दंगों की राजनीतिक आर्थिकी

Dr. Anil Kumar Roy     6 minute read         

इस साल रामनवमी के अवसर पर बिहार के कई जिलों में सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कोशिश हुई। इन तनावों को दंगा नहीं कहा जा सकता है। सांप्रदायिक दंगे का अर्थ होता है - संप्रदाय के आधार पर दोनों पक्षों का आपस में मार-पीट और लूट-पाट करना। ऐसा इस बार नहीं हुआ। दर्जनों जगहों से आई इन ख़बरों में किसी के मारे जाने की सूचना नहीं है। कहीं-कहीं चोट पहुँचाने की कोशिश हुई है, दूक़ानें लूटी गई हैं, आग लगाई गई है, लेकिन किसी की जान लेने का प्रयास नहीं हुआ है। और, यह सब भी केवल एक पक्ष के द्वारा किया गया है, दूसरा पक्ष बिलकुल सहमा हुआ और स्थिर रहा है। इसलिए इसे दंगा नहीं कहा जा सकता है। यह केवल उग्रवादी हिंदुओं के द्वारा मुसलमानों के दिलों में दहशत उत्पन्न करना था। इस प्रकार इस बार इस्तेमाल में लाई गई तकनीक को दंगों के पुराने चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिये। इस बार के तरीक़े को मुसलमानों के विरुद्द हिंदू आतंकवाद के प्रदर्शन के रूप में देखा जाना चाहिए।

इस साल रामनवमी के अवसर पर बिहार के कई जिलों में सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कोशिश हुई। इन तनावों को दंगा नहीं कहा जा सकता है। सांप्रदायिक दंगे का अर्थ होता है - संप्रदाय के आधार पर दोनों पक्षों का आपस में मार-पीट और लूट-पाट करना। ऐसा इस बार नहीं हुआ। दर्जनों जगहों से आई इन ख़बरों में किसी के मारे जाने की सूचना नहीं है। कहीं-कहीं चोट पहुँचाने की कोशिश हुई है, दूक़ानें लूटी गई हैं, आग लगाई गई है, लेकिन किसी की जान लेने का प्रयास नहीं हुआ है। और, यह सब भी केवल एक पक्ष के द्वारा किया गया है, दूसरा पक्ष बिलकुल सहमा हुआ और स्थिर रहा है। इसलिए इसे दंगा नहीं कहा जा सकता है। यह केवल उग्रवादी हिंदुओं के द्वारा मुसलमानों के दिलों में दहशत उत्पन्न करना था। इस प्रकार इस बार इस्तेमाल में लाई गई तकनीक को दंगों के पुराने चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिये। इस बार के तरीक़े को मुसलमानों के विरुद्द हिंदू आतंकवाद के प्रदर्शन के रूप में देखा जाना चाहिए।

आतंक की इन घटनाओं को समझने के लिए यह जानकारी भी रखने की ज़रूरत है कि जिन स्थानों पर ये आतंक उत्पन्न किए गए, उनमें कहीं भी स्थानीय आम लोगों ने पहल नहीं की थी। सारी जगहों पर कुछ अनजान लोगों ने इसकी पहल की। जैसे, औरंगाबाद, जहाँ सबसे पहले और सबसे बड़े पैमाने पर घटना हुई, में रामनवमी के एक दिन पहले ही 300-400 मोटरसाइकल पर सवार अनजान लोग शहर में सांप्रदायिक गाली-गलौज और नारे लगाते घूमने लगे। इसी तरह अन्य जगहों पर भी बाहरी अनजान लोगों के द्वारा ही घटनाएँ सृजित की गईं। सारी जगहों पर् उपद्रवियों के हाथों में चमचमाती एक ही तरह की नई तलवारें थीं। इन तलवारों को देखकर ही पता चलता था कि इनकी बड़ी खेप थोक के भाव में चिह्नित स्थानों पर सप्लाई की गई है। इसके अलावा महँगे डीजे पर जो उत्तेजक गाने बजाए जा रहे थे, उनका संग्रह पूर्व योजना के बिना नहीं हो सकता था। ये बातें और इसी तरह की अन्य सारी बातों को देखने यह स्पष्ट हो जाता है कि ये उपद्रव सुनियोजित षड्यंत्र के परिणाम थे, जिनके लिए लंबे समय से गुप-चुप व्यवस्था की जा रही थी, न कि अचानक उभरे ग़ुस्से का इज़हार थे। घटना के पूर्व मुख्यमंत्री का उपद्रव की संभावनाओं वाला बयान भी इस बात की ओर इशारा करता है कि उन्हें इस बात की भनक थी। इन सारे घटनाक्रमों में मुख्य ध्यान इस ओर जाना चाहिए कि इन सारे उपद्रवों को अपने उद्देश्य में सफल होने में पुलिस और प्रशासन का सहयोग रहा है। पटना शहर में अनेक अनधिकृत जुलूसें अनधिकृत गलियों से निकलीं और इसी तरह अन्य स्थनों में भी, उन जुलूसों में लोग उत्तेजक गानों पर नंगी तलवारें भाँजते हुए उत्तेजक नारे लगा रहे थे, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस और प्रशासन, उन्हें रोकने के बदले, उनका सुरक्षा-कवच बनकर चल रहा था। समस्तीपुर में तो ज़िला प्रसासन की सहमति से मस्जिद पर झंडा फहराया गया।

पहले ही कहा जा चुका है कि इस बार के उपद्रव में मरने-मारने के परंपरागत दंगाई तरीक़े का इस्तेमाल न करके केवल आतंक उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है। ऐसा क्यों? इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि गुजरात के दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में वर्तमान प्रधानमंत्री की काफ़ी निंदा हुई थी और उन्हें उसके लिए अपराधी माना गया था। न्यायालय से दोषमुक्त क़रार दिए जाने के बावजूद एक बड़ा तबक़ा उन्हें आज भी उन दंगों का क़सूरवार ठहराता है। अभी वही प्रधानमंत्री हैं। बिहार में भी उनकी पार्टी के गठबंधन की सरकार है। उनकी पार्टी या उनके चरित्र पर हत्यारा होने का सीधा आरोप न लग सके, इसलिए इसे धार्मिक उत्सव के उत्साह के रूप में गढा गया। फिर समय के साथ दंगों का स्वरुप भी बदला. मरने-मारने के बदले इस नए तरीके को अपनाने से बवाल भी अधिक नहीं हो पाता है और आतंक उत्पन्न करने के उद्देश्य की भी सिद्धि हो जाती है. इसलिए इस नए तरीके को अपनाया गया.

सांप्रदायिक तनावों को उत्पन्न करने के राजनीतिक निहितार्थ तो सर्वविदित हैं. देश और समाज के वातावरण में घृणा, विद्वेष और आतंक फैलाकर संप्रदाय के नाम पर वोट पाने वाले राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को गोलबंद करते हैं. इसमें मठों-मंदिरों के पुजारियों और वैसे तमाम लोगों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन-सहयोग रहता है, धर्म के नाम पर जिनके धंधे चलते हैं या जिनकी प्रतिष्ठा होती है. इस देश में ऐसा लंबे समय से होता रहा है. केवल संप्रदाय के नाम पर ही नहीं, जातियों के नाम पर भी समाज में पारस्परिक विद्वेष फैलाकर वोट बैंक को गोलबंद किया जाता रहा है. यह सांप्रदायिक दंगों या तनावों को गढ़ने का राजनीतिक उद्देश्य है.

लेकिन इसका आर्थिक पक्ष भी है, जिसकी और बहुधा ध्यान नहीं जाता है. दंगों की दहशत से अल्पसंख्यक कारोबारी अपना कारोबार छोड़कर भाग जाते हैं, जिन पर दबंग स्थानीय लोगों का कब्जा हो जाता है. इसलिए दंगों की दहशत उत्पन्न करने में बहुसंख्यक समुदाय के सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त लोगों का हमेशा सहयोग रहता है. यह आर्थिक पक्ष का तात्कालिक कारण है. लेकिन इसके पीछे दीर्घकालिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साजिशें भी काम करती रहती हैं. इसलिए इस आर्थिकी को भी समझने की जरूरत है, विशेषकर इन सांप्रदायिक तनावों को ध्यान में रखकर. इस बात को साबित करने की ज़रूरत नहीं है कि वर्तमान केंद्रीय सरकार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पूँजीपतियों के मैनेजर के रूप में काम कर रही है। कॉरपोरेट को अपने धंधे के विस्तार के लिए भूमि की ज़रूरत होती है। लेकिन भारत में लोग ज़मीन को माँ की तरह मानते हैं। उत्तर भारत में मुसलमान, हिंदुओं के गाँवों के बीच, एक-आध गाँव या टोले या कुछ घरों के रूप में बसे हुए हैं। आतंकित होकर वे अपने पुरखों की ज़मीन-जायदाद को छोड़कर अपने संप्रदाय के बहुसंख्यक समूह में बसना शुरू कर देंगे, जैसा कि मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद हुआ। कहा जाता है कि वहाँ के दंगे में भागे हुए 70 हज़ार मुसलमानों में से 60 हज़ार फिर लौट कर अपनी मातृभूमि पर नहीं आए। सत्तारूढ़ होते ही वर्तमान सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल लाने का प्रयास किया, जो भारी राजनीतिक और जन दवाब के कारण क़ानून नहीं बन पाया। लेकिन जिन कोरपोरेट ने इनकी सरकार बनाने के लिए अपनी पूँजी लगाई है, उसे अपना मुआवज़ा तो चाहिए ही। इस तरह मुसलमानों के लिए दहशत का माहौल बना देने से, अपने जान-माल की सुरक्षा के लिए उनकी विवशता हो जाएगी अपने पैतृक स्थानों को छोड़कर ऐसे स्थानों की ओर पलायन करने की जहाँ वे बहुसंख्यक रूप में अपने को सुरक्षित महसूस कर सकें। इससे मुसलमानों द्वारा बड़ी संख्या में छोड़ी गई ज़मीन बड़े ज़मींदारों और कल-कारख़ानेदारों को हस्तांतरित की जा सके।

लेकिन क्या इतने मात्र से पूँजीपतियों की सुरसा-भूख तृप्त हो जाएगी? नहीं। यदि यही राजनीतिक-आर्थिक अवस्था रही तो दूसरे कमज़ोर वर्गों - दलितों-आदिवासियों की ज़मीन हथियाने का उपाय होगा और उसके बाद फिर दूसरे वर्गों की। पूँजीवाद की कभी तृप्त न होने वाली लालसा अंततोगत्वा सबको लील जाएगी।

इसके दूसरे सामाजिक-राष्ट्रीय दुष्परिणाम भी बहुत जल्द सामने आएँगे। प्रकृति का यह सिद्धांत है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। जब मुसलमानों को या किसी भी दूसरे समुदायों को सांप्रदायिक या जातीय आधार पर लगातार सताया जाएगा तो वे भी मरने-मारने पर उतारू हो जाएँगे। इस तरह आपसी विद्वेष से भरा हुआ समाज, युद्ध और हिंसा के अंधे युग में प्रवेश कर जाएगा। इसके राष्ट्रीय दुष्परिणाम भी सामने आएँगे। असुरक्षित और कमज़ोर समुदाय गोलबंद होता है। इस तरह सांप्रदायिक और जातीय आधारों पर प्रताड़ित की गई जातियाँ, अपने सुरक्षात्मक कारणों से, अलग राज्य या देश की माँग करने लगेगा। और तब, सांप्रदायिक आधार पर एक नए और अलग देश की माँग उठ खड़ी होगी। विदेशी ताक़तों का सहयोग उन माँगों को मिलेगा।और तब इस भूखंड में एक नया पाकिस्तान जन्म लेगा।

इस तरह राष्ट्रवाद और संस्कृतिवाद के नाम पर यह घोर राष्ट्रद्रोह है। सारी सच्ची राष्ट्रवादी ताक़तों को एकजुट होकर पूँजीवाद के इस कुत्सित मंसूबे को नाकायामयाब करना चाहिए।

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