हमास और इज़राइल के बीच का ताज़ा संघर्ष तथा गाजा में मानवीय संकट

व्यासजी     20 minute read         

7 दिसंबर, शनिवार को हमास द्वारा इज़राइल पर हुए अचानक हमले और उसके बाद इज़राइल द्वारा बदले की धमकी के बाद गाजा पट्टी के रिहायशी एवं हमास के ठिकानों पर हो रही बम वर्षा में हालाँकि हज़ारों निर्दोष नागरिकों की हत्या हो रही है, परंतु दुर्भाग्य है कि संयुक्त राष्ट्र युद्ध विराम रोकने की कोई पहल नहीं कर रहा है। यहाँ तक कि सुरक्षा परिषद की भी कोई बैठक होने की सूचना नहीं है। हमास ने धमकी दी है कि यदि इज़राइल ने बमवर्षा नहीं रोकी तो वह बंधकों की एक-एक करके हत्या करना शुरू कर देगा। इज़राइल का भी ग़ुस्सा जायज़ है, क्योंकि हमास के लड़ाकों ने बड़ी बेरहमी से इज़राइली बच्चों, औरतों, बूढ़ों का कत्ल किया है, जो मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है। परंतु इज़राइल का गाजा पट्टी के बाशिंदों का राशन-पानी बंद कर तथा बमवर्षा द्वारा उन्हें बर्बाद कर देना भी मानवीय मूल्यों के अनुसार सही नहीं ठहराया जा सकता। दुर्भाग्यवश दुनिया के बड़े देश अपने लाभ-हानि के अनुसार इस पक्ष या उस पक्का सहयोग-समर्थन कर मानवीय संकट को बढ़ाने में ही सहायक साबित हो रहे हैं। यदि यह मारकाट लंबी चली तो मध्य पूर्व में अशांति का एक लंबा अध्याय लिख जाएगा।

फ़ोटो इकोनॉमिक टाइम्स से साभार
फ़ोटो इकोनॉमिक टाइम्स से साभार

इज़राइल पर हमास का हमला

7 अक्टूबर, शनिवार की सुबह, जब इज़राइल देश तोराह पर्व के उत्सव की खुमारियों में डूबा हुआ था, अचानक उस पर नभ, थल और जल, तीनों ओर से भयानक हमला हो गया। हमास के लड़ाके हथियारों से लैस गाजा पट्टी से सटे इज़राइली शहरों-गाँवों में स्थित सैन्य ठिकानों और रिहायशी इलाक़ों की गलियों-घरों में घुस कर कत्ल-ओ-गारद मचाने लगे और आकाश से राकेट आग बरसाने लगे। खबर है कि 5000 से भी अधिक मिसाइलें गाजा पट्टी की ओर से दगीं, जिससे देखते-देखते इज़राइल में भारी तबाही का मंजर उपस्थित हो गया। जो भी संरचनाएँ मिसाइलों की जद में आयीं, तबाह-बर्बाद हो गयीं। यहाँ तक कि घंटों तक इज़राइल का सैन्य कमांड और कंट्रोल सिस्टम ठप्प हो गया। सैनिक और नागरिक अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भागते-छिपते पाए गए। जो भी सामने दिखा- नागरिक हो या सैनिक- लड़ाकों ने या तो मार डाला या उन्हें बंधक बना लिया। सड़कों पर बिखरी लाशें, ढहे मकानात तथा तबाह सैन्य ठिकाने इज़राइल की बर्बादी की नयी दास्तान लिखने लगे। इन लड़ाकों ने इज़राइल के कई सैन्य ठिकाने तबाह कर दिए, सैनिकों को मार डाला, कई सैनिकों को बंधक बना लिया तथा कई मिलिटरी वाहनों को अपने साथ गाजा पट्टी लेते चले गए। सारी दुनिया इस हमले से अचरज में आ गयी, क्योंकि पिछले सौ साल से चल रहे अरब-इज़राइल संघर्ष के रक्त रंजित इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि किसी ने इज़राइल के लौह सुरक्षा कवच और मोसाद ख़ुफ़िया एजेंसी की मुस्तैदी को भेद कर इज़राइल के अंदर ऐसी तबाही मचाई हो। गाजा पट्टी के फिलीस्तीनी प्रशासन की कमान सँभालने वाले हमास के सैन्य प्रमुख मोहम्मद दईफ ने इस कार्रवाई को “आपरेशन अल-अक्सा फ्लड” का नाम दिया है। अल-अक्सा येरूशलम की वह मस्जिद है, जिसे इस्लाम में दुनिया की तीसरी पवित्र मस्जिद माना जाता है। हमास का कहना है कि उक्त मस्जिद में इज़राइल सैनिकों ने फ़िलिस्तीनी श्रद्धालुओं, ख़ासकर महिलाओं, के साथ अमानवीय व्यवहार किया है। खबर है कि हमास के लड़ाकों ने इज़राइल के निरपराध नागरिकों की भी हत्याएं की हैं, जिनमें एक संगीत समारोह में भाग ले रहे 250 से भी अधिक इज़राइली एवं विदेशी नागरिक शामिल हैं, और लगभग डेढ़ सौ निरपराध स्त्रियों-पुरूषों-बच्चों तथा सैनिकों को बंधक बना लिया है।बंधक बनाए गए लोगों की दर्दनाक तस्वीरें और वीडियो सामने आए हैं, जो लड़ाकों की निर्ममता की गवाही दे रहे हैं। कई टेलीविजन चैनल हमास द्वारा मारे गए नागरिकों और फ़ौजियों के क्षत-विक्षत लाशों और बर्बाद घरों-दफ़्तरों के लोमहर्षक दृश्य दिखा रहे हैं, जिससे इस हमले की विभीषिका का पता चलता है। 

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हमास के हमले की प्रतिक्रिया

अचानक हुए इस हमले से तिलमिलाए इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहु ने इसे बर्बर आतंकवादी कार्रवाई करार देते हुए हमास के खिलाफ युद्ध की घोषणा की है। नेतन्याहु को धुर दक्षिण पंथी शासक माना जाता है। यह हमला ऐसे समय हुआ है, जब इज़राइल में नेतन्याहु के न्यायपालिका को पंगु बना देने के कदमों की खासी आलोचना हो रही है और इस कारण उनका देश आंतरिक संकट से जूझ रहा था। कुछ लोग इस हमले को नेतन्याहु के उस आंतरिक संकट से उबरने के अचानक मिल गए अवसर के रूप में भी देख रहे हैं, क्योंकि इज़राइल में हमास के खिलाफ ग़ुस्सा चरम पर है। शायद इसीलिए उन्होंने इस हमले का बदला लेने और गाजा पट्टी को बर्बाद करने की भी घोषणा की है। फलतः गाजा पट्टी के इलाक़े में इज़राइल के युद्धक विमान बम बरसा रहे हैं और वहाँ जान-माल का भयानक नुक़सान हो रहा है।आम लोगों के घर और इमारतें बम धमाकों में तबाह हो रही हैं और सैंकड़ों फ़िलिस्तीनी मारे गए हैं। इज़रायल के अनुसार उसकी सीमा में घुस आए हमास के 1500 लड़ाकों के शव मिले हैं। इज़राइल ने पहले से ही गाजा पट्टी की चौतरफ़ा नाकाबंदी कर दी थी, अब उसने गाजा पट्टी को पूरी तरह से घेर लिया है तथा बिजली-पानी की आपूर्ति तक ठप्प पड़ने लगी है। अस्पतालों में पर्याप्त दवाएँ न होने से बम धमाकों में घायल फ़िलिस्तीनी नागरिकों के इलाज में कठिनाई उत्पन्न हो गयी है। गाजा पट्टी के आम लोग एक बेहद मार्मिक मानवीय त्रासदी के दौर से गुजर रहे हैं। यहाँ तक की यूरोपीय संघ से फ़िलिस्तीनियों को लंबे समय से मिलने वाले मानवीय सहायता पर भी संकट खड़ा हो गया हैः ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी जैसे बड़े देश सहायता पूरी तरह से रोक देना चाहते हैं। 

जानकारों का मानना है कि इज़राइल की सैन्य शक्ति के मुक़ाबले हमास की सैन्य शक्ति बौनी है और भले ही उसे ईरान, कतर आदि देशों तथा लेबनान में सक्रिय चरमपंथी इस्लामी संगठन हिज़्बुल्लाह से सैन्य और आर्थिक सहायता-समर्थन मिल रहा हो, इज़राइल उससे भयानक बदला लेगा। नेतन्याहू युद्ध को लेकर रोज़ नई-नई धमकियाँ दे रहे हैं। मसलन, “युद्ध की शुरुआत हमास ने की है, ख़ात्मा हम करेंगे” तथा “हम इस युद्ध से मध्य पूर्व को बदल कर रख देंगे” आदि, इत्यादि । इज़राइल के समर्थन में अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्रांस, आस्ट्रेलिया जैसे देश सामने आए हैं और वे इस हमले को हमास की आतंकी कार्रवाई मान रहे हैं। अमेरिका इज़राइल की मदद के लिए फ़ौजी साजोसामान भी भेज रहा है और उसके युद्ध पोत समीप ही समुद्र में खड़े हैं। यूरोप से भी इज़राइल को सैन्य सहायता मिल रही है। भारत ने भी इस हमले को आतंकी कार्रवाई माना है और इज़राइल के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित की है। ज्ञातव्य है कि अमेरिका ने साल 1997 में ही हमास को आतंकी संगठन घोषित किया था। पश्चिमी देश भी हमास को आतंकी संगठन मानते हैं। इज़राइल हमास को पहले से ही आतंकी संगठन मानता आया है। 

युद्ध की इस विभीषिका का कब अंत होगा और इसका क्या परिणाम होगा, यह भविष्य के गर्भ में है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी युद्ध बंदी या बातचीत की कोई पहल अब तक नहीं की गयी है। दुनिया के कई देशों में फ़िलस्तीन और इज़राइल के समर्थन में अलग-अलग प्रदर्शन हो रहे हैं। दुनिया के देश यूक्रेन-रूस युद्ध की तरह ही अपनी-अपनी सुविधा और स्वार्थ के अनुसार बंट गए हैं। लगता है कि युद्ध लंबा खींचेगा । 

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हमास कौन हैं?

~हमास फ़िलिस्तीनी सुन्नी-इस्लामी कट्टरपंथी, लड़ाका (मिलिटेंट) संगठन है, जो खुद को फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवादी कहलाना पसंद करता है। इसके दो स्कंध (विंग) हैंः सामाजिक सेवा स्कंध, दावा , और एक सैन्य स्कंध । इस संगठन की स्थापना मिस्र के चरमपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड में सक्रिय शेख़ अहमद यासिन ने 1987 में किया था।~ यह वही साल है जब वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में इज़राइली सैन्य नियंत्रण के खिलाफ पहला फ़िलस्तीनी विद्रोह यानी इंतिफादा(Intifada) हुआ था। अपने स्थापना काल से ही हमास इज़राइली नागरिकों के विरूद्ध आत्मघाती हमलों तथा इज़राइली सैनिकों की हत्या एवं अपहरण में संलग्न रहा है। सन् 2006 में हुए चुनाव में “फ़िलिस्तीनी भूखंड” (Palestinian Territory) में आने वाले गाजा पट्टी का प्रशासनिक नियंत्रण हमास के पास आया। तबसे हमास गाजा पट्टी का प्रशासन सँभालता है। गाजा पट्टी में इज़रायली फ़ौज का अनधिकृत क़ब्ज़ा है। यह संगठन इज़राइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता तथा सभी यहूदियों को निकाल कर भूमध्य सागर के पूर्वी तट से जार्डन नदी तक इस्लामिक कट्टरपंथी सिद्धांतों पर आधारित फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए लगातार संघर्षरत है। फ़िलिस्तीनी भूखंड का दूसरा हिस्सा वेस्ट बैंक जार्डन नदी के पश्चिमी तट पर है, जिसकी शासन व्यवस्था वर्तमान में उदारवादी संगठन अल फ़तह (जिसकी स्थापना यासिर अराफ़ात ने की थी) सँभालता है। 

अरब-इज़राइल संघर्ष का संक्षिप्त इतिहास और “फ़िलिस्तीनी भूखंड” (Palestinian Territory)

उपरांकित “फ़िलिस्तीनी भूखंड” को जानने के पहले हमें थोड़ा फ़िलिस्तीन और इज़राइल के इतिहास और दोनों के बीच लगभग एक सौ साल से चल रहे संघर्ष तथा अरब-इज़राइल युद्धों की पड़ताल करनी होगी। ~भूमध्य सागर और जार्डन नदी के बीच के भूभाग को, जहां अभी इज़राइल और वर्तमान का फ़िलिस्तीनी भाग अवस्थित है, प्राचीन काल से ही फ़िलिस्तीन प्रदेश (region of Palestine) के नाम से जाना जाता रहा है।~ हालाँकि इस भूभाग को Land of Israel और Holy Land भी कहा जाता है। फ़िलिस्तीनी प्रदेश का इतिहास बहुत पुराना है। यह यहूदी और ईसाई धर्म की जन्म स्थली रहा है। इस्लाम धर्म के उदय के बाद मध्य पूर्व के देशों की तरह यहाँ के निवासियों के बड़े हिस्से ने इस्लाम धर्म क़बूल कर लिया, जिन्हें अरब कहा जाने लगा। प्राचीन काल में इस भूभाग पर मिस्रियों, यहूदियों, पारसी साम्राज्य, सिकन्दर महान और उसके उत्तराधिकारियों, रोमन साम्राज्य एवं कई मुस्लिम ख़लीफ़ों आदि का शासन रहा था। मुस्लिम ख़लीफ़ों के बाद इस भूभाग पर ओटोमन साम्राज्य का आधिपत्य स्थापित हुआ। इस भूभाग में रहने वाले यहूदियों का एक बड़ा हिस्सा समय के साथ रोज़ी-रोटी की तलाश में दुनिया के दूसरे देशों में चला गया और वहीं बस गया। परंतु अरबों यानी फ़िलिस्तीनियों का बड़ा हिस्सा वहीं रहा। प्रथम विश्व युद्ध में फ़िलिस्तीनी विद्रोहियों और मित्र देशों की सेनाओं के सामने ओटोमन साम्राज्य के पाँव उखड़ गए। फलतः फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना हुई। किंतु उस पर फ़िलिस्तीनी शासन की बजाय लीग आफ नेशन्स के “आज्ञापत्र” (Mandate) के अनुसार अंग्रेजों का शासन लाद दिया गया। 

प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व 1897 में दुनिया भर में फैले यहूदियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना संगठन बना लिया था, जिसका मक़सद फ़िलिस्तीनी प्रदेश में अपना Home land स्थापित करना था। इस संगठन को तमाम यहूदी संस्थाओं और धनी यहूदियों से आर्थिक एवं अन्य तरह की सहायता मिलती थी। ब्रिटेन ने यहूदियों की इस नयी उभरती ताक़त को पहचान कर प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही साल 1917 में बेलफोर घोषणा पत्र ( Belfour declaration) जारी कर दिया, जिसमें फ़िलिस्तीन में “यहूदी जनता का राष्ट्रीय गृह” ( national home for the Jewish people) स्थापित करने का समर्थन करने का एकतरफ़ा निर्णय लिया गया था। हालाँकि उस घोषणा पत्र में यह भी कहा गया था कि इससे फ़िलिस्तीन में रहने वाले ग़ैर यहूदी समुदाय के नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रभावित नहीं होंगे किंतु घोषणा पत्र जारी करने के पूर्व फ़िलिस्तीनी जनता से भी विचार-विनिमय करना चाहिए था, जो नहीं किया गया। कहा जाता है कि यह निर्णय ब्रिटेन ने अपने भूराजनीतिक हितों की रक्षा तथा प्रथम विश्वयुद्ध में समृद्ध यहूदी समुदाय का समर्थन प्राप्त करने की दृष्टि से लिया था, जो दुनिया भर में भले ही फैला हुआ था। परंतु ओटोमन साम्राज्य के अधीन फ़िलिस्तीन में अल्पसंख्यक हैसियत रखता था। यहाँ यह रेखांकित करना ज़रूरी होगा कि भले ही इस निर्णय से यहूदीवाद के समर्थकों के हौसले बुलंद हो गए हों, किन्तु इसने पिछले सौ साल से जारी फ़िलिस्तीन-इज़राइल संघर्ष की संगे-बुनियाद भी रख दी। 

हालाँकि फ़िलिस्तीनी प्रदेश के नाम से जाना जाने वाला भूभाग यहूदियों का भी स्वाभाविक घर था, प्राचीन काल से ही वह विभिन्न यूरोपीय एवं मध्य पूर्व की शक्तियों के आधिपत्य में रहा तथा इस्लाम धर्म के उद्भव के बाद ईसाइयों और मुसलमानों के बीच धर्म युद्ध का क्षेत्र बनता चला गया। इस परिस्थिति में यहूदी समुदाय हाशिए पर ही रहा और चूँकि यह समुदाय वाणिज्य-व्यापार में दक्ष था, वह दुनिया के विभिन्न देशों में रोज़ी-रोटी की तलाश में निकल गया। 19 वीं शताब्दी में यहूदीवाद के उदय के साथ इस समुदाय में भी यहूदी राष्ट्रवाद ने ज़ोर पकड़ा। बेलफोर घोषणा के बाद से यहूदी समुदाय ने धीरे-धीरे फ़िलिस्तीन में बसना शुरू कर दिया, जहां स्वाभाविक रूप से पूर्व में बसे अरबी समुदाय, जो मुसलमान था, के साथ उनके अंतर्विरोध बढ़े। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर द्वारा जर्मनी में बसे यहूदियों के साथ किए गए घोर अत्याचार एवं होलोकास्ट की विभीषिका के बाद यहूदियों की आवक अप्रत्याशित रूप से बढ़ गयी और इसके साथ ही बहुसंख्यक अरबों के साथ उनका अंतर्विरोध भी तीखा होता चला गया। इस अंतर्विरोध का एक प्रतिफलन यह हुआ कि फ़िलिस्तीन में बसे यहूदी समुदाय में सैन्यीकृत यहूदीवाद (militarised Zionism) की भावना ने ज़ोर पकड़ा और उनके बीच बेन गुरियन जैसे कट्टर यहूदी राष्ट्रवादी नेताओं और सैनिक कमांडरों का प्रभुत्व बढ़ता चला गया। इन नेताओं ने सुनिश्चित किया कि प्रत्येक सक्षम यहूदी मर्द-औरत फ़ौजी प्रशिक्षण प्राप्त करें और आवश्यकतानुसार हथियारों से लैस कर उन्हें यहूदी हितों की रक्षा के लिए मैदाने-जंग में उतार दिया जाए। दूसरा प्रतिफलन यह हुआ कि फ़िलिस्तीन राज्य के अरब वाशिन्दों में भी फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवाद तेज़ी से बढ़ने लगा ।  

कुपोषित शिक्षा की पीठ पर ‘शक्तिमान’ की सवारी

यह लेख बिहार में वर्तमान निरीक्षण प्रणाली के संदर्भ में लिखा गया है। इसमें दिखाया गया है कि नवउदारवादी आचरण के अनुकूल ही फ़िल्मी धूम-धड़ाके की निरीक्षण प्रणा...

लीग आफ नेशन्स द्वारा फ़िलिस्तीनी राज्य का शासन ब्रिटेन को देने वाला आज्ञापत्र (mandate) मई 1948 में समाप्त होने वाला था। उसके पूर्व ही लीग आफ नेशन्स की उत्तराधिकारी संस्था संयुक्त राष्ट्र संगठन ने अपनी सामान्य सभा में फ़िलिस्तीनी राज्य का शासन स्थानीय निवासियों को देने के उद्देश्य से 29 नवंबर सन् 1947 को एक प्रस्ताव पारित किया जिसे संकल्प 181 (Resolution 181) कहा जाता है। इसके अंतर्गत फ़िलिस्तीनी राज्य का विभाजन तीन हिस्सों में प्रस्तावित किया गयाः एक यहूदी राज्य, एक अरब राज्य तथा येरूशलम शहर, जिसे एक अंतरराष्ट्रीय ट्रस्टीशिप प्रणाली के तहत रखा जाना था। माना जाता है कि इस विभाजन को अमेरिका का पूर्ण समर्थन प्राप्त था, जबकि ब्रिटेन इसके पक्ष में नहीं था।ब्रिटेन अरब लोगों के साथ अच्छा संबंध बनाए रखना चाहता था ताकि फ़िलिस्तीन में उसके महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं आर्थिक हित सुरक्षित रहें। अरब लोगों ने भी इस संकल्प को अस्वीकार कर दिया । कारण यह दिया कि उनकी आबादी यहूदी आबादी से दोगुनी है, जबकि उनके हिस्से में आने वाला भूभाग उनकी आबादी के लिहाज़ से काफ़ी छोटा है और यहूदियों के हिस्से का आने वाला भूभाग अरब राज्य से दोगुना है। इस संकल्प को संयुक्त राष्ट्र संगठन लागू नहीं करा सका। इस बीच अरब और यहूदी राष्ट्रवादियों के बीच गृह युद्ध छिड़ गया। गृह युद्ध के बीच ही सैन्यीकृत यहूदीवाद के प्रणेताओं ने बेन गुरियन की रहनुमाई में 14 मई 1948 को सम्पूर्ण फ़िलिस्तीनी राज्य को स्वतंत्र इज़राइल राष्ट्र घोषित कर दिया। विडंबना यह रही कि उसी दिन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने इस नए राष्ट्र को मान्यता भी दे दी। इज़राइली राष्ट्र की घोषणा के तुरंत बाद 15 मई 1948 को पहले से चला आ रहा गृह युद्ध अरब-इज़राइल संघर्ष में बदल गया जब मिस्र, जार्डन, सीरिया और इराक़ की सेनाएँ फ़िलिस्तीनियों के पक्ष में फिलीस्तीनी राज्य में प्रवेश कर गयीं और अरब इलाक़ों पर नियंत्रण करने के बाद उन्होंने इज़राइली फ़ौजों तथा यहूदी बस्तियों पर धावा बोल दिया। चूँकि इस बीच यहूदियों ने अपनी पूरी सक्षम आबादी को फ़ौजी प्रशिक्षण देकर कट्टर राष्ट्रवादी बना दिया था, उनके पास इज़राइल राष्ट्र के प्रति समर्पित सैन्य बल एवं हथियार प्रचुर मात्रा में पहले से मौजूद था। फलतः यह संघर्ष 10 महीने तक चला। 

इस संघर्ष का परिणाम फ़िलिस्तीनी अरबों के लिए दुखद रहा। इज़राइली फ़ौजों ने संकल्प 181 में प्रस्तावित यहूदी राज्य के भूभाग के साथ ही प्रस्तावित अरब राज्य का लगभग 60% भूभाग एवं पश्चिमी येरूशलम अपने कब्जे में कर लिया। इज़राइली भूभाग के निवासी 7 लाख फ़िलिस्तीनी अरबों को विस्थापित होकर या तो अपना वतन पीछे छोड़ कर भागना पड़ा या वे निकाल बाहर किए गए। वे जलावतन होकर लेबनान, सीरिया, जार्डन आदि देशों में शरणार्थी की ज़िंदगी जीने को मजबूर हो गए। अगले तीन सालों में विभिन्न अरब देशों में बसे 2,60, 000 यहूदी भी अपना वतन छोड़ इज़राइल में बसने के लिए आ गए। जार्डन ने पूर्वी येरूशलम और वेस्ट बैंक पर क़ब्ज़ा कर लिया, जबकि मिस्र की सेना ने गाजा पट्टी पर। 

साल 1956 में स्वेज नहर संकट के समय इज़राइल ने मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप और गाजा पट्टी पर हमला किया, जिसे दूसरा अरब-इज़राइल युद्ध भी कहा जाता है। इस हमले में बाद में इज़राइल के साथ ब्रिटेन और फ़्रांस भी आ गए, जिनका मक़सद पश्चिमी देशों के लिए स्वेज नहर पर दुबारा नियंत्रण हासिल करना और मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर को सत्ता से हटाना था, जिन्होंने विदेशी स्वेज नहर कंपनी, जो उक्त नहर का संचालन करती थी, का राष्ट्रीयकरण किया था। किंतु अमेरिका, तत्कालीन सोवियत संघ और संयुक्त राष्ट्र के दबाव में इन तीनों देशों को अपनी सेनाएँ वापस बुलानी पड़ीं। यह युद्ध एक तरह से इज़रायलियों के लिए शक्ति परीक्षण का अवसर था, जिसमें वे सफल हुए । 

इस बीच इज़रायलियों से फ़िलिस्तीन को मुक्त कराने के लिए लेबनान, सीरिया और जार्डन में बसे जलावतनी के शिकार फ़िलिस्तीनी अरबों के बीच से कई हथियार बंद गुरिल्ला ग्रुप उभरे । इनमें सबसे प्रमुख अल फ़तह ग्रुप था जिसके नेता यासिर अराफ़ात थे। साल 1964 में इन संगठनों ने मिलकर फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) का गठन किया । फलतः PLO और इज़राइल के बीच खूनी झड़पें होने लगीं जिनमें दोनों पक्षों के लोग हताहत होते थे। नवंबर 1966 में इज़राइली हमले में जार्डन के क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में 18 लोग मारे गए और 54 लोग बुरी तरह घायल हुए । इसी प्रकार अप्रैल 1967 में इज़राइल और सीरिया के बीच हुई हवाई लड़ाई में सीरिया के 6 मिग लड़ाकू जेट इज़राइली वायुसेना ने मार गिराए। इन्हीं बढ़ते तनावपूर्ण स्थिति में जून 5-10, साल 1967 के दौरान 6 दिनी तीसरा अरब-इज़राइल युद्ध हुआ, जिसमें इज़राइली फ़ौजों ने मिस्र, सीरिया और जार्डन के ऊपर निर्णायक जीत हासिल की और सिनाई प्रायद्वीप, गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक, येरूशलम के पुराने शहर और गोलन पहाड़ी पर क़ब्ज़ा कर लिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के हस्तक्षेप से युद्ध विराम लागू हुआ।    सिनाई प्रायद्वीप और गोलन पहाड़ी को इज़राइल से वापस लेने के उद्देश्य से मिस्र और सीरिया ने 6 अक्टूबर 1973 को इज़राइल पर हमला किया, जिसे चौथा अरब-इज़राइल युद्ध भी कहते हैं। इस युद्ध में अरबों के पक्ष में ईराक़ और जार्डन भी कूद पड़े। संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप से 25 अक्टूबर 1973 को युद्ध विराम घोषित हुआ। हालाँकि इस युद्ध में मिस्र और सीरिया को शुरुआती सफलता ज़रूर मिली और इज़राइल को भारी नुक़सान हुआ, किंतु गोलन पहाड़ी और सिनाई प्रायद्वीप पर उसने क़ब्ज़ा बरकरार रखा। सीरिया के लिए यह युद्ध आपदा साबित हुआ। किंतु हार के बावजूद मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति अनवर सादात की प्रतिष्ठा मध्य पूर्व में बढ़ गयी। इस युद्ध से फ़िलिस्तीनियों की हालत जस-की-तस बनी रही ।

कैम्प डेविड और ओस्लो समझौते, इंतिफादा तथा फ़िलिस्तीनी राष्ट्र का सवाल

अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर की मध्यस्थता में साल 1978 में अमेरिका के कैम्प डेविड में मिस्र और इज़राइल के बीच दो ऐतिहासिक शांति समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें पहला “मध्य पूर्व में शांति का फ़्रेमवर्क” और दूसरा “मिस्र एवं इज़राइल के बीच अंतिम शांति समझौते का फ़्रेमवर्क” कहा जाता है। पहले वाले समझौते में अधिकृत गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में एक स्वशासन प्राधिकार की स्थापना, वेस्ट बैंक से इज़राइली फ़ौजों और नागरिकों की वापसी और फ़िलिस्तीनी अवाम के वैध अधिकारों को मान्यता देने एवं अगले पाँच सालों में गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में उन्हें पूर्ण स्वायत्तता देने की प्रक्रिया प्रारंभ करने की बात कही गयी। दूसरे समझौते में सिनाई प्रायद्वीप से इज़राइली फ़ौजों की वापसी और दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध बहाल करने एवं इज़राइल की जहाज़ों के स्वेज नहर पार करने का अधिकार बहाल करने की सहमति बनी। हालाँकि पहला समझौता बिना फ़िलिस्तीनियों के प्रतिनिधित्व के सम्पन्न हुआ था, इसने इज़राइल और PLO के बीच बाद में हुए ओस्लो समझौते की ज़मीन तैयार कर दी थी। 

ओस्लो (नार्वे) में साल 1993 में पहला और साल 1995 में दूसरा समझौता अमेरिका की पहल पर हस्ताक्षरित हुआ, जिसमें गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक को “फ़िलिस्तीनी भूखंड” मानते हुए फ़िलिस्तीनी प्राधिकार को सीमित स्वशासन का अधिकार प्रदान करने में इज़राइल ने सहमति दी। समझौते के अनुसार इज़राइल को PLO ने राष्ट्र के रूप में मान्यता दी तथा इज़राइल ने PLO को फ़िलिस्तीनी जनता के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर लिया। 

इन समझौतों के बावजूद अभी तक फ़िलिस्तीनी राष्ट्रीयता का सवाल हल नहीं हुआ है। फ़िलिस्तीनी मानते हैं कि गाजा पट्टी या वेस्ट बैंक में उनके शासन के बावजूद उन्हें इज़रायलियों के रहमो-करम पर जीवन जीना पड़ रहा है तथा रोज-ब-रोज इज़राइली फ़ौज और पुलिस के हाथों अपमानित होना पड़ता है। फलतः फ़िलिस्तीनियों और इज़राइली फ़ौज तथा पुलिस के बीच कैम्प डेविड और ओस्लो समझौते के बावजूद खूनी झड़पें होती रहीं हैं। इन झड़पों में हालाँकि ज़्यादा नुक़सान फ़िलिस्तीनी झेलते हैं किंतु इज़राइल को भी जानोमाल का नुक़सान होता है। दोनों पक्ष एक दूसरे पर उपरोक्त समझौतों को तोड़ने का आरोप लगाते हैं। 

शिक्षा नीति 2020 और रोजगार की अवधारणा

यह लेख ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के पटना जिला सम्मेलन में दिये गये भाषण का लेखान्तरण है। भारत ऐतिहासिक रूप से भीषण बेरोजगारी और असमानता के दौर से गुजर रहा ह...

9 दिसंबर 1987 को फ़िलिस्तीनी भूखंड में रहनेवाले फ़िलिस्तीनियों ने इज़राइली फ़ौज द्वारा 4 फ़िलिस्तीनी मज़दूरों को जानबूझकर फ़ौजी ट्रक के धक्के से मार डालने का आरोप लगाया। इस घटना के कई दिनों पहले एक इज़राइली की हत्या गाजा में कर दी गयी थी। हालाँकि इज़राइली फ़ौज ने इस आरोप का खंडन किया, किंतु उस समय दोनों पक्षों के बीच तनाव इतना बढ़ा था कि इस घटना ने चिनगारी का काम किया और फ़िलिस्तीनी विद्रोह शुरू हो गया। इसे पहला इंतिफादा कहा जाता है। इस विद्रोह में हिंसक और अहिंसक, दोनों तरह की घटनाएँ होती रहीं। हिंसक घटनाओं में दोनों तरफ़ से लोग, सैनिक और नागरिक, मारे गए। इज़राइल ने 80,000 सैनिकों को इस विद्रोह को दबाने के लिए लगाया था। फलतः मारे जाने वालों में फ़िलिस्तीनी नागरिकों और गुरिल्ला सैनिकों की संख्या आनुपातिक रूप से बहुत ज़्यादा थी। इस विद्रोह में नए गठित चरमपंथी इस्लामी संगठन हमास के लड़ाकों की बड़ी भूमिका रही। यह विद्रोह 6 साल यानी 1993 तक चला। 

फ़िलिस्तीनियों ने साल 2000 में दूसरी बार विद्रोह किया जब कि कैम्प डेविड में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मध्यस्थता में इज़रायल के प्रधानमंत्री येहुद बराक और PLO के अध्यक्ष यासिर अराफ़ात के बीच हुई शांति वार्ता बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हुई। इसके पूर्व ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले इज़राइली प्रधानमंत्री यित्झाक राबिन की यहूदी चरम पंथियों ने हत्या कर दी थी, जिसके परिणामस्वरूप ओस्लो समझौता दोनों पक्षों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा था। इस विद्रोह को दूसरा इंतिफादा का नाम दिया गया। इसका तात्कालिक कारण था इज़राइल के तत्कालीन विपक्षी नेता एरियल शेरोन, जो फ़ौज के पूर्व जनरल थे एवं बाद में प्रधानमंत्री बने, का पवित्र अल अक्सा मस्जिद के अहाते में आगमन, जिसे फ़िलिस्तीनियों ने उकसाने वाली कार्रवाई बताया । हालाँकि उनका आगमन शांति पूर्ण था, किंतु दंगे भड़क गए, जिसे इज़राइली पुलिस ने रबर बुलेट और आंसू गैस से तात्कालिक रूप से दबा दिया। बाद में इज़राइल ने विद्रोह को दबाने के लिए बड़े पैमाने पर फ़ौजी कार्रवाई की। यह विद्रोह साल 2005 तक चला, जिसमें 3000 फ़िलिस्तीनी, 1000 इज़राइली और 64 विदेशी नागरिक मारे गए। साल 2005 में शर्म अल-शेख़ शिखर सम्मेलन में फ़िलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास और इज़राइली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन के बीच हुए समझौते के बाद यह विद्रोह ख़त्म हुआ ।    लेकिन फ़िलिस्तीनियों और इज़राइल के बीच हिंसक झड़पें कभी पूरी तरह से बंद नहीं हुईं और साल 2015-16 में भी दोनों पक्षों के बीच ज़बर्दस्त हिंसा हु जिसे अल-कुद्स इंतिफादा या जेरूसलम इंतिफादा भी कहा जाता है। 

हमास और इज़राइल के बीच का यह ताज़ा संघर्ष यदि रोका नहीं गया तो वह तीसरे इंतिफादा का रूप ले सकता है, ऐसा कई विशेषज्ञों का मानना है । 

यह मारकाट बंद कैसे होगी?

7 दिसंबर, शनिवार को हमास द्वारा इज़राइल पर हुए अचानक हमले और उसके बाद इज़राइल द्वारा बदले की धमकी के बाद गाजा पट्टी के रिहायशी एवं हमास के ठिकानों पर हो रही बम वर्षा में हालाँकि हज़ारों निर्दोष नागरिकों की हत्या हो रही है, परंतु दुर्भाग्य है कि संयुक्त राष्ट्र युद्ध विराम रोकने की कोई पहल नहीं कर रहा है। यहाँ तक कि सुरक्षा परिषद की भी कोई बैठक होने की सूचना नहीं है। हमास ने धमकी दी है कि यदि इज़राइल ने बमवर्षा नहीं रोकी तो वह बंधकों की एक-एक करके हत्या करना शुरू कर देगा। इज़राइल का भी ग़ुस्सा जायज़ है, क्योंकि हमास के लड़ाकों ने बड़ी बेरहमी से इज़राइली बच्चों, औरतों, बूढ़ों का कत्ल किया है, जो मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है। परंतु इज़राइल का गाजा पट्टी के बाशिंदों का राशन-पानी बंद कर तथा बमवर्षा द्वारा उन्हें बर्बाद कर देना भी मानवीय मूल्यों के अनुसार सही नहीं ठहराया जा सकता। दुर्भाग्यवश दुनिया के बड़े देश अपने लाभ-हानि के अनुसार इस पक्ष या उस पक्का सहयोग-समर्थन कर मानवीय संकट को बढ़ाने में ही सहायक साबित हो रहे हैं। यदि यह मारकाट लंबी चली तो मध्य पूर्व में अशांति का एक लंबा अध्याय लिख जाएगा। 

ऐसे में संयुक्त राष्ट्र को चाहिए कि वह हस्तक्षेप कर इस मारकाट को ख़त्म कराए एवं अपने संकल्प 181 को सुरक्षा परिषद के देशों का सहयोग लेकर लागू कराए। यह भी ज़रूरी होगा कि ऐसा करते समय दोनों पक्षों के वैध हितों की अनदेखी न हो। 

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