हिंदी के स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में मार्क्सवाद

Dr. Anil Kumar Roy     6 minute read         

मार्क्सवादी उपन्यासों में वस्तु-तत्व की प्रमुखता के बावजूद रूप-तत्व की भी सापेक्षिक सक्रियता स्वीकृत हुई है। इन उपन्यासकारों ने कला-मूल्यों एवं जीवन-मूल्यों को परस्पर असंपृक्त न मानकर एक वृहत प्रक्रिया का ही अंग माना है। इन उपन्यासों का वर्ण्य यथार्थ है।

आदर्श का अर्थ है, जैसा होना चाहिए। तिमिर की कुहेलिका में सतरंगी किरणों के स्वप्नजाल बुनना आदर्शवाद है। कल्पना के इस वायवीय उलझाव के उलट जो वास्तविक है, वह यथार्थ है। साहित्य में आदर्शवाद का स्थानापन्न ‘यथार्थवाद’ एक प्रबल साहित्यिक वाद के रूप में स्थापित है। यह ‘यथार्थवाद’ अतियथार्थवाद, मनोविश्लेषणवादी यथार्थवाद, अस्तित्ववाद, समाजवादी यथार्थवाद आदि विभिन्न रूप-विधानों में प्रस्तुत हुआ है। इसमें मार्क्सवादी दर्शन को आधार बनाकर जिन साहित्यिक कृतियों का रूपायन हुआ, उन्हें ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के नाम से अभिहित किया गया।

हिंदी उपन्यास-परंपरा के शीर्ष पुरुष प्रेमचंद के उपन्यासों में ही गांधीवादी आदर्शवाद से मार्क्सवादी यथार्थोन्मुखता मिलने लगती है। प्रेमचंद के बाद, विशेषकर स्वातंत्र्योत्तर काल में, मानवीय एवं सामाजिक सरोकारों का दायरा रखनेवाले उपन्यासकारों ने उस यथार्थ को अधिक प्रखर बोध के साथ आत्मसात् किया। तब तक मार्क्सवाद पूरी दुनिया में अपने पंख पसार चुका था और पीड़ित-दलित अधिसंख्यक अवाम को उसमें अपने उद्धार की संभावना दिखाई पड़ने लगी थी। इसलिए मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव को ग्रहण करना जिस प्रकार तदयुगीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों की बाध्यता थी, उसी प्रकार आदर्श के घुंघराले कुंतलों की स्वप्निल छाया से मुँह मोड़कर सामाजिक यथार्थ के खुरदुरे हाथों को थाम लेना साहित्यिक विवशता भी थी।

स्वातंत्र्योत्तर काल में सामाजिक संदर्भों के उपन्यास दो रूपों में उपस्थित हुए - समाजवादी और सामाजिक यथार्थवादी। समाजवादी वे उपन्यास हैं, मार्क्सवादी सिद्धांतों के तानों से जिनका पट बुना गया है। इनमें मार्क्सीय सिद्धांतों के रूपायन के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता प्रतिफलित होती है। परंतु सामाजिक यथार्थवादी उपन्यासों में सिद्धांतों की प्रतिबद्धता के बदले दृष्टिगत प्रभाव परिलक्षित होता है। प्रथम कोटि के उपन्यासकारों में यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, अमृत राय, भैरवप्रसाद गुप्त, नागार्जुन, कमल शुक्ल, मन्मथनाथ गुप्त, विश्वंभर उपाध्याय, मनहर चौहान, काशीनाथ सिंह प्रभृति उपन्यासकार हैं। सामाजिक यथार्थवादी उपन्यासकारों में भगवतीचरण वर्मा, लक्षमीनारायण लाल, विश्वनभरनाथ कौशिक, अमृतलाल नागर, प्रभाकर माचवे, राजेंद्र यादव, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, श्रीलाल शुक्ल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

मार्क्सवादी उपन्यासों की सैद्धांतिक समझ वर्ग-संघर्ष और ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ है। इन उपन्यासों में सामाजिक द्वंद्व या संघर्ष का चित्रण हुआ है। स्वातंत्र्योत्तर भारत इनकी पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर रहा था। स्वतंत्रता के बाद समाजवादी समाज-व्यवस्था का लक्ष्य रखा गया। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए देश को सामंती, पूँजीवादी और समाजवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों की जटिल परिस्थितियों से जिस प्रकार संघर्षरत होना पड़ा, उसी प्रकार नवीन जीवन-मूल्यों को अपनाने में हिचकने वाली सदियों पुरानी मान्यताओं से भी संघर्ष करना पड़ा। इसके साथ ही नए संविधान, नए नियम एवं नयी योजनाओं के कार्यान्वयन में एक ओर तो ग़ुलामी में पली संस्कृति ही बाधक होने लगी, दूसरी ओर अवसरवादियों एवं प्रतिक्रियावादियों के भ्रष्टाचार भी बने रहे। भारतीय समाज के इस नए द्वंद्व को उजागर करने वाले उपन्यासों के दो श्रेणी-विभाग हो सकते हैं - प्रथम में ऐसे उपन्यास हैं, जिनमें परंपरा की प्रबल अवरोधक शक्तियों से संघर्ष करते हुए जीवन का अग्रसर होना दिखाया गया है। अमृतराय का ‘बीज’, ‘अश्क़’ का ‘गिरती दीवारें’, ‘अंचल’ का ‘चढ़ती धूप’ तथा ‘उल्का’, अमृतलाल नागर का ‘बूँद और समुद्र’ तथा यशपाल के सभी उपन्यास ऐसे हैं। द्वितीय श्रेणी के उपन्यासों में विकास के लिए प्रयत्नशील समाज का गत्यवरोध करनेवाली प्रतिक्रियात्मक शक्तियों को प्रदर्शित किया गया है। नागार्जुन का ‘दुखमोचन’, रांगेय राघव का ‘सीधा-सादा रास्ता’ तथा ‘रेणु’ के उपन्यास इसी श्रेणी में हैं।

भारत का स्वातंत्र्योत्तर काल ढहती हुई सामंती व्यवस्था और विकासशील पूँजीवादी व्यवस्था का काल है। इसलिए इस काल के उपन्यासों में सामंती और पूँजीवादी शोषण तथा किसानों-मज़दूरों का संघर्ष भी वर्णित हुआ है। रांगेय राघव के ‘विषाद मठ’, अमृतलाल नागर के ‘महाकाल’, राहुल सांकृत्यायन के ‘जीने के लिए’, अमृतराय के ‘बीज’, ‘हाथी के दाँत’, भैरवप्रसाद गुप्त के ‘सती मैया का चौरा’, नागार्जुन के ‘बलचनमा’ में ज़मींदारी प्रथा के शोषण को उजागर किया गया है। पूँजीपतियों के शोषण की विवेचना यशपाल के ‘मनुष्य के रूप’, मन्मथनाथ गुप्त के ‘अवसान’ में है।

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इन दोनों प्रकार के शोषणों के विरुद्ध वर्ग-संघर्ष एवं उसकी चेतना का भी ज़िक्र मार्क्सवादी उपन्यासों में हुआ है। नागार्जुन ने ‘बलचनमा’ और ‘बटेसरनाथ’ में तथा भैरवप्रसाद गुप्त ने ‘गंगा मैया’ और ‘सती मैया का चौरा’ में आर्थिक वैषम्य के शिकार कृषक वर्ग के करुण वृत्त के माध्यम से सर्वहारा वर्ग के श्रेणी-संघर्ष की भूमिका को रेखांकित किया है। यशपाल ने ‘दादा कामरेड’, ‘देशद्रोही’, ‘झूठा-सच’ में, ‘अंचल’ ने ‘चढ़ती धूप’ में, भैरवप्रसाद गुप्त ने ‘मशाल’ में, राजेंद्र यादव ने ‘उखड़े हुए लोग’ में मज़दूर-संघर्ष का विस्तृत विवेचन किया है।

स्वतंत्रता के बाद भी नौकरशाही शोषण में विशेष अंतर नहीं आया। सरकारी वर्ग के छोटे-बड़े सभी पुर्ज़े नोचने-खसोटने से नहीं चूकते। यशपाल के ‘झूठा-सच’, भैरवप्रसाद गुप्त के ‘ज़ंजीरें और ‘नया आदमी’ में नौकरशाही शोषण-वृत्ति का उद्घाटन है।

मार्क्सवादी सिद्धांतों के अनुरूप ही इस कोटि के उपन्यासों में ईश्वर और धर्म को शोषण के औज़ार के रूप में वर्णित किया गया है। पुनर्जन्म एवं परलोकवाद भी धार्मिक शोषण को बनाए रखने के सशक्त साधन हैं। प्रायः सभी मार्क्सवादी उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में यथाप्रसंग इसका विरोध किया है।

Karl Marx
Karl Marx

मार्क्सवाद के राजनीतिक दर्शन होने के कारण हिंदी के मार्क्सवादी उपन्यासों में भी राजनीतिक तत्व आए हैं। इनमें स्वाधीनता आंदोलन के विभिन्न पक्षों के चित्र मिलते हैं। गांधीवाद इनका विरोधी दर्शन और कांग्रेस विरोधी पार्टी है। यशपाल ने ‘झूठा-सच’ में, रांगेय राघव ने ‘हुज़ूर’ में, अमृतराय ने ‘हाथी के दाँत’ और ‘बीज’ में, नागार्जुन ने ‘बलचनमा’ में और भैरवप्रसाद गुप्त ने ‘सती मैया का चौरा’ में कांग्रेसी नीतियों की जमकर आलोचना की है।

मार्क्सवाद नारी को भी शोषित मानता है। समाजवादी उपन्यासकारों ने भी उसे शोषित मानकर नवीन प्रगतिशील चेतना के द्वारा जागृत करने का प्रयास किया है। ‘अंचल’ ने ‘चढ़ती धूप’ में नारी-स्वतंत्रता की वकालत की और यशपाल ने ‘दिव्या’ में समानाधिकार एवं परस्पर सहयोग को स्वीकृति दी। ‘दादा कामरेड’ तथा ‘मनुष्य के रूप’ में विवाह की परंपरागत धारणा को तोड़ा गया है। अमृतलाल नागर के ‘बूँद और समुद्र’, रांगेय राघव के ‘घरौंदे’ आदि उपन्यासों में नारी-मुक्ति के लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता की आवश्यकता बतायी गयी है। इसके अतिरिक्त नारी-जीवन से संबंधित अन्य समस्याएँ भी यथास्थान उद्घाटित हुई हैं।

इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि, जिसे ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा गया, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी साहित्य-चिंतन का आधार है। इस ऐतिहासिक भौतिकवाद से प्रेरित उपन्यासकारों ने उस ऐतिहासिक यथार्थ को ग्रहण किया, जिसमें घटनाओं और तिथियों की आवर्तक सत्यता के बदले तद्युगीन पारिस्थितिक सत्य को उजागर किया जाता है। इस श्रेणी के उपन्यासों में यशपाल की ‘दिव्या’, ‘अमिता’; राहुल सांकृत्यायन के ‘दिवोदास’, ‘जय यौधेय’, ‘सिंह सेनापति’, ‘मधुर स्वप्न’, ‘विस्मृत यात्री’; रंगेय राघव के ‘मुर्दों का टीला’, ‘पक्षी और आकाश’ राजीव सक्सेना के ‘पणिपुत्री सोमा’ आदि अनेक उपन्यास हैं।

मार्क्सवादी उपन्यासों में वस्तु-तत्व की प्रमुखता के बावजूद रूप-तत्व की भी सापेक्षिक सक्रियता स्वीकृत हुई है। इन उपन्यासकारों ने कला-मूल्यों एवं जीवन-मूल्यों को परस्पर असंपृक्त न मानकर एक वृहत प्रक्रिया का ही अंग माना है। इन उपन्यासों का वर्ण्य यथार्थ है। अतः इनमें कल्पनाशीलता की अल्पता मिलती है और वह केवल आकर्षण-वृद्धि का उपाय भर है। कथावस्तु सदैव सिद्धांत-प्रेरित एवं सोद्देश्य रही है। लेखकों के द्वारा स्वयं सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से निकट संबंध रखने के कारण वातावरण की जीवंतता एवं कथावस्तु में राजनीति का समावेश प्रचुर परिमाण में हुआ है। जन-जीवन से नैकट्य के कारण इन समाजवादी उपन्यासकारों के द्वारा ही क्षेत्रीय सामाजिक-राजनीतिक संस्पर्श वाले आंचलिक उपन्यास रचे गए।

इस प्रकार देखते हैं कि स्वातंत्र्योत्तर काल के मार्क्सवादी उपन्यास जन-जीवन की आशाओं-आकांक्षाओं, हताशा-निराशा की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं। यही कारण है कि प्रेमचंद के बाद ये समाजवादी उपन्यासकार ही समाज में सर्वाधिक समादृत हुए।

(यह आलेख आकाशवाणी पटना से दिनांक 6 अप्रील, 1997 को प्रसारित हुआ था।)

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