
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ऐसे समय पर हो रहे हैं जब युवाओं का पलायन राज्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। लाखों लोग रोज़गार और बेहतर अवसर की तलाश में बाहर जा चुके हैं, जिससे गांव और कस्बे खाली होते जा रहे हैं। यह चुनाव इस सवाल का सामना करेगा कि क्या राजनीति अब सच में रोजगार और विकास को केंद्र में रखेगी, या फिर बिहार एक बार फिर पीछे छूट जाएगा।

जिस राज्य में महज 22% लोग ही किसी तरह पाँचवीं कक्षा तक पहुँच सके हों, एक तिहाई लोगों ने कभी स्कूल-कॉलेज का मुँह नहीं देखा हो और 21% बच्चे दसवीं कक्षा की चौखट तक पहुँचने के पहले ही स्कूल से बाहर हो जाते हों, वह राज्य तो मध्यकाल के किसी पिछड़े हुए असभ्य समाज की तस्वीर पेश करता है। वहाँ के लिए स्वास्थ्य, रोजगार, समृद्धि आदि की बात ही बेमानी है। - इसी आलेख से

दक्षिण एशिया के कई देश राजनीतिक अस्थिरता और आंदोलनों के थपेड़ों को झेल रहे हैं। इसी की अगली कड़ी नेपाल का जेन-जी आंदोलन है। नेपाल का आंदोलन वहाँ के आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य का परिणाम है। सत्ताधारियों को इस आंदोलन से सीख लेकर राज्य की नीतियों को जनोन्मुखी बनाने की जरूरत है।

प्राकृतिक आपदाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। ये आपदाएँ प्रकृति-प्रदत्त नहीं, बल्कि मानवकृत हैं। इनसे निपटने के दीर्घकालिक उपायों के कार्यान्वयन में अब और देर नहीं की जा सकती है।

नवउदारवादी युग में हिन्दू धर्म विचारधारा के स्तर पर दो रूपों में दिखाई पड़ने लगा। एक सामाजिक न्याय के नाम पर हिन्दू धर्म पर लगातार आक्रमण करनेवाली शक्तियां थी। तो दूसरी ओर धर्म को केंद्र में लेकर राजनीति करने वाली शक्तियां थीं। इन दोनों शक्तियों की टकराहट का एक ही उद्देश्य था - धर्म का जितना हो सके, उसे राजनीतिक विचारधारा के रूप में सत्ता हासिल करने के लिए उपयोग में लाया जा सके।

यह आलेख प्रो० रवि कुमार के विचारों पर आधारित है। इस आलेख में बताया गया है कि भारत के उच्च शिक्षा संस्थान, जो ज्ञान, समानता और प्रगतिशील सोच के केंद्र माने जाते हैं, आज भी जाति-आधारित भेदभाव और बहिष्कार की गहरी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। वंचित समुदायों के हज़ारों छात्र सामाजिक पूर्वाग्रह, सूक्ष्म भेदभाव और संसाधनों की कमी के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। यह स्थिति केवल छात्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षकों और शोधकर्ताओं के अवसरों तथा प्रतिनिधित्व में भी गहरे असमानता के रूप में दिखाई देती है। विविधता की कमी से न केवल ज्ञान-उत्पादन का दायरा संकुचित होता है, बल्कि छात्रों के बौद्धिक, नेतृत्व और आलोचनात्मक सोच के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में, आरक्षण नीतियों का सख़्ती से पालन, समावेशी पाठ्यक्रम और संवेदनशीलता प्रशिक्षण जैसे ठोस कदम अनिवार्य हो जाते हैं, ताकि उच्च शिक्षा वास्तव में लोकतांत्रिक और समान अवसर प्रदान करने वाली बन सके।

यह लेख प्रोफेसर सल्वातोरे बाबोन्स के विचारों पर आधारित है, जिसमें वे बताते हैं कि भारत का लोकतंत्र पश्चिमी मॉडल से अलग और अद्वितीय है। वे मानते हैं कि सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, धार्मिक परंपराएँ और नागरिक भागीदारी इसकी मजबूती का आधार हैं, जिसे पश्चिमी विशेषज्ञ अक्सर गलत समझते हैं।

मई 2025 में भारत में नेट एफडीआई में 98% की गिरावट दर्ज की गई—मई 2024 के $2.2 बिलियन से घटकर यह केवल लगभग $35–40 मिलियन रह गया। यह गिरावट विदेशी निवेशकों के बड़े पैमाने पर पूँजी वापसी और बाहर निवेश में बढ़ोतरी के कारण हुई है। विशेषज्ञों का कहना है कि केवल जीडीपी वृद्धि दर पर ध्यान देना भ्रामक हो सकता है; निवेश प्रवाह के वास्तविक आंकड़े ही अर्थव्यवस्था की सच्ची तस्वीर दिखाते हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को लागू हुए पाँच साल पूरे हो गए हैं। इस दौरान सरकारी तंत्र, केंद्रीय मंत्रियों और ख़ुद प्रधानमंत्री के द्वारा इसका जितना प्रचार किया गया, उतना किसी अन्य योजना का नहीं। इस आलेख में शिक्षा नीति के कुछ प्रावधानों तथा उसके प्रभावों की संक्षिप्त चर्चा की गई है।

भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रति अध्यापक औसत अनुसंधान अनुदान 30 लाख रुपये से कम है, जबकि अमेरिका में प्रति प्रोफेसर यह राशि 2 करोड़ रुपये और चीन में 1 करोड़ रुपये से अधिक पहुँचती है। इसके अलावा, भारत में पेटेंट आवेदन दर प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 12-15 पेटेंट है, जबकि चीन में यह 250, अमेरिका में 140 और जापान में 160 से भी अधिक है।