उच्च शिक्षा के लिए बिहार से छात्रों का पलायन : कारण एवं समाधान

डॉ. नीरज कुमार     7 minute read         

यह आलेख बिहार से बाहर अध्ययन कर रहे छात्रों के वस्तुगत परीक्षण पर आधारित है। इस अध्ययन में न केवल इस बात की पड़ताल की गई है कि उच्च शिक्षा के लिए पलायित बिहारी छात्रों में बिहार की उच्च शिक्षा के प्रति क्या अवधारणा है, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को भी खंगाला गया है तथा जर्जर संरचनात्मक अवस्था की भी समीक्षा की गयी है। बिहार में उच्चतर शैक्षणिक व्यवस्था की स्थिति को समझने के लिए यह आलेख आवश्यक है

बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित सामाजिक, आर्थिक एवं जातीय सर्वेक्षण दिखाता है कि बिहार शिक्षा के क्षेत्र में, ख़ासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, कितना पिछड़ा हुआ है। इसके बावजूद बिहार के नीति निर्माताओं ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐसा निर्णय लिया है, जो इसे जग-हँसाई का पात्र बनाता है क्योंकि इस निर्णय के अनुसार अब बिहार के कॉलेज में अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति निजी कंपनी के माध्यम से होगी। इसके लिए जिन चार कंपनियों का चयन किया गया है, उन कंपनियों के पास शिक्षा के क्षेत्र में ना तो कोई काम करने का अनुभव है और ना ही इस क्षेत्र में उनकी कोई साख है। जैसे, जिस कंपनी का पत्र पिछले दिनों सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, उसने अपने पत्र में ‘महाविद्यालय’ को ‘विश्वविद्यालय’ कहकर सम्बोधित किया था एवं ‘विश्वासभाजन’ की जगह ‘विश्वासभाजक’। एक दूसरी कंपनी है, जो विद्यालय में साफ -सफाई करने का काम करती रहती है। यानि, बिहार में उच्च शिक्षा का भविष्य अब कंपनियों और उसमें भी ग़ैर शैक्षिक कंपनियों के द्वारा निर्धारित किया जाएगा। वर्तमान सरकार ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि बिहार में कुल शिक्षित लोगों में 93% अंडर ग्रेजुएट हैँ। यहाँ की कुल आबादी का मात्र 0.58% के पास आई. टी. आई. की डिग्री, 0.30% इंजीनियर, 0.06% मेडिकल, 0.82%, पोस्ट ग्रेजुएट, 0.07% डॉक्टरेट एवं चार्टर अकाउंट के साथ 6.11 के पास स्नातक की डिग्री है। अब सवाल उठता है कि उच्च शिक्षा की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? दूसरी ओर, क्या इसी दयनीय स्थिति के कारण बिहार से अधिकतर छात्र बिहार से बाहर उच्च शिक्षा के लिए पलायन तो नहीं करते हैँ?

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अगर देखा जाय तो बिहार से प्रतिवर्ष 70 से 80 हज़ार छात्र इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की कोचिंग के लिए कोटा एवं 20 से 25 हज़ार छात्र सिविल सर्विसेज की कोचिंग के लिए दिल्ली के मुख़र्जी नगर में रहते है। एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि बिहार से प्रति वर्ष 2 हज़ार करोड़ रुपया उच्च शिक्षा के नाम पर बिहार से बाहर जाता है। 2007 से लेकर 2017 तक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में पी.एच. डी. में नामांकन से पहले मैंने भी देश के विभिन्न शहरों में रहकर पढ़ाई की है। सिविल सर्विस के लिए दिल्ली, पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए पोंडिचेरी एवं एम. फ़िल के दौरान पंजाब में रह चुका हूँ। हर जगह पर मैंने यही पाया कि हमसे पहले, हमारे साथ एवं हमारे बाद भी बिहार के कई छात्र यहाँ पर हैं। यानि, देश के विभिन्न क्षेत्रों में आज बिहार के छात्र पढ़ाई के लिए भटक रहें हैँ। यही वह मूल बिंदु है, जिसने मुझे यह सोचने पर विवश किया कि उन कारणों की पड़ताल की जाय। क्योंकि, देहरादून प्रवास के दौरान मुझे ऐसे हज़ारों छात्र मिलें हैं, जो यहाँ रहकर विभिन्न विषयों में पढ़ाई कर रहें हैं, जैसे लॉ, पारा मेडिकल, बी.टेक, मैनेजमेंट, कृषि विज्ञान एवं बैचलर इन बिज़नेस। इन छात्रों ने शहर के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अपना नामांकन करवा रखा है। इनका जीवन स्तर पूरी तरह से, अगर अपवादों को छोड़ दिया जाय तो, बाजार के हवाले है। इस आलेख में हमने इन्हीं छात्रों से इंटरव्यू लेकर ये जानना चाहा कि ये बिहार से पलायन क्यों किए? इनकी आय का मुख्य स्त्रोत क्या है?

इस अध्ययन के दौरान लगभग 100 छात्रों से मुलाक़ात की। ये छात्र विभिन्न पहचान ग्रुप एवं विभिन्न वर्गों से ताल्लुकात रखते हैँ। ये अपनी पहचान को सार्वजनिक करना नहीं चाहते हैं। इन छात्रों में 68% लड़के एवं 32% लड़कियां है, जिसमें 47% सामान्य वर्ग, 41% पिछड़ा वर्ग, 9% अनुसूचित जाति एवं 3% अनुसूचित जनजाति वर्ग से हैं। इन छात्रों के अभिभावक के अगर पेशों को देखा जाय तो 33% किसान, 38% सरकारी नौकरी, 19% के पास अपना व्यापार एवं 10 % निजी क्षेत्र में नौकरी करने वाले परिवार से आते हैँ, जिनकी पारिवारिक आय का स्तर डेढ़ लाख से लेकर 5 लाख से ज्यादा तक है। मसलन 27% छात्रों के परिवार की आय 1.5 लाख से कम, 1.5 लाख से 3 लाख तक 31%, 3 लाख से 5 लाख के बीच 31% एवं 5 लाख से ज्यादा 11% है। इनके अभिभावक के शैक्षणिक स्तर को अगर देखा जाय तो इसमें 15 % अशिक्षित, 23% मैट्रिक, 25% अंतरस्नातक, 19% स्नातक एवं 18 % पोस्ट ग्रेजुएट हैं।

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बिहार की शैक्षणिक व्यवस्था के प्रति इन छात्रों की धारणा बेहद ही चिंताजनक है क्योंकि, कोई भी छात्र इस बात से सहमत नहीं दिखा कि बिहार में उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर है। इनमें 51% छात्रों का मानना है कि बिहार में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बेहद ख़राब है। वहीं 29% छात्रों का मानना है कि वहाँ शिक्षा का स्तर ख़राब है। जबकि 14% औसत एवं 6% इसे अच्छा मानते हैं। इन छात्रों का मानना है कि बिहार की शैक्षिक ही वह कारण है, जिससे ये लोग बिहार से बाहर शिक्षा के लिए रुख करते हैं। इन छात्र समूहों में 53 % छात्रों का मानना है कि उच्च शिक्षा में सुविधाओं की कमी के कारण ये लोग बिहार से निकले हैं। 23% का मानना है कि बेहतर विकल्प की तलाश में, 28% छात्रों का कहना है कि नौकरी की आशा में एवं 9% अपने दोस्तों के प्रभाव में बिहार से बाहर शिक्षा के लिए आए हैं। इन छात्रों में 39 % छात्र अपने परिवार की नियमित आय से यहाँ रह के पढ़ रहें हैं, जबकि 40% छात्रों ने कर्ज लेकर कॉलेज में फीस जमा की है। किसी ने यह करज बैंक से लिया है, किसी के परिवार ने अपने सगे-सम्बंधियों से तो किसी का परिवार सूद पर कर्ज लेकर पैसा भेज रहा है। 8% छात्र के परिवार उन्हें पढ़ाने के लिए अपनी संपत्ति बेचे हैं, जिसमें ज़ेवर एवं खेत मुख्यतः शामिल हैं। मात्र 3% छात्र ही छात्रवृत्ति से यहाँ रह कर अध्ययन कर रहें हैं।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अगर बिहार में उच्च शिक्षा की स्थिति का अध्ययन किया तो निश्चय ही इन छात्रों की धारणाएँ सत्य प्रतीत होता है। बिहार में ऐसा ही सदा से नहीं रहा है। बिहार में उच्च शिक्षा की स्थिति आधुनिक बिहार के अस्तित्व में आने से ही दयनीय रही है। प्राचीन काल से ही बिहार उच्च शिक्षा का केंद्र रहा है। यहाँ पर नालंदा, विक्रमशिला एवं उदंतपुरी जैसे अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थान रहे हैं, जहाँ पर दक्षिण पूर्वी एशिया एवं मध्य एशिया से लोग आकर अध्ययन किया करते थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों से आर्यभट्ट एवं वराहमिहिर पढ़ के निकले थे। इन विश्वविद्यालयों का निर्माण राज्य के संरक्षण में ही हुआ एवं इन्हें वित्तीय संसाधन भी राज्य के द्वारा ही प्राप्त होता था। 17वीं शताब्दी में भी बिहार में कई शिक्षण संस्थान ऐसे थे, जहाँ पर लोग संस्कृत चतुष्पदी का एवं मदरसों में उच्च शिक्षा का अध्ययन करते थे। अंग्रेज विद्वान फ्रांसिस बुकनान का मानना है कि “दरभंगा महराज ने शिक्षा के लिए अपने क्षेत्र बेहतरीन कार्य किए हैं एवं ब्राह्मणों के लिए उचित प्रबंध किए हुए हैं।” वहीं 1837-38 में एडम्स का मानना था कि “बिहार की शैक्षणिक व्यवस्था बहुत ही विकसित है, हर गाँव में आपको एक विद्यालय मिल जाएगा।” आजादी के बाद डेढ़ दशक तक बिहार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देश अग्रणी राज्य रहा है। लेकिन, 1960 के मध्य दशक के बाद बिहार की उच्च शिक्षा में गिरावट आना शुरू हुआ, जिसका एक मात्र कारण शैक्षणिक संस्थानों का राजनीतिककरण रहा है। 1990 के बाद बिहार के शैक्षणिक केंद्र का अपराधीकरण हो गया। परिणामतः आज उच्च शिक्षा की स्थिति बिहार में दयनीय हो गयी है। भले ही बिहार में आज तीन केंद्रीय विश्वविद्यालय, एक प्रस्तावित यानि चार एवं दो ऐम्स, एक आई. आई. टी., एक एन. आई. टी एवं पाँच निजी विश्वविद्यालय हों। लेकिन आज भी अगर सकल नामांकन अनुपात देखें तो यह मात्र 15% के आस पास है। यहाँ पर एक भी ऐसा शैक्षणिक संस्थान नहीं है, जिसे इंस्टिट्यूट ऑफ़ एक्सीलेंट माना जाय। केवल 13 ऐसे कॉलेज हैं, जिन्हें नैक का एक्रेडियेशन प्राप्त है। एक लाख लोगों पर मात्र छह कॉलेज हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर एक लाख की आबादी पर 26 कॉलेज हैं। यहाँ छात्र एवं प्रोफेसर का अनुपात 39:1 का है एवं प्रति व्यक्ति उच्च शिक्षा पर खर्च मात्र 1221 रुपया है। इसके अलावे विश्वविद्यालय में आधारभुत संरचनाओं की घोर कमी है, जैसे लैब, पुस्तकालय, पुस्तक एवं प्रोफेसर। कई ऐसे कॉलेज हैं, जहाँ मात्र एक नियमित प्रोफेसर हैं। तो ऐसे में कैसे शोध हो सकता है?

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निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि बिहार के छात्र मज़बूरी में बिहार से बाहर की ओर उच्च शिक्षा के लिए पलायन कर रहें हैं। अगर उनकी जरूरतों को वहीं पर पूरा किया जाय तो ये छात्र बिहार में ही रह कर अध्ययन कर सकते हैं। इसके लिए नीति निर्माता को एक दृष्टिकोण अपनाना होगा कि कैसे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता का सुधार करते हुए बिहार की मानव पूँजी को बिहार में विकास के लिए उपयोग में लाया जा सके।

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