जनपक्षीय राजनीति के लिए लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों का महत्व

Nand Kishore Singh     13 minute read         

लोकसभा चुनाव में अपने बूते 240 सीट प्राप्त कर भाजपा अल्पमत में है। अब उसे सरकार बनाने के लिए जदयू और टीडीपी के समर्थन की अत्यधिक जरूरत है। उक्त दोनों दलों ने समर्थन देकर सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया है। शुरुआत में एनडीए गठबंधन की सरकार की बात करने वाले नरेन्द्र मोदी ने पुनः अपने पुराने स्वेच्छाचारी रवैए का परिचय देना शुरू कर दिया है। इस बात की पुष्टि मंत्रीमंडल के गठन से स्पष्ट हो जाती है। लगभग सभी महत्वपूर्ण विभाग भाजपा के नेताओं को सुपुर्द कर दिया गया है और एनडीए के घटक दलों खासकर जदयू एवं टीडीपी को झुनझुना थमा दिया गया है।

साभार : News 18 Hindi
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चुनाव में भाजपा के दावों की स्थिति

लोकसभा चुनाव 2024 का परिणाम घोषित हो गया है। एनडीए गठबंधन को कुल मिलाकर 292 सीटें मिली हैं, जिसमें भाजपा की 240 सीटें शामिल हैं। वहीं इंडिया गठबंधन को कुल मिलाकर 232 सीटें हासिल हुई हैं, जिसमें कांग्रेस की 99 सीटें भी सम्मिलित हैं। यह एक बेहद दिलचस्प लोकसभा चुनाव रहा है। इस लोकसभा चुनाव के परिणामों ने जहाँ प्रतिपक्ष को प्रफुल्लित कर रखा है तो वहीं दूसरी ओर केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने जा रही भाजपा और खासकर उसके सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह को मायूस कर दिया है। अपने बलबूते 370 सीटें जीतने और गठबंधन के साथ 400 पार का उद्घोष करने वाले बड़बोले नरेन्द्र मोदी की जबान पर चुनाव के बाद लगाम-सा लग गया है। पूरे चुनाव के दौरान सिर्फ ‘मोदी-मोदी’ का जप करने वाले और भाजपा का मुश्किल से नाम लेने वाले कार्यकारी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव परिणाम के बाद पिछले 5 दिनों से सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (N.D.A) की रट लगाए हुए हैं। बहरहाल भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में मात्र 63 सीटें कम और राजग गठबंधन को मात्र 58 सीटें कम आई हैं। और, इन सीटों की कमी ने नरेन्द्र भाई दामोदरदास मोदी को औकात में ला दिया है। भारत के पूंजीवादी जनतांत्रिक संविधान को बदलकर उसे अपने नापाक इरादों (हिन्दू अंधराष्ट्रवादी विचारधारा या हिन्दुत्व की फासीवादी विचारधारा) के अनुरूप ढालने का दिवास्वप्न देखने वाले बजरंगियों का सपना चकनाचूर हो गया है।

18वें लोकसभा चुनाव का विश्लेषण : सत्य बनाम प्रचार

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परिणाम का राज्यवार विश्लेषण

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश (जहाँ की जनता 80 लोकसभा सदस्यों का चुनाव करती है) में सभी 80 सीटें जीतने का दावा करने वाले बड़बोले नेताओं के मुँह पर उस समय ताला जड़ गया, जब उन्हें मात्र 36 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि अकेले समाजवादी पार्टी ने 37 सीटों पर जीत का परचम फहराया है और इंडिया ब्लॉक को 43 सीटें हासिल हुई हैं। एक सीट पर दलित नेता चन्द्रशेखर आजाद ‘रावण’ को विजय मिली है। एक ओर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के मुद्दा आधारित चुनाव प्रचार अभियान को मतदाताओं ने गंभीरता से लिया, वहीं दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी के स्तरहीन, साम्प्रदायिक, नफरती , कुत्सा प्रचार अभियान को मतदाताओं ने भारी मन से बर्दाश्त किया और उन्हें सबक सिखाने की ठानी। चुनाव के तीसरे-चौथे चरण के बाद बसपा के आधार वोट का एक अच्छा-खासा हिस्सा इंडिया गठबंधन की तरफ शिफ्ट हो गया। भाजपा के आंतरिक कलह , खासकर गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच चल रही खींचतान भी राजपूत मतदाताओं के उत्साह में कमी लाने का कारण बनी। मिला-जुला कर उत्तर प्रदेश में लगातार स्थितियाँ एनडीए के लिए विषम और इंडिया ब्लॉक के लिए अनुकूल बनती चली गईं। इस प्रकार यूपी में मतदाताओं के बड़े हिस्से का झुकाव इंडिया गठबंधन के पक्ष में होता चला गया। फलस्वरूप उत्तरप्रदेश की जनता ने इस बार कमाल कर दिया!

    एक तरफ  राहुल गांधी और अखिलेश यादव के नेतृत्व में यूपी में लड़े गये चुनाव के परिणाम काफी संतोषजनक हैं, वहीं बगल के राज्य बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में सीटों के बंटवारे में की गयी मनमानी, हठधर्मिता एवं स्वेच्छाचारिता का दुष्परिणाम इस रूप में सामने आया है कि इंडिया गठबंधन को मात्र 9 सीटों से संतोष करना पड़ा। इसमें 23 सीटों पर चुनाव में प्रत्याशी खड़ा करने वाले राजद को मात्र 4 सीटें हासिल हुई हैं, कांग्रेस को तीन और भाकपा(माले) लिबरेशन को दो सीटों पर जीत हासिल हुई है। बिहार में यदि सीटों के बँटवारे में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने मनमानी नहीं की होती और चुनाव प्रचार अभियान को इंडिया गठबंधन का प्रचार अभियान बनाया गया होता तो बिहार में कम-से-कम 15 सीटों पर जीत दर्ज कराई जा सकती थी। जिस प्रकार से लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने पूर्णिया के लोकसभा चुनाव क्षेत्र पर रूख अपनाया, वह कहीं से उचित नहीं है। लालू जी की अदूरदर्शिता, मनमानेपन और हठधर्मिता ने बिहार में कांग्रेस को दो से तीन सीटों पर नुकसान पहुँचाया है। औरंगाबाद के लोकसभा चुनाव क्षेत्र से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता निखिल कुमार को टिकट न देकर बिना राय-मशविरा के जदयू से राजद में आये अभय कुशवाहा के नाम की घोषणा कर देना एक ऐसी गलती है, जिसके लिए लालू प्रसाद की आलोचना की जानी चाहिए। पप्पू यादव और कन्हैया कुमार के प्रति जो संकीर्णतावादी व शत्रुतापूर्ण रूख राजद नेतृत्व ने अपनाया है, वह  पूरी तरह गठबंधन धर्म के खिलाफ है। लेकिन इसके बावजूद पूर्णिया लोकसभा चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं ने पप्पू यादव को जिताकर राजद नेतृत्व को यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि किसी खास जाति व धर्म के लोग किसी संकीर्णतावादी एवं अहंकारी नेता या नेताओं की जागीर नहीं हैं। बिहार का एक सच यह भी है कि अपनी तमाम अवसरवादी एवं अविश्वसनीय उलटबांसियों के बाद भी नीतीश कुमार का जनता के एक हिस्से में अच्छा प्रभाव है, जिसका असर चुनाव में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जिस गठबंधन में नीतीश कुमार पलटी मारकर शामिल हो जाते हैं, उसका पलड़ा भारी हो जाता है।

इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने जो कुछ किया है, उसने भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और उसके फिरकापरस्त, निरंकुश एवं फासिस्ट विचारधारा पर यकीन करने वाले अति महत्वाकांक्षी नेता नरेन्द्र मोदी को सातवें आसमान से जमीन पर उतारने का काम किया है। इस‌ सिलसिले में इस बात का जिक्र करना मुनासिब होगा कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे प्रदेश जहाँ किसान आन्दोलन का अच्छा प्रभाव रहा है, वहाँ इंडिया गठबंधन ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया है। इसके लिए उन प्रदेशों के विवेकशील और जागरूक मतदाताओं की प्रशंसा की जानी चाहिए।

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यह लोकसभा चुनाव और विभिन्न राजनीतिक दल

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने भारत के पूंजीवादी संवैधानिक जनतंत्र को समाप्त कर एक खुल्लमखुल्ला नंगी फासिस्ट तानाशाही शासन व्यवस्था देश पर थोप देने के लिए हर संभव प्रयास किया है। पिछले 10 वर्षों का भाजपानीत राजग गठबंधन का शासन सिमटता हुआ भाजपा के शासन तक सीमित नहीं रहा, उसने तेजी से आगे की ओर प्रस्थान किया और मोदी के शासन में तब्दील हो गया। मोदी और शाह ने सिर्फ भारत के पूंजीवादी संवैधानिक जनतंत्र को ही चोट नहीं पहुँचाया है, उसने अपनी पार्टी भाजपा के भीतर के आंतरिक जनतंत्र को लगभग खत्म कर उसका भी भारी नुक्सान किया है। कांग्रेस विहीन वा विपक्ष विहीन जनतंत्र की उनकी अवधारणा बुनियादी रूप से एक फासिस्ट विचारधारा पर आधारित सोच से निकलने वाली अवधारणा है।

         पश्चिम बंगाल में अच्छे परिणाम की उम्मीद पाले भाजपा को निराशा हाथ लगी है। हालाँकि जनवादी, प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी आन्दोलन के विकास की दृष्टि से बंगाल में स्थिति अच्छी नहीं है। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस का आचरण एक अर्द्ध फासीवादी पार्टी की तरह है, जो जनतांत्रिक अधिकारों एवं नागरिक स्वतंत्रताओं को कुचलने के मामले में भाजपा का ही मौसेरा भाई दिखाई पड़ता है।

        जहाँ तक संसदीय वामपंथी दलों का सवाल है, लोकसभा चुनाव में उनका प्रदर्शन अति साधारण रहा है। एक जमाना था, जब 2004 में संसदीय वामपंथी दलों को 60 से अधिक सीटें हासिल हुई थीं और 2024 के इस चुनाव में मुश्किल से 8 सीटें प्राप्त हुई हैं। सीपीआई (एम) को केरल में एक, तमिलनाडु में दो और राजस्थान में एक सीट मिली है, वहीं सीपीआई को तमिलनाडु में दो सीटें हासिल हुई है , जबकि  भाकपा (माले) - लिबरेशन को बिहार में दो सीटें प्राप्त हुई हैं। कुल मिलाकर स्थिति घोर असंतोषजनक है। लेकिन देश में चुनाव के मुतल्लिक वामपंथी पार्टियों के प्रदर्शन पर विचार करते हुए हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने स्वतंत्र पहलकदमी एवं दावेदारी की कम्युनिस्ट नीति का पूरी तरह परित्याग कर दिया है और चंद सीटों की जीत की गारंटी के लिए शासक वर्गीय इंडिया गठबंधन में शामिल होकर अपनी दुर्गति का रास्ता स्वयं चुना है। वामपंथी आंदोलन के बड़े हिस्से का निर्माण करने वाले इन तीनों दलों ने जुझारू जनसंघर्षों और जनक्रांति के क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी मार्ग का परित्याग कर संशोधनवाद एवं सुधारवाद का जो रास्ता चुना है, उसकी परिणति संसदीय बौनेपन एवं अवसरवाद में ही होनी थी।

उड़ीसा में बीजू जनता दल के 24 वर्षों के एकछत्र शासन का अंत हो गया है और भाजपा को भारी जीत हासिल हुई है। उड़ीसा में भाजपा अपनी नई पारी की शुरुआत करने वाली है। उसने आदिवासी समुदाय से आने वाले मोहन माझी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवाकर अपने शासनकाल की शुरुआत कर ली है।

     आंध्र प्रदेश में टीडीपी (तेलुगू देशम पार्टी) ने अच्छी सफलता प्राप्त की है और चन्द्रबाबू नायडू के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही सूबे की राजधानी के रूप में अमरावती का भाग्योदय हो गया है। कश्मीर घाटी में जहाँ भाजपा ने प्रत्याशी खड़ा करने की हिम्मत भी नहीं की, वहीं मणिपुर की दोनों सीटें भाजपा हार गयी है।

        लोकसभा चुनाव में अपने बूते 240 सीट प्राप्त कर भाजपा अल्पमत में है। अब उसे सरकार बनाने के लिए जदयू और टीडीपी के समर्थन की अत्यधिक जरूरत है। उक्त दोनों दलों ने समर्थन देकर सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया है। शुरुआत में एनडीए गठबंधन की सरकार की बात करने वाले नरेन्द्र मोदी ने पुनः अपने पुराने स्वेच्छाचारी रवैए का परिचय देना शुरू कर दिया है। इस बात की पुष्टि मंत्रीमंडल के गठन से स्पष्ट हो जाती है। लगभग सभी महत्वपूर्ण विभाग भाजपा के नेताओं को सुपुर्द कर दिया गया है और एनडीए के घटक दलों खासकर जदयू एवं टीडीपी को झुनझुना थमा दिया गया है।

जनपक्षधर राजनीति के निहितार्थ

      चुनाव नतीजों पर संक्षिप्त चर्चा करने के बाद अब हम जनपक्षधर राजनीति के संदर्भ में इसके निहितार्थ पर आयें। एक बात स्पष्ट है कि दो-दो बार अपने बूते स्पष्ट बहुमत लाने वाली भाजपा इस बार अपने  संख्या बल पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने पिछले 10 वर्षों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को लगभग मृतप्राय कर दिया और तेजी से उस दिशा में अग्रसर होना शुरू कर दिया, जिसमें भाजपा सरकार का असली मतलब मोदी सरकार बनकर रह गया। और, उन्होंने इसे व्यवहार में भी लागू करने का जी-तोड़ प्रयास किया। इसलिए यह अनायास नहीं है कि पूरे लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान मोदी सरकार को तीसरी बार 400 पार की संख्या प्रदान कर सत्ता में बिठाने का आह्वान किया जाता रहा। और इसे सबसे ज्यादा आगे बढ़ कर मोदी-शाह की जोड़ी ने किया।

       नरेन्द्र मोदी ने यह सारा काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नितिन गडकरी व राजनाथ सिंह जैसे भाजपा नेताओं की नापसंदगी के बावजूद किया। चुनाव के बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से बयान दिलवाया गया कि ‘हम अब इतने ताकतवर हो गये हैं कि हमें आर.एस.एस. की बैसाखी की जरूरत नहीं है। हम अपने बूते सत्ता में बने रहने और शासन चलाने की स्थिति में हैं।’ संदेश स्पष्ट था कि नरेन्द्र मोदी आरएसएस की हिदायतों की अनदेखी कर अपने निरंकुश एवं फासिस्ट शासन की आधारशिला मजबूत करना चाहते हैं ताकि वे आसानी से हिटलर और मुसोलिनी के रास्ते पर आगे बढ़ सकें।

हिन्दी साहित्य में विद्यापति का स्थान

यह आलेख हिन्दी साहित्य में विद्यापति के महत्व पर प्रकाश डालता है। वे एक ओर ‘वीरगाथकाल’ के सर्वाधिक प्रामाणिक कवि हैं, वहीं दूसरी ओर भक्तिकाल और शृंगारकाल के ...

चुनाव नतीजों ने तानाशाही की ओर प्रवृत्त नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ा है और आज पेरिस कम्यून के जमाने के पूंजीपति वर्ग के उस घृणित एवं बौने प्रतिनिधि थियेर के आधुनिक भारतीय प्रतिरूप नरेन्द्र मोदी को उसकी औकात बताई है। आजकल जिस ढंग से टीडीपी नेता नायडू और जदयू नेता नीतीश कुमार की ठकुरसुहाती में नरेन्द्र मोदी को देखा जा रहा है, उससे स्पष्ट है कि जरूरत पड़ने पर ‘गदहे को बाप’ कहने वाला यह शख्स बहुत ख़तरनाक है। पिछले 10 वर्षों के अपने शासनकाल में इसने कटे-छँटे व सीमित पूंजीवादी जनतंत्र की आधारशिला को लगातार खोखला करने का काम किया और देश में एक नंगी फासीवादी तानाशाही शासन व्यवस्था थोप देने के लिए हर संभव प्रयास किया। इसलिए चुनाव परिणाम को नरेन्द्र मोदी के उस कुत्सित फासीवादी अभियान पर तत्काल एक रोक लगाने का काम भर समझना चाहिए। इससे अधिक समझना निश्चित तौर पर एक भूल होगी।

         जिस ढंग से उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने मुद्दों पर बातचीत की और नरेन्द्र मोदी की फासीवादी राजनीति का भंडाफोड़ किया, उसका सकारात्मक परिणाम सामने आया है। यूपी की सभी 80 सीटें जीतने का दिवास्वप्न देखने वाली भाजपा को मात्र 33 सीटें नसीब हुई हैं, जबकि अकेले समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिली हैं। संदेश स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपराजेय नहीं है और उसे चुनाव में हराया जा सकता है।

इस चुनाव परिणाम ने देशभर के जनतंत्र समर्थक नागरिकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तत्काल एक सुखद एहसास से सराबोर कर दिया है। उन्हें विश्वास हो गया है कि यदि और मेहनत की जाए, जनता से जीवंत सम्पर्क बनाया जाए और मुद्दा आधारित राजनीति पर जोर दिया जाए तो फासिस्ट एवं साम्प्रदायिक भाजपा एवं उसके सहयोगियों को देश स्तर पर हराया जा सकता है।

         लेकिन इस तथ्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि इस लोकसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच था और लोकसभा सीटों का बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों गठबंधनों से जुड़ी पार्टियों को मिला है। यह सच है कि सत्ता के लिए हो रहे संघर्ष में आम जनता भी राजनीतिक संघर्ष में खिंची चली आई है और इसने चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद परिस्थितियों को दिलचस्प बना दिया है। लेकिन इस तथ्य से कैसे इनकार किया जा सकता है कि आर्थिक नीतियों और जनता के जनवादी अधिकारों को कुचलने के मामले में एनडीए गठबंधन और इंडिया ब्लॉक खासकर भाजपा व कांग्रेस के बीच कोई बुनियादी फर्क नहीं है। इसलिए फासिस्ट एवं साम्प्रदायिक भाजपा को चुनाव में परास्त करने के लिहाज से इंडिया गठबंधन के दलों के पक्ष में मतदान कर देना एक बात है, लेकिन जहाँ तक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव के लिए हो रही क्रांतिकारी राजनीति का सवाल है, उसका रास्ता वर्ग संघर्षों को तेज करने से ही निकलता है।

वामपंथी दलों का कार्यभार

       आज साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था भयंकर उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। साम्राज्यवादी ताकतों के बीच के अंतर्विरोध तेज होते जा रहे हैं। विश्व के कई हिस्सों में ये अंतर्विरोध हिंसक रूप ले रहे हैं। विश्व पूंजीवाद लम्बे समय से संकटग्रस्त है और पूरी दुनिया में फासीवादी विचारधारा का उभार है। आम जनता के हितों पर चौतरफा हमला जारी है। और इसलिए पूरी दुनिया में फासीवादी विचारधारा के उभार के साथ-साथ आम जनता के स्वयंस्फूर्त विरोध का स्वर भी तेज हो रहा है।

जहाँ तक देश की  भाजपा एवं कांग्रेस सरीखे पार्टियों के बीच आर्थिक नीतियों के मामले में बुनियादी समानता की बात है तो यह सच है कि 1991 में कांग्रेस के शासन काल में नरसिंह राव - मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गई निजीकरण, उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की साम्राज्यवादपरस्त आर्थिक नीतियों को ही पिछले 10 वर्षों में मुल्क में पूरी तेजी के साथ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा लागू कर रही है। लेकिन इन नीतियों को ठीक ढंग से लागू करने के लिए जहाँ भाजपा खुली नंगी फासीवादी तानाशाही थोपने की ओर अग्रसर है, वहीं कांग्रेस पुराने सीमित जनतंत्र के ढांचे का रंग-रोगन करके और कल्याणकारी योजनाएँ कायम रखकर बड़े पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करने की कोशिश कर रही है।

चुनाव परिणाम ने देश के जनतांत्रिक, प्रगतिशील, वामपंथी एवं कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शक्तियों के समक्ष एक गंभीर राजनीतिक कार्यभार पेश कर दिया है। वह कार्यभार है कि यह देश, समाज और जनतंत्र के हित में है कि साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद एवं फासीवादी सोच पर यकीन करने वाली प्रतिगामी शक्तियों का एकजुट होकर मुकाबला किया जाए और देश में  रोजी-रोटी, धर्म निरपेक्षता, सामाजिक बराबरी एवं जनतंत्र के लिए चलाए जा रहे जनसंघर्षों को अग्रगति प्रदान की जाए। इसी से जनता को केन्द्र में रखकर की जाने वाली जनपक्षधर राजनीति मजबूत होगी और शासक वर्गीय राजनीति को कमजोर किया जा सकेगा।

इस चुनाव परिणाम ने सच्चे जनवाद और वैज्ञानिक समाजवाद में यकीन करने वाले कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एक सुनहरा मौका प्रदान किया है कि वे देश स्तर पर अपने को एकताबद्ध करें, संशोधनवाद व संसदीय बौनेपन के खिलाफ वैचारिक संघर्ष को तेज करें और शोषण एवं दमन पर टिकी इस आदमखोर व्यवस्था को पलटकर एक नयी शोषण विहीन जनवादी एवं समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करें।

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