Category शिक्षा

राजनीतिक एवं सामाजिक उपेक्षा और उद्देश्यविहीन प्रशासनिक कवायदों के बीच मूल्य खोती बिहार की विद्यालयी शिक्षा के सवाल

देश की विविधता पूर्ण स्वतंत्र वैचारिक चेतना पर नियंत्रण के उद्देश्य से राजनीतिक नियामक समूह विकासोन्मुख नीतियों के नाम पर विद्यालयों में एक ऐसा शैक्षणिक ढाँचा तैयार करने जा रहा है, जो “राष्ट्रीय एकता” के नाम पर विविधता और आलोचनात्मक चेतना को दबा रहा है। - इसी आलेख से

बिहार की शिक्षा सामाजिक असमानता को पुनर्स्थापित कर रही है 

जिस राज्य में महज 22% लोग ही किसी तरह पाँचवीं कक्षा तक पहुँच सके हों, एक तिहाई लोगों ने कभी स्कूल-कॉलेज का मुँह नहीं देखा हो और 21% बच्चे दसवीं कक्षा की चौखट तक पहुँचने के पहले ही स्कूल से बाहर हो जाते हों, वह राज्य तो मध्यकाल के किसी पिछड़े हुए असभ्य समाज की तस्वीर पेश करता है। वहाँ के लिए स्वास्थ्य, रोजगार, समृद्धि आदि की बात ही बेमानी है। - इसी आलेख से

उच्च शिक्षा में भेदभाव और ज्ञान-उत्पादन का संकट : एक विश्लेषण

यह आलेख प्रो० रवि कुमार के विचारों पर आधारित है। इस आलेख में बताया गया है कि भारत के उच्च शिक्षा संस्थान, जो ज्ञान, समानता और प्रगतिशील सोच के केंद्र माने जाते हैं, आज भी जाति-आधारित भेदभाव और बहिष्कार की गहरी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। वंचित समुदायों के हज़ारों छात्र सामाजिक पूर्वाग्रह, सूक्ष्म भेदभाव और संसाधनों की कमी के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। यह स्थिति केवल छात्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षकों और शोधकर्ताओं के अवसरों तथा प्रतिनिधित्व में भी गहरे असमानता के रूप में दिखाई देती है। विविधता की कमी से न केवल ज्ञान-उत्पादन का दायरा संकुचित होता है, बल्कि छात्रों के बौद्धिक, नेतृत्व और आलोचनात्मक सोच के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में, आरक्षण नीतियों का सख़्ती से पालन, समावेशी पाठ्यक्रम और संवेदनशीलता प्रशिक्षण जैसे ठोस कदम अनिवार्य हो जाते हैं, ताकि उच्च शिक्षा वास्तव में लोकतांत्रिक और समान अवसर प्रदान करने वाली बन सके।

पाँच वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के निरस्तीकरण की माँग क्यों?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को लागू हुए पाँच साल पूरे हो गए हैं। इस दौरान सरकारी तंत्र, केंद्रीय मंत्रियों और ख़ुद प्रधानमंत्री के द्वारा इसका जितना प्रचार किया गया, उतना किसी अन्य योजना का नहीं। इस आलेख में शिक्षा नीति के कुछ प्रावधानों तथा उसके प्रभावों की संक्षिप्त चर्चा की गई है।

शोध और विकास : भारत के विश्वविद्यालयों में नवाचार का मेरुदंड

Scientist in a lab coat using a microscope to conduct research, focusing on healthcare improvements.
भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रति अध्यापक औसत अनुसंधान अनुदान 30 लाख रुपये से कम है, जबकि अमेरिका में प्रति प्रोफेसर यह राशि 2 करोड़ रुपये और चीन में 1 करोड़ रुपये से अधिक पहुँचती है। इसके अलावा, भारत में पेटेंट आवेदन दर प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 12-15 पेटेंट है, जबकि चीन में यह 250, अमेरिका में 140 और जापान में 160 से भी अधिक है।

उच्च शिक्षा में महिलाओं का योगदान: एक समग्र विश्लेषण

जहाँ राष्ट्रीय एवं प्रांतीय स्तरों पर नीतियों में सुधार हो रहे हैं, वहीं व्यक्तिगत स्तर पर महिलाओं को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भारतीय समाज में पारंपरिक मान्यताएँ अभी भी महिलाओं के कैरियर और विकास में एक बड़ी बाधा के रूप में मौजूद हैं।

क्यों बन रही है स्कूल पर गुप्त छापेमारी की योजना?

सांकेतिक चित्र

धूल उड़ाती सन्न-सन्न भागती गाड़ियों का क़ाफ़िला। साहब के इशारे पर गाड़ी घुमाता ड्राइवर। टास्क से अनजान एक-दूसरे का मुँह ताकते ऑर्डर की प्रतीक्षा में बंदूक़ थामे पुलिसकर्मी।  तभी साहब की गाड़ी रुकती है। क़ाफ़िले की दूसरी गाड़ियाँ भी। पुलिसवाले कूदकर…

नो डिटेंशन पालिसी की समाप्ति : अभिजात्य वर्चस्व के सम्मुख वंचितों की पराजय

इस आलेख में 'नो डिटेंशन पालिसी' की समाप्ति की अधिसूचना पर सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से विचार किया गया है। अंत तक पढ़कर यदि आप अपनी प्रतिक्रिया देते हैं तो इससे वैचारिक प्रक्रिया निर्मित होगी।

बीपीएससी पेपर लीक : भ्रष्ट एवं नाकाबिल प्रणाली की प्रताड़ना भुगतते छात्र

बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षा में पेपर लीक मामले के संदर्भ में डॉ० नीरज कुमार का यह आलेख आयोग की प्रणालीगत ख़ामियों को उजागर करता है। यदि ये ख़ामियाँ विद्यमान रहती हैं तो उसके नतीजे इसी प्रकार होते रहेंगे। आवश्यक रूप से पठनीय आलेख।

सामाजिक-मानवीय आधार पर शिक्षा के पुनर्गठन की ज़रूरत

A man in a black suit and glasses posing for a picture
सत्ता और पूँजीवाद के गठजोड़ ने शिक्षा को अपने हितों की पूर्ति का साधन बना लिया है। सामाजिक और मानवीय हित कहीं खो गए हैं। सामाजिक और मानवीय हितों को पुनर्स्थापित करने के लिए समाज और सामाजिक लोगों को ही शिक्षा के स्वरूप के पुनर्गठन की चिंता करनी होगी।