भारतीय भाषा नीति 2020 पर टिप्पणियाँ

प्रोफेसर जोगा सिंह     16 minute read         

राशिनी-पत्र आधारभूत स्तर की शिक्षा मातृभाषा में होने के लाभ तो बताता है, पर साथ ही “जहाँ संभव हो” का फन्दा टाँग देता है। हम जानते ही हैं कि 1947 से लेकर अब तक शिक्षा-नीति के बारे में प्रत्येक आयोग और समिति ने मातृभाषा माध्यम की सिफारिश की है। इन सिफारिशों का इतना ही लाभ हुआ है कि प्रत्येक सिफारिश के बाद अंग्रेजी माध्यम और बढ़ जाता रहा है।

राशिनी-पत्र आधारभूत स्तर की शिक्षा मातृभाषा में होने के लाभ तो बताता है, पर साथ ही "जहाँ संभव हो" का फन्दा टाँग देता है। हम जानते ही हैं कि 1947 से लेकर अब तक शिक्षा-नीति के बारे में प्रत्येक आयोग और समिति ने मातृभाषा माध्यम की सिफारिश की है। इन सिफारिशों का इतना ही लाभ हुआ है कि प्रत्येक सिफारिश के बाद अंग्रेजी माध्यम और बढ़ जाता रहा है।

I. नीति-पत्र में दर्ज भाषा बिन्दु और कुछ टिप्पणियाँ :

  1. संघीय मंत्रिमंडल की ओर से स्वीकृत ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ (राशिनी) के अनुसार बच्चे तीन साल की उम्र से पाठशाला जाएँगे और पहले दिन से तीन भाषाएँ पढ़ेंगे। ‘जहाँ संभव हो’ (जी हाँ! जहाँ संभव हो), परिवार की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा माध्यम होगी। दूसरी दो का नाम नहीं दिया गया। पर मंडी और देसी-अंग्रेजी धाड़वी पक्का प्रबंध करेंगे कि ये दो भाषाएँ अंग्रेजी और हिन्दी या संस्कृत हों। पहले जारी किया गया 485 पन्नों का प्रस्ताव-पत्र (प्रप) इस अंधेरे पक्ष पर प्रकाश डालता है। इस प्रस्ताव में दर्ज था कि हिन्दी क्षेत्र के लिए ये भाषाएँ होंगी : हिन्दी (माध्यम के तौर पर, ‘जहाँ संभव हो’), अंग्रेजी और 22 अनुसूचित भाषाओं में से कोई एक भारतीय भाषा; अहिंदी क्षेत्र के लिए तीन भाषाएँ होंगी : परिवार/स्थानीय (माध्यम के तौर पर, ‘जहाँ संभव हो सके’), अंग्रेजी, और कोई आधुनिक भारतीय भाषा। भूल मत जाएँ कि राशिनी में संस्कृत को ‘महत्वपूर्ण आधुनिक भारतीय भाषा’ बना दिया गया है। तो नन्हें-मुन्ने भारत के सिपाही के हल्के बस्ते में तीन साल का होते ही, आंगनबाड़ी में जाने के पहले दिन से ही, तीन भाषाओं की पुस्तकें रखी होंगी। भारत इससे पक्का विश्वगुरु बन जाएगा, क्योंकि पढ़ाई में सफल कोई भी देश ऐसा करता नहीं है।
  2. ‘जहाँ संभव हो’ (जी हाँ, जहाँ संभव हो), पाँचवीं कक्षा तक (‘अच्छा हो कि आठवीं तक’) परिवार की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा शिक्षा का माध्यम होगी। जो विद्यार्थी मातृभाषा में पढ़ेंगे, वे छठी से विज्ञान दो भाषाओं में पढ़ेंगे। दूसरी भाषा अंग्रेजी है। कृपया ‘जहाँ संभव हो’ को पक्की स्याही से लिख लें। खैर, मैं आपको बता ही देता हूँ कि क्या संभव है। मंडी की स्वयं बनाई परिस्थितियाँ, सभी औपचारिक क्षेत्रों की स्वयं बनाई भाषा, शिक्षा का स्वयं बनाया माध्यम, भारतीय नवाबशाही (इलीट) के पहले प्यार की भाषा (हिन्दी फिल्मों में सभी पात्र अपने पहले प्यार को ‘आई लव यू’ कहते हैं; ‘मुझे तुमसे प्रेम है’, कोई नहीं कहता), भारतीय छोटी-बड़ी बाबूशाही और बड़ी-छोटी राजाशाही की जानकारी का वास्तविक स्तर, और सर्वोच्च न्यायालय का कर्नाटक सरकार के खिलाफ दिया हुआ निर्णय पक्का करेंगे कि भारतीय नागरिक कुछ अद्वितीय बदलों में से एक बदल चुनने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हों। ये अद्वितीय बदल हैं अंग्रेजी, अंग्रेजी, अंग्रेजी, और दूसरे कई बदल, जो इन चार प्रिय अक्षरों को मोटा-पतला कर-कर बनाए जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का कर्नाटक के खिलाफ निर्णय यह था कि शिक्षा के माध्यम की भाषा चुनना माँ-बाप का अधिकार है; और सरकार कोई विशेष भाषा माध्यम थोप नहीं सकती।
  3. यदि कोई विद्यार्थी तीन में से एक भाषा बदलना चाहता है तो वह छठी कक्षा में ही कर सकता है (पाठशाला आने के नौवें साल में)। अंदर की बात प्रप में बाहर आ गई थी। इसमें बताया गया था कि हिन्दी क्षेत्र के लिए ये भाषाएँ होंगी : हिन्दी (माध्यम के तौर पर, ‘जहाँ संभव हो सके’), अंग्रेजी, और 22 अनुसूचित भाषाओं में से कोई एक भारतीय भाषा; अहिंदी क्षेत्र के लिए तीन भाषाएँ होंगी : परिवार/स्थानीय (माध्यम के तौर पर, ‘जहाँ संभव हो’), अंग्रेजी, और कोई आधुनिक भारतीय भाषा। भूले तो नहीं हैं कि राशिनी में अब संस्कृत ‘महत्वपूर्ण आधुनिक भारतीय भाषा’ बना दी गई है। जब पूरा विश्वास दिला दिया गया है कि विज्ञान की कल होने वाली खोज भी संस्कृत में बता दी गई है तो हिन्दी क्षेत्र के विद्यार्थी पक्का अति-‘आधुनिक भारतीय भाषा’ संस्कृत ही चुनेंगे। क्षमा करें! पंजाब सिंध गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग के बहन-भाई; विंध्य हिमाचल यमुना गंगा क्षेत्र के भारतीयों को राशिनी की तीन भाषाएँ पढ़ने की शर्त पूरी करने के लिए अत्याधुनिक भाषा संस्कृत के होते आप की पुरानी पड़ी भाषाओं की जरूरत नहीं है।
  4. देश का हर एक विद्यार्थी छठी से आठवीं कक्षा के बीच भारतीय भाषाओं के बारे में एक मस्ती (‘फन’) कोर्स करेगा। इस कोर्स में भारतीय भाषाओं की असाधारण एकता के बारे में पढ़ाया जाएगा। वैसे, आप का दिल टूटने से बचाने के लिए राशिनी में भारतीय भाषाओं की आपस में गहन विभिन्नताएँ (‘रिच डिफरेंसेस’) भी बताई गई हैं (राशिनी, 4. 6, पन्ना 14)। कोई बता सकता है तो मुझे बताने की कृपा करे कि असाधारण एकता के होते गहन विभिन्नताएँ कैसे हो जाती हैं।
  5. हर एक विद्यार्थी छठी से बारहवीं के बीच में किसी सनातन भारतीय भाषा पर दो साल का कोर्स पढ़ेगा।
  6. विद्यार्थी छठी से आठवीं के बीच में अंग्रेजी से अलग एक और विदेशी भाषा (जैसे फ्रांसीसी, जर्मन, स्पेनी, चीनी, और जापानी, आदि) पढ़ सकते हैं। यह चुनिन्दा विषय वे उच्चतर कक्षाओं में भी चलता रख सकते हैं।
  7. “संस्कृत के जरिये संस्कृत पढ़ाने के लिए और संस्कृत की पढ़ाई को आनंदमय बनाने के लिए, फ़ाउंडेशनल स्टेज और मिडल स्टेज (जी हाँ, सरकार के हिन्दी अनुवाद में फाउंडेशनल, मिडल, और स्टेज शब्दों का प्रयोग हुआ है) के लिए सरल और मानक संस्कृत में संस्कृत की पुस्तकें लिखी जा सकती हैं।“ (राशिनी, 4. 17, पन्ना 14)। याद है न कि फाउंडेशनल स्टेज बच्चे के 3 से 8 साल की उम्र है। मतलब यह हुआ कि अंग्रेजी और संस्कृत एक दूसरी का हाथ पकड़कर आंगनबाड़ी में घुस गई हैं। बताने वाली एक बात है कि संस्कृत हरियाणा और उत्तरप्रदेश आदि में बड़े सालों से पढ़ाई जा रही है। इससे प्राप्त अलौकिक विद्वत्ता प्राप्तियों का प्रचार-प्रसार करने की बहुत जरूरत है।
  8. भारतीय भाषाओं को ऊपर उठाने के लिए राशिनी में बड़ी अनूठी और बिलकुल नई विधि बताई गई है। वह यह है कि अंग्रेजी पाठ आंगनबाड़ी से शुरू हो जाएंगे और छठी से विज्ञान की पढ़ाई आवश्यक रूप से अंग्रेजी में भी होगी। भारतीय मातृभाषाओं की जय!
  9. भारत सरकार का वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग और इसकी क्षेत्रीय शाखाएँ तकनीकी शब्दावली तैयार करने और इसके मानकीकरण के लिए विद्वानों और विशेषज्ञों से तालमेल करेंगे। हिन्दी और संस्कृत के लिए यह काम राज्यों के साथ तालमेल के साथ केंद्रीय स्तर पर होगा और दूसरी भाषाओं के लिए यह काम राज्यों के स्तर पर होगा। (राज्यों के स्तर वाली बात मुझे बहुत अच्छी लगी है।)
  10. भिन्न-भिन्न भाषाओं की तकनीकी शब्दावली अधिकतम समान (‘मक्सीमली कॉमन’, संस्कृत समझिए) रखना यकीनन बनाने के लिए केंद्र और राज्यों में उचित तालमेल होगा। यदि यह तर्क मान लिया जाय तो सारे अंग्रेजी संसार के साथ अधिकतम समान शब्दावली में क्या बुराई है, जब उच्चतर कक्षाओं में विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ाना ही है। पर मैं दोनों के पक्ष में नहीं हूँ।

II. अंग्रेजी/विदेशी भाषा के बारे में उपदेशों की जाँच :

राशिनी-पत्र की निम्न टिप्पणी इस मामले में संघीय मंत्रिमंडल के विश्वास का विवरण देती है। “जैसे कि खोज स्पष्ट बताती है, 2 से 8 साल की उम्र के बीच बच्चे भाषाएँ सबसे तेजी से सीखते हैं और बहुभाषिकता के छोटी उम्र के शिक्षार्थियों के लिए बड़े ज्ञानात्मक लाभ हैं। इसलिए फाउंडेशनल स्तर से ही बच्चों को विभिन्न भाषाओं के परिवेश में डाला जाएगा। (राशिनी, 4.12, पन्ना 13)

परंतु सफल अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार और खोज इस धारणा को झुठलाते हैं। चीन के बारे में निम्न टिप्पणी अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार के बारे में बताती है : “राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के अनुसार, तीन केंद्रीय विषयों में से एक विषय के रूप में अंग्रेजी की पढ़ाई प्राथमिक तीन से होती है (मतलब बच्चे की उम्र के नौवें साल से - जोगा सिंह), लेकिन स्थानीय शिक्षा विभाग और पाठशाला इस बात के लिए स्वतंत्र हैं कि अंग्रेजी पढ़ाना कब शुरू करते हैं। बड़े शहरी क्षेत्रों में कई पाठशालाएँ अंग्रेजी पहली कक्षा से शुरू कर देती हैं; परंतु सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की पाठशालाएँ अध्यापन के स्रोत कम होने के कारण अंग्रेजी देर से शुरू करती हैं।“

“आम तौर पर, 2011 के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के अनुसार जहाँ अंग्रेजी तीसरी कक्षा से शुरू होती है, प्राथमिक पाठशालाओं में तीन केंद्रीय विषयों के लिए साप्ताहिक पाठ ऐसे होते हैं : तीसरी कक्षा से छठी कक्षा तक विद्यार्थियों को सप्ताह में तीन दिन चालीस-चालीस मिनट के लिए अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। इस की तुलना में, चीनी भाषा और गणित के विषय सप्ताह में छह-छह घंटे के लिए पढ़ाये जाते हैं। गौण विषयों, जैसे शारीरिक शिक्षा, विज्ञान और संगीत से तुलना की जाय तो अंग्रेजी को भी इतने समय के लिए ही पढ़ाया जाता है (शिक्षा मंत्रालय, 2001)। पढ़ाई के घंटों के हिसाब से अंग्रेजी गौण विषय है।“

मुझे लगता है कि पूरा भारत यह समझता है कि चीन तो अंग्रेजी के पीछे पागल हुआ पड़ा है। इस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं है। जब हम जानते नहीं होते और न ही किसी चीज के बारे में कुछ भी जानने की जरूरत समझते हैं, तो हमें इतनी ही जानकारी होती है, जितनी चीन में अंग्रेजी की पढ़ाई के बारे में है; चाहे ‘जानकारी क्रान्ति का युग’ ही क्यों न चल रहा हो।

जहाँ तक छोटी उम्र में विदेशी भाषा सीखने के लाभ की बात है, मइट (एमआईटी, अमेरिका) की इसके बारे में खोज आँखें खोलने वाली है : “हजारों बालिगों ने जिन्होंने बीस साल की उम्र के बाद सीखना शुरू किया, उन्होंने मातृभाषा स्तर जैसे ही अंक प्राप्त किए।“ मतलब उनका स्तर मातृभाषा जैसा ही था। ()

“जिन बच्चों और बालिगों को कार्यशाला की समानान्तर सामग्री या गहन कार्यक्रम के आरंभिक महीनों में डाला गया, उन पर किए गए तुलनात्मक अध्ययन बताते हैं कि बालिगों ने बच्चों से बुरी कारगुजारी नहीं, बल्कि बेहतर कारगुजारी दिखाई ……. शायद इस कारण कि उन्होंने चैतन्य कार्यनीति का प्रयोग किया और जो वे अपनी भाषा के बारे में जानते थे उस जानकारी का प्रयोग किया।“ (वही, पन्ना 7); समानान्तर सामाग्री का मतलब यह है कि बच्चों और बालिगों को उम्र के हिसाब से एक जैसी उचित सामाग्री दी गई और गहन कार्यक्रम का मतलब डुबोने (इमर्शन) विधि है।

बीस साल से अधिक उम्र समूह के बालिग एक साल की पढ़ाई से ही व्याकरण की न माने जाने की हद तक कठिन परीक्षा में 100 में से 80-85 अंक प्राप्त करते हैं।“ (वही, पन्ना 9) यह भी बता दूँ कि 100 में से 90 अंक लेने का मतलब मातृभाषा के स्तर के अंक प्राप्त करना है।

बर्तानिया के अलैक्स राउलिंग, जो 15 भाषाएँ बोलते हैं, भाषाएँ सीखने के बारे में अपना तजुर्बा ऐसे बताते हैं : “लोग कहते हैं कि बालिग होकर सीखना बहुत कठिन होता है। मैं कहता हूँ कि आठ साल की उम्र के बाद सीखना कहीं अधिक आसान होता है। बच्चा तीन साल में भाषा सीखता है, लेकिन बालिग कुछ महीनों में सीख जाता है।“

अलैक्स भाई, कैसे समझाऊँ आपको कि हमें तो डेढ़ सौ साल में भी नहीं आई!

यह सही है कि स्वाभाविक भाषा-वातावरण में बच्चा एक ही समय में कई भाषाएँ अपने-आप सीख जाता है। पर स्वाभाविक भाषा-वातावरण और कक्षा-कक्ष के बनावटी वातावरण का बाल-भर दिखने वाला अंतर वास्तव में हिमालय पहाड़-जैसा है। इसके लिए यही प्रमाण पर्याप्त है कि भारत का पंद्रह साल अंगेजी पढे (बीए पास) विद्यार्थी का हाथ भी अंग्रेजी के हाथों तंग ही होता है; जो काम एक वर्ष में पूरा हो सकता है। इस स्वाभाविक और बनावटी वातावरण के नतीजे निम्न पन्ने से जाने जा सकते हैं। इसी पन्ने पर मइट का उपरोक्त अध्ययन भी प्राप्त है -

III. अंग्रेजी माध्यम के बारे में भ्रम :

राशिनी विज्ञान छठी कक्षा से अंग्रेजी में पढ़ाने की बात कहती है, ताकि विद्यार्थी उच्चतर कक्षाओं में विज्ञान ठीक से पढ़ लें। इससे आप राशिनी की शिक्षा-व्यवस्थाओं में उच्चतर शिक्षा में मातृभाषा के स्थान का हिसाब आसानी से लगा लेंगे। सो, अंगेजी माध्यम भ्रम अपने प्रत्येक मंत्र के साथ नीति-पत्र में विद्यमान है। पूरी दुनिया में अंग्रेजी पढ़ाने वाली बर्तानिया की सरकारी संस्था ब्रिटिश काउंसिल की निम्न टिप्पणी बता देती है कि बॉलीवुड-मातृभाषा-मसाला-चलचित्र राशिनी के सूत्रधारों की जानकारी का स्तर क्या है : “चारों ओर यह समझ फैली हुई है कि अंग्रेजी भाषा पर महारत के लिए अंग्रेजी एक विषय के रूप में पढ़ने से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना बेहतर तरीका है। पर इस समझ के लिए कोई प्रमाण हासिल नहीं है।“

ब्रिटिश काउंसिल की इसी पुस्तक में अंग्रेजी माध्यम के नुक़सानों के बारे में भी दर्ज है (पन्ना 3): “छह से आठ साल लगते हैं कि कोई बच्चा इतनी-एक अंग्रेजी सीख ले कि उसे पाठ्यक्रम में शामिल विषय-वस्तु की समझ आ सके। इतने साल लगा कर भी वह अंग्रेजी इतनी अच्छी तरह नहीं सीख सकता कि वह उच्च श्रेणियों के पाठ्यक्रम को अच्छी तरह समझ सके। जैसे कि दक्षिण एशिया और सब-सहारा अफ्रीका में होता है, निम्न प्राथमिक (लोअर प्राइमरी) या प्राथमिक सालों के तुरंत बाद अंग्रेजी माध्यम में चले जाने से अंग्रेजी में नींव इतनी कमजोर होती है कि उच्च प्राथमिक (अपर प्राइमरी) सालों के पाठ्यक्रम को समझा नहीं जा सकता। सो, समझा जाता है कि अंग्रेजी माध्यम जल्दी शुरू करने से पहले आधारभूत सालों में शिक्षा भंग हो जाती है और ऐसे में शिक्षा की प्राप्तियों के पाँव में बेड़ियाँ पड़ जाती हैं।“ (इंगलिश लैड्ग्वेज एंड मीडियम ऑफ इन्सट्रक्शन इन बेसिक एडुकेशन ….. पन्ना 3)

ब्रिटिश काउंसिल की इसी पुस्तक के इसी पन्ने पर निम्न टिप्पणी भारतीय नीतिकारों के अंग्रेजी सम्मोहन के बारे में आँखें खोलने वाली है : “विशेषज्ञों की राय है कि छह से आठ साल लगते हैं कि कोई बच्चा इतनी अंग्रेजी सीख ले कि उसे पाठ्यक्रम का विषय-वस्तु समझ आ सके। इतने साल लगा कर भी वह इतनी अंग्रेजी नहीं सीख सकता कि वह उच्चतर कक्षाओं के पाठ्यक्रम को अच्छी तरह समझ सके।”

छः से आठ साल! मेरे प्रिय सह-भारतीय जन! केवल धन-खर्च का हिसाब करने से साँसें उड़ जाएँगी।

IV. भाषाओं और शिक्षा का कुल-नाश :

भाषा के बारे में जो नीतियाँ इस नीति-पत्र राशिनी में शामिल हैं, यदि वो लागू हो गई तो भारतीय शिक्षा का जो थोड़ा-बहुत बचा भी है, वह भी ध्वस्त हो जाएगा। जो भाषा अंधेर-कूप (ब्लैक होल) से पैदा होने वाला है, वह भारतीय बच्चों को पूरी तरह खा जाएगा। उदाहरणतया, यदि कोई शिक्षार्थी एक विदेशी भाषा चुनावी विषय के तौर पर लेता है तो छठी से आठवीं तक वो भाषा के पाँच कोर्स करेगा (त्रि-भाषा मंत्र की तीन भाषाएं + भारतीय भाषा पर मस्ती कोर्स + विदेशी भाषा)। किसी सनातन भारतीय भाषा का दो साल का कोर्स अभी आगे खड़ा है, जो छठी से बाहरवीं के बीच होगा। यह सब पाठशाला स्तर की शिक्षा के बारे में है। मतलब यह हुआ कि यह भाषा अंधेर-कूप बच्चों को न कोई भाषा ढंग से सीखने देगा और न शिक्षा का और कुछ।

V. बेचारी हिंदी-पट्टी और दूसरे :

जब प्रधानमंत्री जी ने भी आज कह ही दिया है कि मातृभाषा माध्यम में “जहां संभव होगा” वहीँ पढ़ाया जाएगा, तो जिन भारतीय भाषाओं को अभी मान्यता ही प्राप्त नहीं हुई, उन भाषाओं वाले को तो शोक-सभा के आमंत्रण भेज सकते हैं। और यह शोक शायद हिंदी पट्टी को सब से अधिक मनाना पड़े। तथा-कथित हिंदी पट्टी की पाठशाला की शिक्षा के आँकड़े स्पष्ट बताते हैं कि भारत में शिक्षा का सबसे बुरा हाल इस क्षेत्र और उन क्षेत्रों का है, जहाँ शिक्षा मातृभाषा में कम होती है। ‘हिंदी-पट्टी’ में शिक्षा का बुरा हाल होने की एक वजह यह है कि इस क्षेत्र में अनेक मातृभाषाएँ हैं, पर राजनैतिक और साम्प्रदायिक कारणों से इन्हें हिंदी की उपभाषाएँ घोषित किया हुआ है। इसी कारण इस क्षेत्र की पढ़ाई हिंदी में होती है; और यह किताबी हिंदी दूसरी भाषाओं के बच्चों के लिए अपरिचित होने की वजह से उनकी शिक्षा को खाए जा रही है। सो, यह कहना भी उचित है कि ‘हिंदी-पट्टी’ के अहिन्दी क्षेत्र की शिक्षा का एक बड़ा दुश्मन हिंदी ही बनी हुई है; और तथा-कथित हिंदी-पट्टी में यह अहिन्दी क्षेत्र हिंदी क्षेत्र से कहीं बड़ा है।

VI. बेचारे पीड़ा-पीड़ित :

मातृभाषा आधारित पढ़ाई के लिए केवल भारतीय सरकारें और राजनीतिज्ञ ही समस्या नहीं हैं। तेलुगू भाषी श्री कंचा इलईया जैसे वंचितों के घोषित सहानुभूतिकार बच्चों को अंग्रेजीनाश से अंग्रेजी के द्वारा ही बचाना चाहते हैं। वे सरकारी पाठशालाओं को अंग्रेजी माध्यम में कराने में लगे हुए हैं; ये पक्के प्रमाण होते हुए भी कि यदि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा नहीं तो वंचित और संपन्न बच्चों की पढ़ाई में प्राप्तियों में अन्तर और बढ़ जाता है। सो, सहानुभूतिकारों की समझ के दीये में भी भारतीय नीतिकारों का ही अंग्रेजी तेल जलता है। मैंने ब्रिटिश काउंसिल, यूनेस्को और दूसरी खोजों के नतीजे और सफल अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार की जानकारी एक साल से भी अधिक समय पहले श्री कंचा इलईया जी को भेजी थी, पर अभी तक उत्तर नहीं मिला।

VII. मीठी गोली :

राशिनी-पत्र आधारभूत स्तर की शिक्षा मातृभाषा में होने के लाभ तो बताता है, पर साथ ही “जहाँ संभव हो” का फन्दा टाँग देता है। हम जानते ही हैं कि 1947 से लेकर अब तक शिक्षा-नीति के बारे में प्रत्येक आयोग और समिति ने मातृभाषा माध्यम की सिफारिश की है। इन सिफारिशों का इतना ही लाभ हुआ है कि प्रत्येक सिफारिश के बाद अंग्रेजी माध्यम और बढ़ जाता रहा है। शिक्षा में निजीकरण और मातृभाषा माध्यम आग और पानी हैं। एक घड़े में इकट्ठे नहीं डाले जा सकते। जैसे राशिनी निजीकरण के बाढ़-द्वार खोलती है, उसी से पता चल जाता है कि मातृभाषा माध्यम शोक-दिवस की ओर बढ़ रहा है; यदि मातृभाषा की संतानों ने कोई बड़ा प्रयत्न नहीं किया तो। वैसे यह अलग बात है कि अंग्रेजी माध्यम शिक्षा होने के कारण देश की अधिकतर चीजें शोकशाला की ओर ही दौड़ रही हैं।

राशिनी में एक और मीठी बात यह है कि देश में इस समय चल रहे भाषा कोर्सों का स्वभाव केवल साहित्यिक होने की बात कही गई है। (इसमें अंग्रेजी भी मिला लें जी)। इससे अर्थ यह निकला कि भाषाओं के कोर्सों के नाम पर भारत में जो पढ़ाया जा रहा है, वह अधिकतर साहित्य की पढ़ाई है, भाषा की नहीं। मतलब यह निकला कि भारत में लगभग 130 करोड़ अंग्रेजी दीवाने होते हुए भी अंग्रेजी के कोर्स अंग्रेजी भाषा से खाली हैं। इससे अंधे-प्रेमी कहाँ मिलेंगे! अज्ञानता सच में वरदान होती होगी।

VIII. कल का चित्र :

राशिनी-पत्र को बस अंग्रेजी और हिंदी के पंख लगा कर उड़ाने का मतलब यह हुआ कि हिंदी के सिवा किसी और भारतीय भाषा में 66 पन्ने पलटने का आज की सरकार के पास न तो सामर्थ्य है और न ही इच्छा, या दोनों ही नहीं। गूगल-पलटा होते हुए भी। अब यह समझने के लिए कि ‘मातृभाषा माध्यम कहाँ संभव होगा’, अधिक इंचों के घेरे वाले सर की जरूरत नहीं है। चलो मैं आप को उस स्थान का नाम बताये ही देता हूँ। उस स्थान का नाम है - कहीं-भी-नहींस्तान। जैसे कि मैने ऊपर बताया है, अब तो अपने प्रधानमंत्री जी ने स्वयं कह दिया है कि मातृभाषा माध्यम ‘जहाँ संभव हो’ वहीँ होगा।

IX. मेरा प्रस्ताव :

बहुत ही सरल है; वैद्य की सुनिए (भाषा और शिक्षा नीति के विशेषज्ञ), प्रमाणित का अनुसरण कीजिए (मतलब, भाषा और शिक्षा पर खोज), और नकल कीजिए (दुनिया में शिक्षा में सफ़ल देसों की)। मुझे आशा है कि इनके संकेत मैंने ऊपर दे दिए हैं। यदि स्पष्ट नहीं तो गूगल बाबा को आधा दिन दीजिए और देखिए कि सज्जन पुरूष अमेरिका, राक्षस चीन, शांतिदूत (अगस्त 1945 से) जापान, कहीं बाहर से टपका दक्षिण कोरिया, और अपने दूसरे सम्माननीय, जैसे कैनाडा, जर्मनी, फ़्रांस, रूस, फिनलैंड, स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, हालैंड, और अपना अंधा प्यार अंग्रेज़ी बर्तानिया, और कोई दूसरा, जो अपनी तरह सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, और, बिलकुल, आर्थिक रूप से गला-सड़ा नहीं है, उसे देख लीजिए कि वो क्या कर रहा है। इन आधारों पर, अपने वर्तमान भाषा नीति प्रस्ताव हमें पहला दर्जा दिलवा देंगे, (जी हाँ, बुद्धिमता के विपरीत में)। पर इन प्रस्तावों के परिणाम और भी भयानक होने वाले हैं; भारतीय शिक्षा मर जाएगी (धाराशाई तो पहले ही हो चुकी है); और इसके साथ क्या मरता है और क्या नहीं, इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। अंत में, अच्छी खबर! जहाँ तक अपनी भाषा नीति और व्यवहार का सवाल है, पाकिस्तान और नाइजीरिया जैसे अपने सगे भाई हैं। बाकी के लिए कृपया अपने-आप तुलना कर लें।

X. और के लिए :

पहली 485 पन्नों वाली रपट पर मेरा कुछ लम्बा लेख पंजाबी के अखबार में छपा था। यह और इसका हिंदी पलटा निम्न पते से पढ़ा जा सकता है। यहाँ भाषा नीति के मामलों के बारे में मेरी और लिखित भी पड़ी हैं।

निम्न पते पर मेरे कुछ बोलचित्र (वीडियो) भी पड़े हैं:

प्रिय भारतीयो! यदि आप को लगे कि राशिनी को कहीं मैंने ठीक से समझा नहीं है, तो मुझे क्षमा करें; और मेरी ठीक-न समझी की जानकारी मुझे दें। आभारी हूँगा। मेरे कान और आँख पते नीचे दिए हैं।

सरबत्त दा भला**! (**सब का भला हो**!)**

× लोकजीवन पर प्रकाशित करने के लिए किसी भी विषय पर आप अपने मौलिक एवं विश्लेषणात्मक आलेख lokjivanhindi@gmail.com पर भेज सकते हैं।

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