जब किसी देश की मुद्रा गिरती है, तो केवल उसका मूल्य नहीं गिरता—उसकी नीतियों की कमज़ोरियाँ, उसकी संरचनाएँ और उसका राजनीतिक विमर्श भी उजागर होता है। 2025 में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा भारत से 16–18 अरब डॉलर की निकासी और रुपये का तीव्र अवमूल्यन इसी व्यापक सच्चाई का पुनर्पाठ है। इसे यदि केवल बाज़ार-चालित घटना माना जाए, तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक राजनीति से आँख चुराने जैसा होगा। संकट केवल आर्थिक नहीं, बल्कि वैचारिक रूप से भी निर्मित विनिमय दर केवल अंतरराष्ट्रीय कारकों का उत्पाद नहीं—यह घरेलू नीतियों और वैचारिक झुकावों का भी प्रतिबिंब है। भारतीय रुपये का अवमूल्यन अक्सर “डॉलर की मजबूती” या “वैश्विक वातावरण” से जोड़कर समझाया जाता है। 2025 में पूंजी-पलायन और रुपया अवमूल्यन इसलिए विशेष महत्व का है कि यह भारत की आर्थिक संरचना और राजनीतिक अर्थव्यवस्था—दोनों की गहराई तक प्रकाश पहुँचाता है।
वैश्विक वित्तीय व्यवस्था: केंद्र परिधि की स्थायी असमता
अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था का सबसे कठोर सत्य यह है कि उभरते बाजार हमेशा स्थिरता का उत्पादन करते हैं और विकसित देश उससे लाभ अर्जित करते हैं। केंद्र परिधि ढाँचा इसी असमता की व्याख्या करता है। पूंजी हमेशा वहाँ जाती है जहाँ ब्याज दरें अधिक हों – 2025 में यह अमेरिका था और पूंजी सबसे पहले वहाँ से निकलती है जहाँ संरचनात्मक जोखिम अधिक हो—यह भारत जैसे देशों पर लागू होता है। सडन स्टॉप सिद्धांत कहता है कि उभरती अर्थव्यवस्थाएँ पूंजी प्रवाह में अवरोध के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती हैं। 2025 की एफपीआई निकासी उसी सिद्धांत का पाठ्यपुस्तक-स्तरीय उदाहरण है।
भारत की संरचनात्मक नाजुकता: विकास मॉडल का अनकहा संकट
भारत की आर्थिक वृद्धि के आँकड़े चाहे जितने चमकदार दिखें, परंतु उसकी उत्पादन संरचना अत्यंत असंतुलित है।आयात-निर्भर विकास मॉडल- 85% कच्चा तेल आयात, तीव्र गति से बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक्स आयात, सेमीकंडक्टर, रक्षा, स्वास्थ्य-तकनीक जैसे क्षेत्रों में भारी निर्भरता । निर्यात की सीमित विविधता- शीर्ष दस निर्यातों पर अत्यधिक निर्भरता, उच्च मूल्य-वर्धित उत्पादों में भारत की नगण्य हिस्सेदारी। चालू खाता घाटा- 2025का अनुमानित सीएडी लगभग जीडीपी का 2%—यह संख्या छोटी लग सकती है, लेकिन इसकी पूर्ति मुख्यतः उन्हीं एफपीआई से होती है जो किसी भी संकट में सबसे पहले भागते हैं। इस मॉडल में आयात बड़ा, उत्पादन छोटा और आशा विदेशी पूंजी पर आधारित होती है—और यह समीकरण किसी भी वैश्विक झटके के सामने ढह जाता है।
मौद्रिक संप्रभुता का क्षरण: आरबीआई की सीमाएँ उजागर
ट्रिलेम्मा सिद्धांत बताता है कि कोई देश एक साथ तीन चीजें नहीं पा सकता:- पूंजी का मुक्त आवागमन, स्थिर विनिमय दर, स्वतंत्र मौद्रिक नीति। भारत ने 1991 के बाद पूंजी प्रवाह को सर्वोपरि रखते हुए दो महत्वपूर्ण स्वतंत्रताओं से समझौता किया। आरबीआई की हस्तक्षेप क्षमता सीमित, विनिमय दर स्थिर रखने का दबाव, बाहरी झटकों के समय नीति स्वतंत्रता का अभाव, विदेशी मुद्रा भंडार भले 600 अरब डॉलर हो, पर “हस्तक्षेप योग्य भंडार” शायद ही 250 अरब डॉलर से अधिक हो और पूंजी यदि लगातार बाहर जा रही हो, तो हर माह 20–25 अरब डॉलर के हस्तक्षेप भी समुद्र में बूंद जैसे सिद्ध होते हैं। यह केवल तकनीकी कमी नहीं—यह भारतीय राज्य की संस्थागत क्षमता का संकट है।
राजनीतिक विमर्श: समस्या का बाह्यीकरण और जिम्मेदारी से पलायन
संकट के समय सत्ता की भाषा निर्णायक होती है।
2025 में सरकार का पूरा संचार इसी रणनीति पर आधारित दिखा। डॉलर मजबूत है, इसलिए रुपया गिर रहा है। वैश्विक परिस्थितियाँ खराब हैं। विदेशी निवेशक जोखिम नहीं ले रहे। परंतु सत्ता-प्रेरित यह विमर्श एक बात लगातार छुपाता है- घरेलू संरचनात्मक कमजोरी, नीति-निर्धारण में असंतुलन और औद्योगिक रणनीति का अभाव। जीडीपी वृद्धि की चमकीली तस्वीरें पेश कर देना सरल है, परंतु रोजगारहीन वृद्धि, ग्रामीण आय स्थिर, विनिर्माण क्षेत्र का कमजोर आधार, इन प्रश्नों से विमर्श को दूर रखना राजनीतिक रणनीति है, नीति नहीं। यह वही है जिसे ग्राम्शी “हेगेमोनिक नेरेशन” कहते हैं—जहाँ सत्ता कठिन प्रश्नों को सांख्यिकीय चमक से ढक देती है।
लोकतांत्रिक जवाबदेही का क्षरण
एक सुदृढ़ लोकतंत्र में आर्थिक संकट का प्रबंधन केवल तकनीकी प्रक्रिया नहीं, बल्कि संवादात्मक प्रक्रिया होता है। परंतु 2025 में संसद में आर्थिक प्रश्नों पर चर्चा बाधित हुई, विपक्ष की आलोचना को “विकास-विरोधी” कहा गया, विशेषज्ञों की स्वतंत्र भूमिका सीमित हुई, नीति निर्माण बंद-दरवाज़ों के भीतर सिमट गया। यह स्थिति दिखाती है कि सत्ता संवाद से विमुख होकर घोषणाओं पर निर्भर होने लगी है और जब संवाद समाप्त होता है, तो जवाबदेही भी समाप्त होती है।
रुपए का संकट, विकास मॉडल की विफलता का संकेत
बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो रुपये का गिरना कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं; यह भारतीय विकास मॉडल के भीतर छिपे उस अंतर्विरोध का परिणाम है, जिसे तीन दशक से अनदेखा किया जा रहा है। यह संकट तीन स्तरों पर सक्रिय है (क) संरचनात्मक स्तर:- वैश्विक वित्तीय असमता उत्पादन और निर्यात की कमजोरी । (ख) संस्थागत स्तर:- आरबीआई की सीमित शक्ति, मौद्रिक नीति की संकुचित स्वायत्तता। (ग) राजनीतिक–वैचारिक स्तर:- विमर्श पर नियंत्रण, नीति संवाद का कमजोर होना।
पूंजी खाता प्रबंधन में सुधार, निर्यात-प्रधान औद्योगिक पुनर्गठन और लोकतांत्रिक नीति-सहमति का ढांचा इन तीनों पर गंभीर निर्णय नहीं लेता तो “विकसित भारत 2047” एक राष्ट्रीय संकल्प नहीं, बल्कि एक राजनीतिक नारा बनकर रह जाएगा। अर्थव्यवस्था राष्ट्र की रीढ़ है—और रीढ़ तभी मजबूत होती है जब उसकी संरचना मजबूत हो, उसकी नीतियाँ पारदर्शी हों, और उसका राजनीतिक नेतृत्व जवाबदेह हो।

शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा
रुपेश रॉय एक समर्पित शोधार्थी हैं जिनका राजनीतिक विज्ञान में किया गया कार्य शासन, नीति और सामाजिक न्याय के बीच के अन्तर्संबंधों का अन्वेषण करता है। उनका शोध समकालीन समाज के सामने आने वाली चुनौतियों को समझने और संबोधित करने की प्रतिबद्धता से निर्देशित है।






