हिन्दी साहित्य-परंपरा का आदिकवि विद्यापति

Dr. Anil Kumar Roy     7 minute read         

हिन्दी-साहित्य यदि अपनी परंपरा ढूँढने निकलेगा तो उसे विद्यापति अपना आदिकवि दिखाई देगा।

विद्यापति
विद्यापति

हिन्दी-साहित्य यदि अपनी परंपरा ढूँढने निकलेगा तो उसे विद्यापति अपना आदिकवि दिखाई देगा।

गंगा-ब्रह्मपुत्र का फैला हुआ मैदान और उसमें मिथिला की अमराइयाँ। इन अमराइयों में हजार वर्षों से जिस कवि के गीत आज भी जन-जीवन के कंठहार बने हुए हैं, वह कवि है विद्यापति। हिन्दी साहित्य में तो नहीं है, संसार के इतिहास में भी शायद ही कोई दूसरा उदाहरण होगा कि किसी कवि की कविताओं और गीतों की प्रासंगिकता हजार वर्षों के बाद भी जस-की-तस बनी हो। आज दरबार नहीं हैं, सामाजिक-राजनीतिक परिवेश भी वह नहीं है, जो विद्यापति के समय था, परंतु वीणा की झंकृतियों की तरह उनके शृंगारिक पदों को पढ़-सुनकर आज भी सरस हृदय उतना ही मुग्ध होता है और भक्ति के पदों और नचारियों को गाकर भक्त-हृदय उतना ही द्रवित और विह्वल होता है। कंकड़ीले पथ पर नंगे पैर चलने वाले काँवड़ियों के पैर जब लहूलुहान हो जाते हैं और बदन की सारी शक्ति निचुड़ जाती है तो बहते हुए आँसुओं के साथ भींगे हुए कंठ से जो गीत निकलता है, वह विद्यापति का ही होता है - “कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ! दुखही जनम भेल, दुखही गमाओल,सुख सपनेहु नहि भेल हे भोलानाथ!

हिन्दी साहित्य में विद्यापति की “भनिति” उस “सुरसरिसम” है, जिसने हिन्दी काव्य-मनीषा का सर्वाधिक “हित” किया है। वे साहित्य की संक्रांति की उस सीमा पर खड़े हैं, जहाँ एक ओर तो वे अपने युग के सबसे प्रामाणिक कवि हैं, दूसरी ओर उनकी इंद्रधनुषी काव्य-प्रतिभा से पश्चातकालीन युग भी आकर्षित-आप्लावित होता रहा है। एक ओर तो वे वीरगाथात्मक प्रवृत्तियों के सर्वाधिक प्रामाणिक कवि हैं, दूसरी ओर, हिन्दी में, कृष्णभक्ति और शृंगारिक प्रवाह के मूल उत्स पर भी वही बैठे हैं। क्रमश: क्षीण होता हुआ यह प्रभाव भारतेन्दु-युग और छायावाद-युग में भी देखा जा सकता है। व्यापकता की दृष्टि से, भाषा, देश और काल का उल्लंघन कर उनका प्रभाव समस्त पूर्वी प्रांत में व्याप्त रहा है। हिन्दी और मैथिली ही नहीं, बंगला, असमी, उडिया, नेपाली आदि भाषाएँ भी इनके अरुण काव्यालोक से उद्भासित हुई हैं। आधुनिक युग में दिनकर ने मेरी पसंद की कवितायें में और निराला ने चंडीदास और विद्यापति में कवि के प्रति अपना आकर्षण दिखाया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने कहा है - “जो भी हो, यह तो स्पष्ट है कि हिन्दी-साहित्य यदि अपनी परंपरा ढूँढने निकलेगा तो उसे विद्यापति अपना आदिकवि दिखाई देगा।”

आदिकाल में दो श्रेणियों की रचनाएँ मिलती हैं - “जैन प्रभावापन्न परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश की रचनाएँ” और “लोक-परंपरा में बहती हुई आनेवाली” लोकभाषा की रचनाएँ। इन्हीं द्वितीय श्रेणी की रचनाओं में वीरगाथात्मक ग्रन्थों की बहुलता को लक्ष्य कर आचार्य शुक्ल ने इस काल को “वीरगाथाकाल” कहा। परंतु ये समस्त रचनाएँ या तो अप्रामाणिक और प्रदोषयुक्त हैं या परवर्ती काल की हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि “खुमानरासो”, “बीसलदेवरासो” और “विजयपालरासो” परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं। “जयचंदप्रकाश”, “जयमयंक जसचन्द्रिका” और “हम्मीर रासो” अप्राप्य रचनाएँ हैं। “पृथ्वीराजरासो” और “परमाल रासो” अप्रामाणिक ग्रंथ हैं। ऐसी स्थिति में एकमात्र विद्यापतिकृत “कीर्तिलता” और “कीर्तिपताका” में ही कोई प्रक्षेप नहीं हो सका है और उसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता शुद्ध है। इस प्रकार आदिकाल के सामाग्री-संचय के पश्चात विद्यापति ही सर्वाधिक प्रामाणिक कवि ठहरते हैं।

भक्तिकाल का साहित्य अपने आराध्य के चरणों पर श्रद्धा के सुमन समर्पित करता रहा है। वंदना, विनय एवं आत्मदोष-दर्शन के पद राम एवं कृष्णभक्ति शाखा के कवियों में अनायास मिलते हैं। इस प्रवृत्ति का प्रारंभ विद्यापति से ही होता है। विद्यापति के “माधव हम परिनाम निरासा” वाले पद में वही आत्मग्लानि, दीनता एवं विह्वलता है, जो तुलसी के “अबलौं नसानी अब न नसैहौं” में है। शिव की नचारियों और गंगा, दुर्गा आदि की स्तुतियों का भावपक्ष भक्तिकाल की पूर्वपीठिका की तरह है। इस तरह विद्यापति भक्तिकाल की भावभूमि के पुरोधा कवि सिद्ध होते हैं।

काव्याभिव्यक्ति के लिए, हिन्दी में, विद्यापति ने ही सर्वप्रथम राधा-कृष्ण के आलंबन का अवलंब लिया, जिसको लेकर हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक रचनाएँ हुईं। परंतु विद्यापति के कृष्ण प्रधानत: शृंगार के ही आलंबन हैं, जिसका सीधा प्रभाव रीतिकाल पर पड़ा। भक्तिकालीन सूर आदि भक्त कवियों ने शृंगार के अतिरिक्त विनय, बाल लीला आदि प्रसंगों की भी उद्भावना की है, जिसका स्रोत विद्यापति में नहीं है। लेकिन आलंबन-स्वीकृति के अतिरिक्त उक्ति-ग्रहण की प्रवृत्ति सूर के काव्य में अनेकत्र मिलती है। विलंब तक स्नान करने के कारण आरक्त नयनों वाली बाला का यह चित्रण दोनों में समान मिलता है -

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कवि-कुल शिरोमणि ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित’ कालिदास संस्कृत वाङ्ग्मय के ही नहीं, भारतीय मनीषा के भी सर्वश्रेष्ठ निदर्शन हैं। वर्षा-काल में अनायास फूट पड़े निर्झरों की ...

नीरे निरंजन लोचन राता सिंदुर मंडित जनु पंकज पाता।

राधा के रूप-चित्रण में दोनों में ही समान रूप से अतिशयोक्ति अलंकार की योजना मिलती है। विद्यापति की पंक्ति है -

पल्लवराज चरण युग शोभित, गति गजराजक माने। कनक कदली पर सिंह समारल थापर मेरु समाने॥

ये ही अप्रस्तुत सूर के पद में भी हैं -

जुगल कमल पर गजवर क्रीड़त तापर सिंह करत अनुराग।

इस प्रकार विद्यापति से भाव-साम्य की कितनी ही पंक्तियाँ सूर-काव्य से उद्धृत की जा सकती हैं।

केवल सूर और तुलसी पर ही नहीं, बल्कि सूफी कवि मालिक मोहम्मद जायसी पर भी विद्यापति का प्रभाव झलकता है। जायसी के पद्मावत में भी सौन्दर्य और प्रेम का सुंदर चित्रण हुआ है, अंतर केवल यह है कि विद्यापति की नायिका जहाँ लौकिक अधिक है, वहाँ पद्मावती का चित्र आध्यात्मिक अधिक है। लेकिन अध्यात्म की कूची से रचित पद्मावती के नख-शिख वर्णन में भावों का वही साम्य दिखाई पड़ता है, जो विद्यापति के नख-शिख वर्णन में है।

इस प्रकार भक्तिकाल की सगुण भक्ति के साथ सूफी काव्य की भावभूमि भी विद्यापति की काव्य-धारा से सिंचित हुई है।

विद्यापति रीतिकालीन शृंगार-भावना के भी आदि पुरोहित है। यदि भक्तिकाल ने विद्यापति से आलंबन शैली-विधि और वर्णन शैली-विधि प्राप्त की है तो रीतिकाल ने वर्ण्य विषय को अपनाया। हिन्दी में राधा को सबसे पहले शृंगार का लहंगा पहनाकर विद्यापति ने ही रीतिकालीन कवियों के लिए राधा की शृंगारिकता के द्वार खोल दिये। हिन्दी में वह विद्यापति ही हैं, जिनके काव्य में कृष्ण लौकिक नायक के रूप में अवतीर्ण हुए। उसी का अनुवर्तन रीतिकालीन कवियों ने शृंगार पिपासा की तुष्टि के लिए किया।

आलंबन और वर्ण्य ही नहीं, रीतिकालीन भाव और अभिव्यक्ति पर भी विद्यापति की स्पष्ट छाप है। जिस प्रकार विद्यापति का सौन्दर्य “तिले-तिले नूतन होए” है, ठीक उसी प्रकार घनानन्द भी कहते हैं - “नयो-नयो लागत, ज्यों-ज्यों निहारिए।मतिराम ने भी सौन्दर्य की प्रतिक्षन नूतनता का कथन किया है - “ज्यों-ज्यों निहारिए मेरे ह्वै नैननि, त्यों-त्यों खरी निखरै सी निकाई।जिस प्रकार विद्यापति ने वय:संधि का चित्रण किया है -सैसव जौवन दुहुँ मिली गेल।”, उसी प्रकार बिहारी भी कहते हैं - “छुटी न सिसुता की झलक,झलक्यो जोवन अंग।” विद्यापति की नायिका ने अपने सौन्दर्य-निर्माण में जिससे जो लिया था, लौटा दिया है -

सरदक ससधर मुख रुचि सौंपलक हरिण के लोचन लीला। केसपास किसलय चमरीक सोपलक पाये मनोभव पीला॥

देव की नायिका की भी यही दशा है -

सांसन ही सो समीर गयो अरु आंसुन ही नव नीर गयो ढरि। तेज गयो गुण लै अपनो
अरु भूमि गई तन की तनुता करी॥

वर्ण्य, अलंकार्य और आश्रय-आलंबन की उधारी के साथ ही पिपासु शृंगारिकता का ऐंद्रिय दर्शन, रीतिकाल के पूर्व और हिन्दी में पहली बार, विद्यापति पदावली में ही प्रकट होता है। ऐंद्रिकता की इस सरिता में पूरा रीतिकाल उत्प्लावित होता रहा है।

विद्यापति हिन्दी गीत काव्य के भी आदि पुरुष हैं। विद्यापति के पूर्व हिन्दी गीत काव्य का रूप चारणों के प्रशस्तिमूलक वीर गीतों तथा नाथों-सिद्धों के साधनात्मक काव्यों में दिखाई पड़ता है। लेकिन गीत, जिन कोमल हार्दिक अनुभूतियों के कारण गीत बनाता है, उसका सर्वथा अभाव उन वीरगाथात्मक और साधनात्मक काव्यों में दिखाता है। इसलिए विद्यापति के पूर्व की उस परंपरा का प्रभाव परवर्ती गीतों पर नहीं पड़ा। प्रेम, सौन्दर्य और माधुर्य के कवि “अभिनव जयदेव” विद्यापति ने ही सर्वप्रथम हिन्दी गीतकाव्य को मानवीय रागात्मकता का मादक एवं रंगीन संस्पर्श और हृदय की अनुभूतियों को संगीतमयी कोमलकान्त पदावली का परिधान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त भक्तिकालीन आधिकांश काव्य पद शैली में हैं। इस मुक्तक काव्य के प्रवृत्ति-प्रचालन का प्रारंभ विद्यापति से ही होता है।

हिन्दी नाट्य-परंपरा में भी विद्यापति का महत्व अविस्मरणीय है। वैसे तो हिन्दी नाटकों का अभ्युदय उन्नीसवीं शताब्दी की घटना है, परंतु, परंपरा की दृष्टि से, नाटकीय तत्वों से युक्त “गोरक्षविजय” पर ही सर्वप्रथम दृष्टि जाती है। हिन्दी नाटक के शोधक अध्येता डॉ. दशरथ ओझा ने “रास और रसान्वयी काव्य” में लिखा है - “नाटकीय तत्वों से युक्त सर्वप्रथम हिन्दी में मागधी (मैथिली) नाटक का पता चलता है। विद्यापति लिखित “गोरक्षविजय” में संस्कृत गद्य और मागधी पद्य के दर्शन होते हैं।”

इस तरह हिन्दी-साहित्य-परंपरा में विद्यापति, प्रामाणिकता और प्रवृत्ति की दृष्टि से, उत्स पर विराजमान हैं। “कीर्तिलता” के वीरकाव्य, पदावली के कृष्णभक्ति काव्य एवं रीतिशास्त्रीय पांडित्य और शृंगार-दर्शन को उपस्थापित करनेवाले विद्यापति में हिन्दी साहित्य के आदिकाल से उत्तर मध्यकाल तक की सारी विशेषताएँ एक साथ मिल जाती हैं। वस्तुत: विद्यापति का संपूर्ण व्यक्तित्व उस बांध की भाँति है, जो परंपरा-स्रोत के एकत्र जल को आगामी वसुंधरा के सिंचन के लिए उन्मुक्त कर देता है।

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