स्वच्छता के अभियान की हकीकत

Dr. Anil Kumar Roy     2 minute read         

हम एक पतनशील व्यवस्था में जीने को अभिशप्त हैं. विश्वास और मानकता के जितने सारे प्रतिमान थे, वे धीरे-धीरे अविश्वसनीय और अप्रामाणिक होते जा रहे हैं. साधारण तौर पर हम विश्वास करते रहे हैं सरकारी आंकड़ों पर और मीडिया द्वारा प्रस्तुत समाचारों पर. लेकिन जिस तरह मीडिया खबर नहीं, बल्कि प्रायोजित विचारों के वमन का साधन बन कर रह गई है, उसी तरह सरकारों के वायदे ही नहीं बल्कि उसके द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़े भी पीब से भरे घृणित चेहरे पर फेयर एंड लवली लगाकर झाँसा उत्पन्न करेने का माध्यम भर होकर रह गया है. अब झूठ और फरेब की सरकार से बड़ी एजेंसी और कोई नहीं है.

हम एक पतनशील व्यवस्था में जीने को अभिशप्त हैं. विश्वास और मानकता के जितने सारे प्रतिमान थे, वे धीरे-धीरे अविश्वसनीय और अप्रामाणिक होते जा रहे हैं. साधारण तौर पर हम विश्वास करते रहे हैं सरकारी आंकड़ों पर और मीडिया द्वारा प्रस्तुत समाचारों पर. लेकिन जिस तरह मीडिया खबर नहीं, बल्कि प्रायोजित विचारों के वमन का साधन बन कर रह गई है, उसी तरह सरकारों के वायदे ही नहीं बल्कि उसके द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़े भी पीब से भरे घृणित चेहरे पर फेयर एंड लवली लगाकर झाँसा उत्पन्न करेने का माध्यम भर होकर रह गया है. अब झूठ और फरेब की सरकार से बड़ी एजेंसी और कोई नहीं है.

बात स्वच्छता अभियान के तहत चलाये जाने वाले ‘खुले में शौच से मुक्त’ योजना की है. ग्रामीण और शहरी भारत को खुले में शौच से मुक्त कराने की यह अंतर्राष्ट्रीय योजना बिहार सरकार के सात संकल्पों में शामिल है. स्वच्छता की बात कोई नई नहीं है. आजादी के लिए गाँव-गाँव घूमते हुए गाँधी को भी लगा था कि आजादी केवल अंग्रेजों से ही नहीं, बल्कि गन्दगी से भी होनी चाहिए. इतने दिनों के बाद, जो बात स्वाभाविक रूप से होनी चाहिए थी, उसके लिए टैक्स लेकर स्वच्छता की सुध आई है. इसके पहले चरण में जगमगाते हुए कपड़ों में सड़क पर झाडू पकडे फोटो खिंचवाकर लोगों को सड़कों-गलियों को खुद साफ़ करने का सन्देश दिया गया. बात नहीं बनी तो अब सुबह-सुबह गाड़ियों में लाउडस्पीकर लगाकर स्वच्छता से सौभाग्य आने का सन्देश सुनाया जा रहा है. टैक्स वसूलने, गाड़ियों पर भोंपू बजाने और सफाई कर्मियों को रखने का कुछ फायदा तो दिखता है कि पहले की अपेक्षा कुछ कम गन्दगी मिलेगी. लेकिन इस पोस्ट को पढ़ते समय भी आप अपने मोबाइल पर अपने शहर की एयर क्वालिटी का पता लगायेंगे तो ‘unhealthy air quality’ या ‘very unhealthy air quality’ ही दिखायेगा. पटना में राजेंद्र नगर टर्मिनल स्टेशन के निकट रहता हूँ. सुबह में जब टहलने के लिए निकलता हूँ तो सड़क के किनारे नाले पर स्त्री-पुरुष और बच्चे लाइन लगाकर शौच करते हुए दिखते हैं. इच्छा हुई कि दिन में उनके पास जाकर स्वच्छता के बारे में बात करूँ. लेकिन आस-पास कहीं भी सार्वजनिक शौचालय नहीं दिखता है. स्वच्छता के कितने भी गीत और जागरण के कितने भी सन्देश सुनाने के बावजूद वे शौच करने कहाँ जायेंगे? इसके बारे में न तो कोई संवेदना है और न ही कोई चिंता दिखाई पड़ती है. यही नहीं पटना के बेली रोड जैसी सड़क के किनारे कहीं भी, शौचालय तो छोडिये, मूत्रालय तक नहीं है. कोई आदमी, जो प्रोस्टेट से या डायबिटीज से पीड़ित है या पेचिश से ग्रस्त हो गया है, स्वच्छता के गीत सुनकर या खुले में शौच से मुक्ति के सन्देश को हृदयंगम करके कैसे रह जा सकता है. यही हाल सारी सड़कों का है. यहाँ तो गीतों पर जोर है, परिस्थितियों को परिवर्तित करने की चिंता पर नहीं.

केवल शहरों का ही नहीं, गाँवों का भी यही हाल है. कुछ दिन पहले उप मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि पूरा बिहार खुले में शौच से लगभग मुक्त हो गया है. लग

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