बुझता हुआ चिराग है संविधान की प्रस्तावना

Dr. Anil Kumar Roy     5 minute read         

जिस उदात्त सोच के साथ इस देश की संवैधानिक बुनियाद रखी गई थी, समय बीतने के साथ ही लगातार वह जर्जर होती गई। और, अब तो यकीन करना भी मुश्किल है कि यह वही देश है, स्वतन्त्रता के संघर्ष से निकले हुए तप:पूतों ने जिसका प्रस्ताव पास किया था।

जिस उदात्त सोच के साथ इस देश की संवैधानिक बुनियाद रखी गई थी, समय बीतने के साथ ही लगातार वह जर्जर होती गई। और, अब तो यकीन करना भी मुश्किल है कि यह वही देश है, स्वतन्त्रता के संघर्ष से निकले हुए तप:पूतों ने जिसका प्रस्ताव पास किया था।

नब्बे वर्षों के अनवरत संघर्ष और अनगिनत शहादतों के बाद जब आजादी के ऐलान का वक्त आया तो बड़ी मुश्किल से मिलने वाले इस ‘स्व’राज को एक ऐसे कायदे की जरूरत पड़ी, जिसे अपना कहा जा सके और जिस कायदे की कश्ती पर वह तमाम अवाम सवार हो सके, जो इस आजादी के जद्दोजहद में अपनी कुर्बानियाँ देते रहे और लालसा भरी निगाहों से अपनी बेहतरी की बाट जोह रहे थे। उन्हीं कुर्बानियों के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, उदास आँखों की आकांक्षाओं को साकार करने के लिए और इसके साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधताओं से भरे इस देश को एकसूत्रित रखने के लिए संविधान सभा के 299 लोगों ने मिलकर 2 साल, 11 महीने और 18 दिनों में दुनिया के सबसे विशाल लोकतन्त्र के लिए दुनिया का सबसे विशाल संविधान तैयार किया।

इसी संविधान सभा में 13 दिसंबर, 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान का उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया था, जिसे 22 जनवरी, 1947 को अपना लिया गया। यह प्रस्तावना इस नवोदित हो रहे राष्ट्र की महत्वपूर्ण विशेषताओं को परिभाषित करने के साथ ही इसके सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों को भी स्पष्ट करता है। बाद में 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा इसमें समाजवाद, पंथ निरपेक्ष और अखंडता शब्द को जोड़कर इसे और भी समृद्ध किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय जीवन बीमा निगम एवं अन्य बनाम कंज्यूमर एजुकेशन और रिसर्च एवं अन्य 1995 SCC (5) 482 के मामले में तथा केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य AIR 1973 SC 1461 के मामले में प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न हिस्सा माना है।

इस प्रस्तावना में सत्ता का स्रोत जनता को माना गया अर्थात लोकप्रभुता को स्वीकृत किया गया। सत्ता का स्वरूप संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक और गणराज्य निर्धारित किया गया। और, सत्ता का उद्देश्य न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, गरिमा, एकता, अखंडता और बंधुत्व को माना गया।

लेकिन जिस उदात्त सोच के साथ इस देश की संवैधानिक बुनियाद रखी गई थी, समय बीतने के साथ ही लगातार वह जर्जर होती गई। और, अब तो यकीन करना भी मुश्किल है कि यह वही देश है, स्वतन्त्रता के संघर्ष से निकले हुए तप:पूतों ने जिसका प्रस्ताव पास किया था।

संविधान के आश्वासनों को उदात्त बनाने वाले ‘समाजवाद’ और ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द अवधारणा में में तो आकर्षक लगते हैं, लेकिन इस आजाद देश के इन 70 वर्षों की यात्रा में इन शब्दों का अभिप्राय किसी कुहेलिका में आच्छन्न हो गया है। जिस देश के महज 10 प्रतिशत अमीरों के पास देश की 77 प्रतिशत से ज्यादा संपत्ति संकेंद्रित हो गई हो और 60 प्रतिशत लोग 5 प्रतिशत से भी कम संपत्ति में गुजारा करने को विवश हों (ओक्सफेम की रिपोर्ट), उसमें समाजवाद का आश्वासन चिढ़ उत्पन्न करने वाला शब्द बनकर रह गया है। जिस देश में राज्य प्रायोजित धार्मिक स्थलों का निर्माण हो रहा हो, राज्य प्रायोजित धार्मिक कृत्यों का आयोजन हो रहा हो और धार्मिक आधार पर नागरिकता तय की जा रही हो, वहाँ ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द का बने रहना माखौल के सिवा और कुछ नहीं है। अर्थात ये शब्द भले ही अब तक बने हुए हों, लेकिन सत्ता उन शब्दों की रक्षा के प्रति बेपरवाह ही नहीं, बल्कि उन शब्दों के अभिप्राय के प्रति भी हिंसक हो गया है।

‘लोकतान्त्रिक गणराज्य’ की अवधारणा का प्लास्टर भी धीरे-धीरे झड़ता जा रहा है। आर. सी. पौड्याल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य 1993 SCR (1) 891 के मामले में कहा गया है, हमारे संविधान में, लोकतंत्रात्मक-गणराज्य का अर्थ है, ‘लोगों की शक्तियाँ।’ इसका संबंध, लोगों द्वारा शक्ति के वास्तविक, सक्रिय और प्रभावी अभ्यास से है। मोहन लाल त्रिपाठी बनाम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट 1992 SCR (3) 338 के मामले में भीं यही कहा गया है। लेकिन लोगों की शक्ति के अभ्यास की यह कैसी व्यवस्था है, जिसमें 30-35 प्रतिशत समर्थन से कोई दल सत्ता प्राप्त कर लेता है और 60-70 प्रतिशत के बहुमत की न तो कोई चिंता होती है और न ही कोई पूछ। इस संकल्प का कभी यह अर्थ रहा होगा कि कोई भी सामाजिक समूह अपने हितों की रक्षा और सुरक्षा के लिए अपनी आवाज उठा सकेगा और सत्ता उसकी आवाज सुनने को बाध्य होगी। लेकिन जिन आम लोगों के बल पर इस लोकतन्त्र का इकबाल दीप्त है, आज वह और उसकी इच्छाएं-जरूरतें सत्ता की चिंता का विषय नहीं है। श्रम क़ानूनों में संशोधन से लेकर नई शिक्षा नीति, नागरिकता संशोधन कानून, कृषि कानून - सबमें आम अवाम की उपेक्षा और प्रताड़ना के तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं।

इस तरह सत्ता के संवैधानिक स्वरूप की दीवारों की ईंटें खिसकती हुई दिखाई पड़ती हैं।

इस लोकतान्त्रिक सत्ता का उद्देश्य न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, गरिमा, एकता, अखंडता और बंधुत्व को माना गया। न्याय, जिसकी हिफाजात की जिम्मेवारी न्यायालय को दी गई थी, आज वह न्यायायिक प्रणाली ही रह-रहकर खुद बड़े-से प्रश्नवाचक के कठघरे में खड़ी दिखती है। इस संवैधानिक व्यवस्था को गत्वर बनाने वाले विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, उपासना आदि की स्वतन्त्रता के अश्व अब अपने पैरों की ताकत खो चुके हैं। आज, जिसकी आवाज में थोड़ा-सा भी दम है, यदि बोलने की कोशिश करता है तो बात-बेबात के देशद्रोही घोषित करके काली दीवारों के भीतर कर दिया जाना ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की नियति हो आई है। जब धर्म विशेष को राजकीय स्वरूप में अपना लिया जाता है तो दूसरे धर्मों के लोगों के खाने-पीने, रहने-जीने पर भी पाबंदियों का पहरा बैठा दिया जाता है। यही कारण है कि किसी धर्म-विशेष के आदमी के लिंचिंग के मामले में लिंचिंग करने वालों कि जमानत होने पर न्याय-कक्ष में उन्माद से भरे धार्मिक नारे लगाए जाते हैं और न्यायमूर्ति मूर्तिवत देखते रहते हैं। इसी तरह जातीय और सांप्रदायिक विद्वेष के पैने तीरों से वह बंधुता, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करती है, आज सड़कों पर लहूलुहान पड़ी हुई है।

इस तरह इस देश की रचना में जिन सैद्धान्तिक संकल्पों की बुनियाद रखी गई थी, वह बुनियाद ही अब हिलती हुई दिखाई पड़ती है। लगता है कि संविधान के शिल्पकारों ने बड़े जतन से जो चिराग जलाया था, उसकी रोशनी अब खत्म हो गई है।

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