भारत का संसद भवन, जिसे लोकसभा और राज्यसभा की बैठक के लिए बनाया गया है, देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का प्रतीक है। यह भवन न केवल राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन हाल के दिनों में, संसद भवन में टपकते पानी की समस्या ने इसकी भव्यता को धूमिल किया है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, जो न केवल भवन की संरचना को प्रभावित कर रहा है, बल्कि इस में काम कर रहे सांसदों और कर्मचारियों के लिए भी असुविधा का कारण बन रहा है। संसद भवन में टपकता पानी एक गंभीर समस्या है जो न केवल संरचनात्मक अखंडता के लिए खतरा है, बल्कि यह देश की शासन प्रणाली के लिए भी एक शर्मिंदगी है।
सरकारी निर्माण कार्यों में गुणवत्ता की उम्मीद करना भारतीयों ने अरसे से छोड़ दिया है। वे मानकर चलते हैं कि यदि किसी शासकीय स्कूल की इमारत हो या फिर अस्पताल भवन, सड़कें हों या पुल-पुलिया, वे लम्बे समय तक नहीं चलेंगी। फिर वह निर्माण चाहे केन्द्र सरकार की देखरेख में हुआ हो या फिर राज्य सरकार की। सरकारी भवनों को जर्जर होते देर नहीं लगती। कभी स्कूल में पढ़ाई करते बच्चों पर छत का प्लास्टर गिर जाता है तो कभी शाला भवन की दीवार ही ढह जाती है, कभी किसी सरकारी दफ़्तर की सीढ़ियां टूटने लगती हैं तो कभी उनकी दीवारों पर उद्घाटन के पहले ही दरारें पड़ने लगती हैं। पुल-पुलियों के खम्भे टूटने लगते हैं तो सड़कें, बनने के कुछ वक़्त बाद ही फटने लगती हैं।
हाल के दिनों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं। बिहार में तो पुलों ने गिरने का रिकॉर्ड बना दिया है। कुछ ही दिनों में दर्जन भर से अधिक पुल गिर गये। कई राजमार्गों पर तो उद्घाटन के केवल महीने-दो महीने में ही बड़ी दरारें पड़ गईं। सीवरेज अलग कहर ढाते हैं। जहाँ-जहाँ स्मार्ट सिटी परियोजना के अंतर्गत काम चल रहा है, वहाँ और भी बुरा हाल है। बारिश हर साल इस महत्वाकांक्षी व बहुप्रचारित योजना की पोल खोल देती है। सड़कों से लेकर मैदानों पर पानी ऐसा भरता है कि वाहन उनमें गिरते हैं, लोग हाथ-पांव तुड़वा रहे हैं या अपने प्राण गंवा रहे हैं। नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तक सारा कुछ ऐसा दोषपूर्ण होता है कि इन योजनाओं का फ़ायदा कम, नुक़सान ही अधिक होता है। जान-माल की हानि तो होती ही है, जीवन ही अव्यवस्थित हो जाता है। तिस पर अगर थोड़ी सी भी बरसात हो जाये तो जीवन को नर्क बनने में देर नहीं लगती।

अक्सर यह भी आरोप लगते हैं कि, जिसमें बड़े पैमाने पर सच्चाई भी है, भ्रष्टाचार का बड़ा योगदान गुणवत्ता को गिराने में होता है। यह किसी एक राज्य की बात नहीं है, बल्कि यह सार्वभौमिक सत्य है कि शासकीय कार्य का अर्थ ही है अधिकारियों और राजनीतिज्ञों की जेबों का भरना। निर्माण कार्यों की लागत का आकलन तो वास्तविकता के आधार पर होता है, उसी कीमत पर कामों का आवंटन भी होता है। परन्तु जब निर्माण शुरू होता है तो पता चलता है कि लाभ का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जायेगा। इससे ठेकेदार या निर्माण एजेंसियाँ गुणवत्ता में समझौते करती हैं। निर्माण हो जाता है, उसे विभाग को सौंप दिया जाता है, उद्घाटन हो जाते हैं, लेकिन उन निर्माणों की गुणवत्ता जल्दी ही दीवारों, छतों, फर्शों और अन्य जगहों पर से झांकती दिखलाई पड़ती है। इसी कार्य पद्धति के तहत बने पुल लोगों पर गिरते हैं और मासूमों की मौतें होती हैं।
देश में सैकड़ों हादसे ऐसे होते हैं जिनके लिये यही घटिया निर्माण जिम्मेदार होता है परन्तु उससे भी बुरी बात होती है इस पर होने वाली सियासत। यह नया भारत है, जहाँ पहले यह देखा जाता है कि जो भी हादसा हुआ है या निर्माण की खामियां उजागर होती है, तो वह किस राज्य का मामला है? और वहाँ किसकी सरकार है। पहले न कोई ऐसी वारदात का बचाव करता था और न ही भ्रष्टाचार की स्वीकार्यता थी। लेकिन अब एक ही तरह की अलग-अलग राज्यों में होने वाली घटनाएं तय करती हैं कि उनकी आलोचना की जाये या बचाव। भारतीय जनता पार्टी की यह देन कही जा सकती है, जिसके पास ऐसा प्रचार तंत्र है, जो यह याद दिलाता है कि यदि अभी पुल-पुलिया गिर रहे हैं, एयरपोर्ट में पानी भर रहा है, रेलवे स्टेशन की छतों से पानी चू रहा है तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा पहले भी हुआ था – कांग्रेस के समय। भाजपा की ट्रोल आर्मी को फ़र्क नहीं पड़ता कि जनता के पैसे से बने अयोध्या के राम मंदिर की छत से चू रहे पानी से गर्भगृह लबालब हो रहा है या महाकालेश्वर में लगाई गयीं मूर्तियाँ गिर रही हैं। करोड़ों की लागत से बने एक्सप्रेस-वे टूट जायें या पुल ढ़ह जायें- उनकी बला से।
अपने प्रचार तंत्र और समर्थकों पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार, खासकर नरेन्द्र मोदी को बहुत भरोसा है, फिर वे यह भी जानते हैं कि उन्हें इसे लेकर किसी को जवाब देना नहीं है। यही कारण है कि उनकी सीधी देखरेख में बने और उनका अपना ड्रीम प्रोजेक्ट कहे जाने वाले नये संसद भवन में पानी टपकने को लेकर सरकार का कोई बयान नहीं आया है। वैसे ही जिस प्रकार कुछ हवाई अड्डों में पानी भरने व एक्सप्रेस-वे टूटने पर कुछ नहीं कहा गया। इसके बावजूद देश के सबसे प्रतिष्ठित भवन की छत से अपने निर्माण के इतने कम समय में पानी टपकने की ज़िम्मेदारी से मोदीजी नहीं बच सकते। उन्होंने इसका निर्माण बहुत जल्दबाजी में कराया था। कोरोना काल में जब देश के लिये एक-एक रुपया महत्वपूर्ण था, इस पर करोड़ों रुपये लगाये गये (कितने, यह स्पष्ट नहीं)। मोदी इस काम का बार-बार निरीक्षण करते रहे। सेफ़्टी हैलमेट लगाकर ड्राइंग फैलाये अन्य इंजीनियरों को जिस प्रकार से उंगली दिखाकर निर्देश देते हुए मोदी की तस्वीरें देश-दुनिया में प्रकाशित व प्रसारित हुई थीं, वैसी ही गुरुवार को सुबह से उस नीली बाल्टी की फोटुएं वायरल हो रही हैं, जिसमें ‘सेंट्रल विस्टा’ कहे जाने वाले नवीन संसद भवन के भव्य गुंबद से टपकता पानी इकट्ठा हो रहा है। निर्माण में स्पेस टेक्नालॉजी का इस्तेमाल का दावा करने वाले मोदीजी को इस पर कुछ कहना चाहिये, क्योंकि पुराने संसद भवन के बरक्स उन्होंने इसे अधिक गौरवशाली माना है।
यह समस्या निरंतर वर्षा के कारण होती है, जिसके कारण भवन की छत से पानी टपकता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए, सरकार को तत्काल कदम उठाने चाहिए। संसद भवन की मरम्मत और संरक्षण के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाना चाहिए। इस समिति को भवन की स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिए और मरम्मत के लिए आवश्यक कदमों की सिफारिश करनी चाहिए। इसके अलावा, सरकार को भवन की देखभाल और रखरखाव के लिए एक नियमित योजना बनानी चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की समस्याएं न हों।इसके अलावा, संसद भवन में टपकता पानी एक गंभीर सुरक्षा जोखिम भी है। यदि भवन की छत से पानी टपकता है, तो यह आग लगने का कारण बन सकता है, जिससे जान और माल की हानि हो सकती है। इसलिए, सरकार को इस समस्या का तत्काल समाधान करना चाहिए और भवन की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए।
संसद भवन में टपकता पानी केवल एक भौतिक समस्या नहीं है; यह हमारे लोकतंत्र की स्थिरता और स्वास्थ्य का संकेत भी है। इस समस्या को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है ताकि हम अपने संसद भवन को उसकी वास्तविक गरिमा में बनाए रख सकें। यह न केवल वर्तमान सांसदों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत होना चाहिए। हमें मिलकर इस समस्या का समाधान निकालना होगा ताकि हम अपने लोकतंत्र को मजबूत और स्थायी बना सकें।