आज दुनिया के सारे अहम् देशों में लोकतंत्रात्मक शासन-प्रणाली कायम है. लोकतंत्र की जो सबसे प्रसिद्द परिभाषा है, उसके अनुसार यह ‘जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा’ शासन है. इसका अर्थ है कि जनता ने अपने लिए यह शासन-व्यवस्था स्थापित की है. और, इस व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए पुलिस-तंत्र की स्थापना की गई है.
यहीं यह प्रश्न खड़ा होता है कि जब सारे लोग अपने लिए ही व्यवस्था कर रहे हैं तो पुलिस की क्या जरूरत है? पुलिस की जरूरत के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि अपराध और अपराधियों को नियंत्रित करने के लिए इसका उपयोग किया जाता है. पूरी चेष्टा के साथ समझाई गई इस दलील के पीछे का प्रच्छन्न सत्य तो यह है पुलिस छोटे-मोटे अपराधियों को पकड़ने में भले ही कामयाब हो जाए, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के झगड़े में दोनों पक्षों से पैसा ऐंठकर दोनों को अदालतों की दमतोड़ प्रक्रिया में भले ही उलझा दे; लेकिन सत्ता का वरदहस्त प्राप्त बड़े भ्रष्टाचारियों, घूसखोरों, जमाखोरों आदि के विरुद्ध कार्रवाई करने में हमेशा असफल रही है. हम अपने सामान्य अनुभव में यही देखते हैं. यदि एकाध बड़े लोग भी क़ानून और पुलिस के शिकंजे में फँसते हुए दीखते हैं तो उसका कारण पुलिस की सतर्कता नहीं है, बल्कि सत्ता पक्ष का उसके विरोध में हो जाना है, जो हमें अक्सर दिखाई नहीं पड़ता और जिसे हम प्रशासन और पुलिस की सतर्कता मान बैठते हैं.
अर्थात पुलिस-तंत्र को रखने के पीछे जो तर्क दिया जाता है, वास्तविकता बिलकुल वैसा ही है, ऐसा नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि राजसत्ता अपने असंतुष्ट नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस का उपयोग करती है. यदि ऐसा नहीं होता तो सत्ता और शासन के दुर्व्यवहारों से खीझे हुए और असंतुष्ट नागरिकों के साथ बात करके उनकी समस्याओं के निदान की जगह पुलिस को भेजकर डंडों और गोलियों से उत्पन्न दहशत के बल पर उनकी आवाज बंद नहीं कराई जाती. सत्ता की प्राथमिकता जनता को संतुष्ट करना नहीं है, बल्कि 15% लोगों की सुख-सुविधाओं में भूखे-नंगे-प्रताड़ित लोग विघ्न न उत्पन्न कर दें, यह सुनिश्चित करना है. और, उन्हीं 15% लोगों की शान्ति सुनिश्चित करने के लिए बाकी 85% लोगों के दमन और शांत रखने के तरीके को व्यवस्था कहा जाता है और इसी तरह की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस का उपयोग होता है.
दुनिया के सारे लोकतन्त्रों में अपने नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस रखी जाती है. मतलब पूरी दुनिया में असंतुष्ट नागरिकों का लोकतंत्र है. जब लोकतंत्र की व्यवस्था जनता खुद करती है तो असंतोष कहाँ से आ जाता है? असंतोष तो असमानता, भेदभाव, उपेक्षा, शोषण, प्रताड़ना आदि की उपज है. जब जनता स्वयं के लिए स्वयं ही व्यवस्था कर रही है तो असमानता, भेदभाव, उपेक्षा, प्रताड़ना, शोषण आदि की बात आ कैसे सकती है? और, यदि असमानता और शोषण है तो जनता ने मिलकर अपने लिए अपने से व्यवस्था नहीं की होगी.
यही लोकतंत्र है. राजतंत्र और लोकतंत्र में बहुत फर्क नहीं है. प्रवृत्ति वही है, प्रक्रिया में थोडा-सा बदलाव करके झाँसा उत्पन्न किया गया है. राजतंत्र में जहाँ सामंतों और सैनिकों के बल पर जनता में दहशत उत्पन्न करके सिंहासन पर काबिज हुआ जाता है, वहीँ लोकतंत्र में पूँजीपतियों, अपराधियों के बल पर जनता की भावनाओं और संवेदनाओं को नियंत्रित करके समर्थन प्राप्त कर लिया जाता है. लोकतंत्र की संपूर्ण प्रक्रिया उस पूजा विधान की तरह है, जिसमें हमें अनदेखे सुख-सौभाग्य की प्राप्ति का दिलासा देकर दक्षिणा में हमारे घर की पूँजी लेकर पुरोहित चला जाता है और हम सुख-सौभाग्य की प्रतीक्षा करते हुए अपने घर में बैठे रहते हैं. इसी छलावे के विरुद्ध बलवा न हो जाए, इसीलिए पुलिस की व्यवस्था की जाती है.