खादी: भारत की शान और पहचान

डॉक्टर मीरा मिश्रा     6 minute read         

स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करते हुए गाँधी दो उद्देश्यों पर काम कर रहे थे। एक था अंग्रेजों को दुर्बल बना देना और दूसरा था देशवासियों को आत्मनिर्भर बनाना। गाँधी के द्वारा खादी के वस्त्रों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने से ये दोनों उद्देश्य पूरे हुए। इस तरह खादी राष्ट्रीयता की पहचान बन गयी।

वह साठ का दशक था।आज़ादी आये अभी कुछ साल ही बीते थे, परंतु उसकी सुगंध हमारे गाँव शहर के कोने-कोने में चरखा, तकली, खादी वस्त्रों, स्वराजी लोकगीतों तथा कथा-कहानियों के रूप में सर्वत्र फैली हुई थी। मुझे याद है, मेरी अम्मां घर के कामकाज से फुर्सत मिलते ही देशी चर्खा लेकर सूत कातने बैठ जाती थीं।आँगन के बारामदे में धीरे-धीरे घर की अन्य महिलायें भी एकत्रित होकर अपने-अपने चर्खे-तकली, डलिया बनाने के लिये सरकंडे और कशीदाकारी का सामान लेकर बैठ जातीं और गपशप करते हुए अपने काम भी कर लेतीं। दादी सफ़ेद धुनी हुई रुई से लंबी-लंबी पूनियाँ बनाकर अम्मां को कातने के लिये देती जातीं।बडी भाभी के पास बड़ा अंबर चर्खा था, जिससे वो ढेर सारे सूत कम समय में ही कात लेतीं। तकलियाँ भरने पर धागों को घुटनों पर लपेटकर चोटी का आकार दे अम्मां उन्हें सरकंडे से बनी सुंदर डलिया में इकट्ठा कर लेतीं। बाद में सूत को स्थानीय खादी भंडार में देकर तरह-तरह के सामान, जिनमें सतरंगी दरी, साड़ियाँ और धोती प्रमुख होते, घर में लाये जाते। मुझे याद है, चर्खा कातते समय वे समवेत स्वर में स्वराजी, देशप्रेम से जुड़े गीत गातीं। खादी अम्मां के चर्खे और आँगन में बिछी खाट पर चमकती सतरंगी दरी के रूप में बचपन से ही मेरे ज़ेहन में बैठी हुई थी। आज खादी की यात्रा का ज़िक्र करते हुए मुझे अपना बचपन याद आ गया।

बरगद कभी नहीं मरता

पुराने लोग कहते हैं कि उन्होंने पुरखों से सुना है कि पहले भी बरगद एक बार इसी तरह झुक गया था, मानो कमर टूट गयी हो। उस समय भी इसी तरह बाढ़ और तूफ़ान ने एक ही स...

खादी की बात करते हुए हम गांधी जी के स्वदेशी आंदोलन को कैसे भूल सकते है। गांधी जी ने खद्दर को, जो हाथ से बुने सूती कपड़ों को कहा जाता था, एक और नाम खादी दिया, जिसका इस्तेमाल उन्होंने असहयोग आंदोलन में आज़ादी के राजनैतिक हथियार की तरह किया।देश में तबाह हो रहे ग्रामोद्योग को पुनर्जीवित करने एवम् पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोकर भारतीयों के अन्दर देशप्रेम की भावना जगाने के लिये 1920 में शुरू किये गये असहयोग आंदोलन में खादी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।उस समय गांधी जी के आह्वान पर विदेशी वस्त्रों की पूरे देश मे होली जलायी गयी और हाथ से बुने कपास के कपड़े खादी के रूप मे स्वतंत्रता और स्वदेशी के प्रतीक बन गये। खादी सिर्फ़ एक कपड़ा नहीं, बल्कि एक सीधी-सरल जीवन शैली का भी पर्याय बन गया, जो सरलता, स्वाभिमान, आत्मसम्मान, सुगमता और समानता के रास्ते एक आत्मनिर्भर मज़बूत स्वस्थ भारत के निर्माण के लिये ज़रूरी था। गांधीजी का कहना था, हम वही कपड़े पहनें, जिसे हमने अपने हाथों से उगाया है, काता है और बुना है।

हमास और इज़राइल के बीच का ताज़ा संघर्ष तथा गाजा में मानवीय संकट

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हमारे देश का वस्त्र उद्योग प्राचीनकाल से ही विश्व विख्यात था। भारत के वस्त्र उद्योग की ख्याति के साक्ष्य हड़प्पाकालीन संस्कृति के अलावा सिकंदर महान के समय के ग्रीक विद्वान हेरोडोटस, स्ट्राबो आदि के लेखों में भी मिलता है, जिसमें कपास के पौधे से रुई निकालकर वस्त्र बनाने का उल्लेख है। सिकंदर महान के व्यापारिक मार्ग से यहाँ के सूती आरामदायक कपड़े यूरोप और एशिया के बाज़ारों में गये, जो वहाँ की जनता में बेहद लोकप्रिय हुये। औद्योगिक क्रांति के बाद भी ढाका का मलमल और पाकिस्तान के सूती कपड़े अपनी बेहतरीन गुणवत्ता के कारण इंग्लैंड और फ़्रांस के कारख़ानों में बने कपड़ों पर भारी पड़ते थे।अंग्रेजों को यह गवारा नहीं था। उन्होंने भारत से कच्चा माल, मसलन कपास, नील इत्यादि इंग्लैंड के कारख़ानों में सस्ती दर पर भेजना शुरू किया और वहाँ के मिलों में बने कपड़े वे भारत में कम दाम पर बेचने लगे। इसने हमारे आत्मनिर्भर गाँवों की रीढ़ की हड्डी पर प्रहार किया, जिससे घरेलू हथकरघा उद्योग तबाह होने लगा। इंग्लैंड की मिलों में बने कपड़े आकर्षक और टिकाऊ होते थे, जो धनी और सभ्रांत घरों में पसंद किये जाने लगे, परंतु औद्योगिक क्रांति के बाद मशीनें आ जाने से हमारे वस्त्र उद्योग का पतन प्रारंभ हो चुका था। गांधीजी ने इस तबाही को भाँप लिया था ।उन्होंने खद्दर या खादी को आज़ादी के आंदोलन से जोड़कर इसके उत्थान की बुनियाद रखी।अंग्रेज़ी राज को शिकस्त देने के लिये उसकी जड़ों पर, जो मूलतः व्यापार पर टिकी हुई थी, प्रहार करना ज़रूरी था। खादी आज़ादी के दीवानों की पहचान बन गयी। स्वतंत्रता आंदोलन में अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हुए देश की महिलाओं ने खादी के प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। देश के कई शहरों में चर्खा समितियाँ खुलीं, जो आज भी कई जगह कार्य कर रही हैं। इसके उत्पादन और विपणन के प्रचार-प्रसार के लिये 1925 में अखिल भारतीय बुनकर संघ की स्थापना हुई, जिससे लाखों लोगों को रोज़गार मिला। गाँवों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था। आज़ादी के बाद केन्द्र में मध्यम लघु और सूक्ष्म उद्योग मंत्रालय में अखिल भारतीय खादी ग्रामोद्योग आयोग बना जो वर्तमान में इसके विकास के लिये सतत प्रयासशील है। राज्यों में उद्योग विभाग खादी के प्रचार प्रसार का कर्य करता है।आज हर शहर क़स्बे में खादी भंडार की दुकानें दिख जायेंगी जो स्थानीय उत्पादों की बिक्री कर लोगों की आजीविका बढ़ाने में मददगार साबित हो रही हैं।

प्रारंभ में सूती वस्त्रों से शुरू होकर इसकी यात्रा खादी सिल्क और ऊनी खादी से भी जुड़ गयी। प्रतिस्पर्धा के दौर में बीच के कुछ सालों में खादी का क्रेज़ कम हो गया था, परंतु सरकार के प्रयास से अब इसे हैंडलूम के अलावा हस्तनिर्मित अन्य उत्पादों से जोड़कर इसके फलक को और वृहत्तर बनाया गया है। हैंडलूम को परंपरा और आधुनिकता के समन्वय से एक बेहतर रूप देकर इसे प्रतिस्पर्धी बाज़ार में स्थापित किया गयाहै। स्थानीय बुनकरों को सब्सिडी तथा अन्य ज़रूरी मदद देकर उनके उत्पादों की बिक्री के लिये देश स्तर पर जगह-जगह प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध कराये जा रहे हैं। वे निजी कंपनियाँ, जो हैंडलूम सहित अन्य हस्तनिर्मित उत्पादों की बिक्री में रुचि रखती हैं, उन्हें भी सरकार की तरफ़ से काफ़ी रियायत दी जाती है।

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आज खादी एक फ़ैशन ब्रान्ड है, जिससे रितु बेरी ,सब्यसाची जैसे दिग्गज फ़ैशन डिज़ाइनर जुड़े हुए हैं। खादी के वस्त्र पहनकर माडल्स रैम्प वाक् कर रही हैं। फ़ैब् इंडिया, नेचर एले,मेटाफर राचा इत्यादि कई प्रतिष्ठित ब्रांड गाँव में सीधे बुनकरों से मिलकर विश्वबाजार लायक़ उत्पाद बनवा रही हैं। खादी अपने जैविक कलेवर और सरल तेवर के कारण शहरी सभ्रांत वर्ग के बीच भी आज अपनी अलग पहचान बना चुकी है। आज़ादी के समय यह राजनीति से जुड़े लोगों की पहचान थी, परंतु आज आम जन के अलावा यह फ़ैशनेबल युवाओं, बुद्धिजीवियों और इलीट उच्च वर्ग के लोगों के बीच भी खासी लोकप्रिय है।आज खादी भंडार की दुकानों में सूती ,सिल्क, ऊनी खादी के कुर्ता, जैकेट, शाल, साड़ी, पैंट इत्यादि बिकते देखे जा सकते हैं। इसके अलावा ग्रामोद्योग से जुड़े अन्य आर्गेनिक उत्पाद मसलन शहद, पापड़, अचार, सजावटी सामान, सौंदर्य प्रसाधन, अगरबत्तियाँ इत्यादि अनेक तरह के सामान भी वहाँ दिख जायेंगे। हर साल दो अक्टूबर से खादी वस्त्रों पर सरकार कुछ समय के लिये छूट भी देती है।बाज़ार में विभिन्न तरह के देशी विदेशी कपड़ों के बीच खादी अब अपनी एक अलग पहचान बनाकर स्थापित हो चुकी है। गाँव से चर्खा और तकली तो अब लगभग ग़ायब ही हो चुके है, परंतु खादी को मिली विशिष्ट पहचान ने आज बुनकरों की उम्मीद को फिर से हरा कर दिया है।सरकार की तरफ़ से अगर उन्हें प्रोत्साहित करने के लिये आर्थिक और प्रशिक्षण तथा विपणन में भरपूर मदद मिलती रहे तो निश्चय ही खादी एक दिन पूरी दुनिया के बाज़ारों में छा जायेगी।

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