की संभावना।
ऐसा नहीं है कि वहाँ के लोगों ने इस बर्बादी को निरीहता से स्वीकार कर लिया है। लेकिन अदालती कार्रवाई में पीड़ित हार गए और सड़कों पर विरोध के बाद हिंसक कार्रवाई में मरने से बचे हुए लोग अदालती कार्रवाई के चक्कर में फँस गए।
आज ग्वाटेमाला सिसकियों में डूबा हुआ है। ग्वाटेमाला की सिसकियों से भारत को सीख लेनी चाहिए। ग्वाटेमाला में कंपनियों के हवाले किसानों की क़िस्मत को सौंप दिए जाने के बाद भूखमरी, बेरोज़गारी, मानवाधिकार के हनन और पर्यावरण की तबाही का जो दौर शुरू हो चुका है, तीनों कृषि क़ानूनों के लागू होने के बाद भारत में भी होगा। इसी संभावना से डरे हुए किसान विद्रोह पर उतारू हो गए हैं। इसलिए ये तीनों विध्वंसक कृषि क़ानून जल्द-से-जल्द वापस लिए जाने चाहिए।