नामांकन के पहले पायदान पर दम तोड़ती बालिका शिक्षा

Dr. Anil Kumar Roy     6 minute read         

बिहार में आठवीं कक्षा के बाद लगभग ढाई लाख लड़कियाँ हर साल पढ़ाई छोड़ देती हैं। सरकार ने इस छीजन को रोकने के लिए आदेश पारित किया है। लेकिन उस आदेश में छीजन के कारणों के निदान का दृष्टिकोण नहीं है। इसलिए यह आदेश तात्कालिक रूप से अपने चेहरे की धूल झाड़ने वाला और दीर्घकालिक रूप से शिक्षा के ताबूत का एक कील साबित होगा।

Source: time.com/5614642/india-girls-education/
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      राइट टू एडुकेशन फोरम, बिहार के पहल से विधानसभा में विधायक शकील अहमद खान के प्रश्न के जवाब में शिक्षामंत्री, बिहार सरकार ने पिछले साल बताया था कि बिहार में 8वीं कक्षा तक पहुँचने वाली लड़कियों की संख्या हर साल लगभग 50,000 कम हो रही है और हर साल लगभग ढाई लाख लड़कियाँ 8वीं के बाद 9वीं कक्षा में नहीं पहुँच पाती हैं।

Source: Prabhat Khabar
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      राइट टू एडुकेशन फोरम और कलम सत्याग्रह के द्वारा बालिका शिक्षा के इस गंभीर मुद्दे को बार-बार उठाए जाने पर 2022 के जून महीने में शिक्षामंत्री और शिक्षा सचिवों ने जिले के अधिकारियों के साथ बैठक करके इस छीजन को रोकने के निर्देश दिए हैं। तो पहली बात यह कि बार-बार किसी मुद्दे को उठाते रहने पर और विमर्श को जारी रखने पर सरकार के बहरे कानों पर भी जूँ रेंगता है। इसलिए मुद्दों पर लगातार चर्चा होते रहनी चाहिए।

Source: Prabhat Khabar
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      दूसरी बात कि किस तरह सरकार के द्वारा की गयी पहलों का उद्देश्य समस्या का समाधान नहीं, बल्कि दिखावा मात्र होता है।

आठवीं कक्षा के बाद बालिकाओं के ठहराव के लिए साइकल से लेकर निःशुल्क शिक्षा और हर परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर बढ़ती हुई छात्रवृत्ति आदि कई सारी योजनाएँ चलती हैं। अर्थात सरकार को भी मालूम है कि आठवीं कक्षा के बाद बालिका शिक्षा में चिंतनीय छीजन है। इसके बावजूद बड़ी संख्या में छीजन बदस्तूर जारी ही नहीं है, बल्कि बढ़ता जा रहा है। क्यों? यह जानने के लिये हम एक विद्यालय की नवीं कक्षा की छात्राओं के पास पहुँचे। बड़ी मुश्किल से प्राप्त जवाबों का आशय यह था कि रास्ते में होनेवाली छेड़खानियों के डर से अभिभावक उन्हें आगे स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं और उनकी कई सहपाठिनों का नवीं कक्षा में नामांकन नहीं हुआ।

शिक्षा का सामाजिक एवं समाज का शैक्षिक परिप्रेक्ष्य

शिक्षा एक समाज-सापेक्ष क्रिया है। शिक्षा का ताना-बाना देश और काल के अनुसार सामाजिक एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नवयुवकों की तैयारी करने के लिए बुन...

      यही प्रश्न लेकर हमने ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के साथ भी सभा की। यह बातचीत आयोजित करने का उद्देश्य बालिका शिक्षा के प्रति महिलाओं को जागरूक और संवेदित करके बालिका शिक्षा के मार्ग में आनेवाले अवरोधों को दूर करने में सहायता पहुँचाना था। लेकिन इससे हमारी ही दृष्टि साफ हुई। काफी कुरेदने पर एक महिला ने तनिक तुनकते हुए अपनी स्थानीय बोली में कहा कि यह प्रश्न तो पिता से करना चाहिए कि वह बेटी को स्कूल क्यों नहीं जाने देता है। उस महिला के कहने का अर्थ था कि बेटी की पढ़ाई के मार्ग में पिता बाधक है। भारतीय समाज से परिचित कोई भी व्यक्ति बेटी की सुरक्षा के प्रति किसी गरीब पिता की इस चिंता को समझ सकता है कि कोई हादसा होने के बाद, अपराधी को दंड दिलाना तो दूर, हादसे को जाहिर होने देना भी सामाजिक दृष्टि से गुनाह हो जाता है और उस लड़की और उसके परिवार को तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाने लगता है। उस महिला की बात में पिता का यही भय व्यक्त हो रहा था।

जिन बालिकाओं की शिक्षा की हम चिंता कर रहे हैं, खुद उन बालिकाओं और उनके मातृवर्ग के जवाबों से एक सामान्य बात यह निकलकर सामने आती है कि पुरुषवादी सत्ता के सम्मुख बालिका शिक्षा के सारे प्रयास घुटने टेक दे रहे हैं। छेड़खानी करने वाला भी पुरुष वर्ग का है और उस छेड़खानी के डर से बेटियों को पढ़ने से रोकने वाला भी पुरुष है। हाल के दिनों में लड़कियों के साथ होनेवाले हादसों के बढ़ते मामलों ने इस चिंता को और भी बढ़ाया है। इसीलिए कुछ दिन पहले तक जो बड़ी तादाद में लड़कियाँ स्कूल जाने लगी थीं, उसमें गिरावट आने लगी है - आठवीं कक्षा तक पहुँचने वाली लड़कियों में भी और और आठवीं से ऊपर बढ़ने वाली लड़कियों में भी। अर्थात् विद्यालय से बालिकाओं के छीजन की प्रमुख जड़ें सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक परिवेश में और लैंगिक विभाजन में निहित हैं। ऐसा कभी नहीं होता है कि रोग के कारण मौजूद ही रहें और रोग दूर हो जाए। इस आदेश में इन अवरोधों के निराकरण की दृष्टि के बिना ही प्रशासनिक आदेश की यंत्रवत प्रक्रिया अपने चेहरे की धूल झाड लेने के लिए अपनाई गयी है।

बजट 2022 के स्ट्रेचर पर शिक्षा का परीक्षण

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा के संबंध में बड़े-बड़े सपने दिखाये गए हैं और विश्वास दिलाया गया है कि यह नीति देश को ‘विश्वगुरु’ बनाने का रोडमैप है। लेकि...

      जिन प्रधानाध्यापकों को यह निर्देश दिया गया है, वे यदि पूरी ईमानदारी से शत-प्रतिशत नामांकन कर भी लेते हैं तो भी वे उन बालिकाओं का स्कूल आना सुनिश्चित नहीं कर पायेंगे। उपस्थिति के प्रतिशत पर छात्रवृत्ति आदि प्राप्त होने का प्रतिबंध लगाकर भी उनका कक्षाओं में नियमित उपस्थित होना सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है, बल्कि इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही मिल सकता है। निष्कर्ष यह है कि पूरी ईमानदारी के साथ यदि इस आदेश का पालन होता है, जैसा होता नहीं है, तो छीजन के आँकड़ों में तो सुधार हो जा सकता है, जिससे सरकार अपना चेहरा साफ कर लेगी और बोलनेवालों का मुँह बंद हो जाएगा, परंतु बालिका शिक्षा की गुणवत्ता में कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा।

नामांकन सुनिश्चित कराने के निर्देशों को शिक्षा सुनिश्चित कराने का निर्देश नहीं समझना चाहिए। शिक्षा सुनिश्चित कराना सरकार का उद्देश्य रहा भी नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार पाँचवीं कक्षा के बच्चों के द्वारा दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ पाने के मामले में भी गंभीर हुई होती, पर्याप्त और उपयुक्त योग्यताधारी शिक्षकों की बहाली करती और विद्यालयों की मानक अधिसंरचना की व्यवस्था करती, कोरोना के कारण लगभग दो साल तक पढ़ाई बंद होने के बावजूद स्कूल खुलते ही देश में सबसे पहले परीक्षा न लेती और पंद्रह दिन बीतते-न-बीतते उनका परीक्षाफल घोषित करके खुद ही अपनी पीठ थपथपा न लेती। इससे यही पता चलता है कि सरकार की मंशा पढ़ाई नहीं, बल्कि सर्टिफिकेट बाँटकर अपना चेहरा चमकाना है और वह उसी के लिए सारे प्रयास कर रही है।

साम्प्रदायिक उभारों के दौर में जारी फासिस्ट बुल्डोजर संस्कृति

क्या हम सभी इन ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत नहीं हैं कि भारत में आर्यों के आगमन के बाद जनजातियों पर कहर बरपाया गया था, दबे-कुचले समुदायों के लोगों पर सवर्णों द्वा...

      तो उचित पहल क्या चाहिए, जिससे, कम-से-कम उच्चतर माध्यमिक स्तर तक, गुणवत्तापूर्ण बालिका शिक्षा सुनिश्चित हो सके?

पहली बात तो यह कि विद्यालय निकट हों, जिससे लड़कियों को आने-जाने में झिझक न हो और अभिभावकों को जाने देने में भय नहीं हो। दूसरी बात यह कि विद्यालय शिक्षा समिति के सदस्य और पंचायत प्रतिनिधि बालिका शिक्षा के प्रति जागरूक, संवेदनशील और जवाबदेह हों। तीसरी बात यह कि लड़कियों को अनिवार्य रूप से आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित किया जाए। चौथी बात यह कि विद्यालय की अधिसंरचना और सुविधायें बालिका-अनुकूल हो। पाँचवीं बात यह कि ऊँची कक्षाओं के लिए भी पर्याप्त महिला शिक्षिक हों। और, जो सारे बच्चों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात है कि विद्यालयों में पर्याप्त कक्षाएं, पर्याप्त एवं विषयवार योग्य शिक्षक तथा शैक्षिक परिवेश हो, जिससे विद्यालय जाने का प्रयोजन सार्थक हो सके।

इस तरह के आदेश ताबूत की कील साबित होते हैं। सारे दिखावटी प्रयासों को पूरा करने के बाद जब अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होता है तो उसी सरकार में शामिल शीर्षस्थ लोग अपने दफ़्तरों से निकलकर समाज को ही दोष देने लगते हैं, जैसा कि मुख्यमंत्री ने एक निजी अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कहा कि हम कितना भी प्रयास कर लें, लोगों को पीएमसीएच पर विश्वास नहीं होगा। और इस तरह सार्वजनिक संस्थाओं को अविश्वसनीय बनाने का संगठित प्रयास शुरू हो जाता है। फिर उन्हें बंद किए जाने या निजी हाथों में सौंपे जाने की क़वायद शुरू होगी और उस समय अपनी ही संस्थाओं को मरते हुए देखते रहने पर भी कोई रुदन नहीं होगा, क्योंकि तब तक लोग समझ चुके होंगे कि ये संस्थाएँ कुछ लोगों के वेतन लेने के केंद्र मात्र हैं, इनसे हमें कोई लाभ नहीं है, बल्कि ये सरकार पर बोझ ही हैं। और इस तरह सैकड़ों वर्षों से सार्वजनिक शिक्षा के प्रसार के प्रयास का अंत कर दिया जाएगा, जैसा कि नयी शिक्षा नीति के आने के बाद शुरू हो चुका है।

लेकिन हमारी पूरी शैक्षिक व्यवस्था, जो नामांकन के पहले पायदान पर ही दम तोड़ दे रही है, उससे नामांकन करने के लिए आदेश की औपचारिकता मात्र से आगे की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

निष्कर्ष यह कि बालिका शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन यांत्रिक आदेशों से नहीं, बल्कि जैविक समाधान से संभव है और व्यवस्था को इसके लिए कटिबद्ध रणनीति बनानी होगी।

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