एक समय था जब पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता था। जिस समय ऐसा कहा जाता था, उस समय वह जनता के पक्ष में खड़ी होकर लोकतंत्र की पहरेदार थी और अवाम की आवाज थी। वह खुद जन समस्याओं की धूल से सनी थी, लेकिन उसमें ताकत थी कि सत्ता की आँखों में आँखें डालकर सवाल कर सके। उस समय वह जनता का विश्वासपात्र थी।

लेकिन समय बदला। लोकतंत्र के इस चौथे खंभे में मुनाफे का कीड़ा लग गया। धीरे-धीरे उस कीड़े ने पत्रकारिता के सारे स्थापित मूल्यों को कुतर दिया। मुनाफे की इस आवश्यकता ने केवल पत्रकारों के हुलिया को ही नहीं बदला, बल्कि पत्रकारिता के वर्ण्य को भी बदल दिया। पहले से जनता के पाले में खड़ी पत्रकारिता, आहिस्ते से, अब सरकार और पूँजीपतियों की गोद में जाकर बैठ गई।

अब जनता के सवालों को खुद जनता को ही उठाना था। अब उसे खुद ही अपनी अभिव्यक्ति बनना था। इंटरनेट की सुविधा ने उसके मार्ग को आसान किया। परिवर्तित परिस्थिति की इसी आवश्यकता ने, नवागत सुविधा के साथ मिलकर, जन पत्रकारिता (People's Journalism or Public Media) को जन्म दिया।

जन पत्रकारिता की यह नई उभरी प्रवृत्ति आज जनाकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर रही है, लोकतांत्रिक सवालों को खड़े कर रही है और ढहते हुए लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने के जद्दोजहद में लगी हुई है। आज यह जन पत्रकारिता ही लोकतंत्र का चौथा खंभा है।

'लोकजीवन' इसी परंपरा की एक कड़ी है।


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