Category जन पत्रकारिता

संसद भवन में टपकता पानी: एक गंभीर समस्या

भारत का नया संसद भवन नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के सर्वाधिक प्रचारित ही नहीं, बल्कि सर्वाधिक महत्वाकांक्षी निर्माण के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसके निर्माण के प्रारंभिक काल से ही इसकी आवश्यकता, वास्तु, व्यय, सेंगोल की स्थापना, भवन के शीर्ष पर आक्रामक व्याघ्र की स्थापना आदि पर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे हैं। लगातार प्रश्नों की जद में खड़े इस भवन के बनकर खड़े हुए एक साल बीतते-बीतते इसकी छत ही चूने लगी। देश के सर्वाधिक महत्वाकांक्षी और महत्वपूर्ण भवन का यह परिणाम अनेक प्रश्न खड़े करता है। लेखक ने इस आलेख में इन कई सारे प्रश्नों को छूने की कोशिश की है।

आपातकाल का पुनरावलोकन -1 : क्या संविधान की हत्या हुई थी?

12 जून, 2024 को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। ज्ञात हो कि 25 जून, 1975 को ही आपातकाल की घोषणा की गई थी। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक अर्थात् 21 महीने की इस कालावधि को ‘लोकतंत्र की हत्या’, भारतीय इतिहास का काला अध्याय’ आदि विशेषणों से अभिहित किया जाता रहा है। इस घटना के व्यतीत हुए 49 वर्ष बीत चुके हैं। उस आंदोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी के अनेक लोग अब नहीं हैं और जो बचे हैं, वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। आम जीवन की स्मृतियों में वह प्रसंग धुँधला हो गया है। फिर आज वह कौन-सी विशेष बात हो गई, जिसके कारण आधी शताब्दी पूर्व के प्रसंग को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत आ पड़ी?

जारी है स्त्री विमर्श की यात्रा

परिवार, शिक्षा प्रणाली, राज्य-कानून, धर्म, कलाएँ, मिडिया आदि ये सारी सामाजिक संस्थाएँ हमारे समाज में औरत बनाने का काम करती हैं- मादा को स्त्री बनाती हैं। सर्वजनीन है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है, मार-मार के बनाया जाता है उसको स्त्री। यही स्त्री की स्थिति तय करती है और नारी विमर्श में इसे अनदेखा कर दिया जाता है।

बालश्रम की राजनीतिक आर्थिकी और बिहार

African Boy Working on Desert
निजी मुनाफे पर आधारित पूँजीवाद और राजनीतिक सत्ता का अपवित्र गठबंधन बाल श्रम को कायम रखता है। जब तक पूँजीवादी शक्तियों के मुक़ाबले सामाजिक शक्तियाँ अपनी अधिक मजबूती नहीं दिखाती है, तब तक तमाम क़ानूनों के बावजूद बालश्रम का धब्बा कायम रहेगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 : परिचय एवं समीक्षा (स्कूल शिक्षा)

यह कैबिनेट द्वारा स्वीकृत है, संसद द्वारा नहीं। अर्थात एक पार्टी की शिक्षा नीति है।…यह शिक्षा नीति अनौपचारिकता, सांप्रदायिकता, केन्द्रीयता और निजीकरण की बढ़ोत्तरी के चार पायों पर खड़ी है। इन पायों को ही मजबूत करने का निहितार्थ इस शिक्षा नीति में छिपा हुआ है।

भारतीय किसान विद्रोह और ग्वाटेमाला की भूख

People with Flags at City Demonstration
दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर किसान केवल इसलिए नहीं आंदोलनरत हैं कि उनकी अस्मिता ख़तरे में है। अस्मिता तो ख़तरे में है ही। बल्कि वे इसलिए भी लड़ रहे हैं ताकि इस देश को भूख और तबाही से बचाया जा सके। इस तरह यह लड़ाई पूरे देश के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई है।

कोरोना 1 : जनता केवल एक वोटर है

a toy figure is posed in front of a red background
कोरोना आज विश्व की एकमात्र और सबसे बड़ी समस्या है। दुनिया में आज न तो सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव सनसनी पैदा करता है, न जीडीपी बढ़ाने की होड़ है, न घटते जलस्तर की चिंता है और न ही स्कूल बंद बच्चों की बदहाली की फ़िक्र है। मानव-सभ्यता के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि एक बीमारी की चपेट में एक ही साथ पूरी दुनिया आ गई हो। इसलिए दुनिया के तमाम देशों में जिस एक बात के भूत, वर्तमान और भविष्य की सर्वाधिक चर्चा और चिंता की जा रही है, वह कोरोना है।

शिक्षा नीति 2020 और सामाजिक विभेद

नीति राजसत्ता की वह परिकल्पना होती है, जो यह दिखाती है कि व्यवस्था को किन रास्तों से होकर कहाँ तक ले जाना है। इसकी भूमिका दिशा-निर्देशक की होती है। राज्य नीतियाँ बनाता है और फिर उन नीतियों को अमल में लाने के लिए क्रियान्वयन की योजना का निर्माण करता है। यद्यपि नीतियाँ न तो बाध्यकारी होती हैं और न ही उनका कोई कानूनी आधार होता है। फिर भी एक नैतिक दवाब बनाने में इसकी भूमिका होती है। अन्य नीतियों की तरह इस शिक्षा नीति का भी यही महत्व है यह शिक्षा का अवसर मुहैया कराने और उसका परिणाम प्राप्त करने के दृष्टिकोण को उजागर करती है।

चेतना-निर्माण की राजनीतिक आर्थिकी

मानव-सभ्यता का यह स्वभाव रहा है कि वह आगे की ओर गति करती रही है। लाखों वर्षों के जद्दोजहद के बाद लगभग 500 साल पहले मानव-जाति जब वैज्ञानिक क्रांति के नए युग में प्रविष्ट हुई तो चेतना के स्तर पर उसके अंधविश्वास, जड़ मान्यताएँ और बद्ध धारणाएँ धीरे-धीरे तिरोहित होती गईं। ऐसा लगने लगा कि मानव-चेतना की बंद पलकें धीरे-धीरे खुल रही हैं और दैवी, रहस्यमयी और अबूझ परतें उघररही हैं।अब देहात के मिडिल स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा भी, खेतों में काम करने वाला अनपढ़ किसान भी जान गया कि वर्षा इंद्र की कृपा से नहीं, बल्कि वाष्पीकरण और वायु-दबाव की प्राकृतिक प्रक्रियाओं से होती है; वह जान गया कि चंद्रमा कोई देवता नहीं है, बल्कि सौरमंडल का एक उपग्रह है। वह यह भी जान गया कि चेचक शीतला देवी के प्रकोप का परिणाम नहीं है, बल्कि एक वायरल इंफ़ेक्शन है। अब वह प्राकृतिक क्रियाओं और वस्तुओं को अंधविश्वास और आस्था की दृष्टि से नहीं, बल्कि वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टि से देखने लगा।

आतंकवाद की जंग हम हार रहे हैं

Woman in Black Dress Standing on Grass Field
अभी हाल ही में 14 फरवरी, 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में CRPF के जवानों पर विस्फोटक हमले में 40 से अधिक जवानों के मारे जाने के बाद एक बार फिर आतंकवाद के विरुद्ध हमारी जंग सवालों के घेरे में आ गई है. यह सवाल इसलिए भी ज्यादा गहरा हो गया है, क्योंकि वर्तमान सरकार पिछली सरकार की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाकर लोगों का यह विशवास जीतने में सफल हुई थी कि आतंकवाद के खिलाफ और देश की सुरक्षा के लिए वह चाक-चौबंद व्यवस्था करेगी.