सामाजिक न्याय का वर्तमान संदर्भ

डॉ० सुधीर कुमार     16 minute read         

एक विचारधारा के रूप में सामाजिक न्याय सभी इंसानों को समान मानने के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इसके अनुसार मनुष्य-मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए, सभी व्यक्तियों को समुचित विकास के समान अवसर उपलब्ध हों और किसी भी व्यक्ति का किसी रूप में शोषण न हो। इसके द्वारा समाज के सभी वर्गों के बीच बिना किसी भेदभाव के समता, एकता और अपने अधिकारों का प्रयोग तथा व्यक्ति की प्रतिष्ठा एवं गरिमा का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार सामाजिक न्याय एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण रूप से सहायक होता है।

एक विचारधारा के रूप में सामाजिक न्याय सभी इंसानों को समान मानने के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इसके अनुसार मनुष्य-मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए, सभी व्यक्तियों को समुचित विकास के समान अवसर उपलब्ध हों और किसी भी व्यक्ति का किसी रूप में शोषण न हो। इसके द्वारा समाज के सभी वर्गों के बीच बिना किसी भेदभाव के समता, एकता और अपने अधिकारों का प्रयोग तथा व्यक्ति की प्रतिष्ठा एवं गरिमा का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार सामाजिक न्याय एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण रूप से सहायक होता है। एक अवधारणा के रूप में सामाजिक न्याय 19वीं शताब्दी की शुरूआत में औद्योगिक क्रान्ति और उसके बाद पूरे यूरोप में नागरिक क्रान्ति के दौरान उत्पन्न हुआ।[1] इसे साम्यवादी आंदोलन ने और पोख्ता बनाया, जिसका उद्देश्य अधिक समतावादी समाज का निर्माण करना और मानव श्रम के पूँजीवादी शोषण को दूर करना था।

बिहार की स्कूली शिक्षा : नीति और नीयत पर सवाल

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प्राचीन काल में न्याय की अवधारणा का सम्बन्ध राज्य के दर्शन तथा कार्यक्रम से रहा है। भारतीय दर्शन में समाज सेवा की प्रेरणा और न्याय स्थापित करने की बात कही गयी है। समाज में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो स्वयं अपनी जीविका उपार्जन नहीं कर पाते हैं, जिनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता है। वैसे लोगों की जवाबदेही राज्य की समझी जाती है। प्राचीन समय में शासक वर्ग आपातकालीन अवसरों, जैसे बाढ़, भूकंप, सुखाड़, अग्निकाण्ड और अन्य प्राकृतिक आपदा के समय प्रभावित एवं पीड़ित लोगों की सहायता करते थे। प्राचीन समय में लोकोपकारी कार्य के साथ ही  समाज से सम्बन्धित सभी आवश्यकता की पूर्ति एवं समस्याओं के निदान के लिए उचित व्यवस्था और न्यायप्रिय राष्ट्र की जानकारी मिलती है।[2]

शनैः-शनैः सामाजिक बदलाव होता रहा और आज सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य सामाजिक न्याय हो गया है। जॉन रॉल्स ने सन् 1971 में अपनी पुस्तक न्याय के सिद्धान्त  में न्याय की संकल्पना को विस्तृत आधार प्रदान किया और समाज के कमजोर वर्गों की भलाई के लिए राज्य को सक्रिय हस्तक्षेप करने एवं संसाधनों के वितरण में न्याय के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करते हुए दिखाया है। सामाजिक स्तर पर व्यक्ति की असमानता,अन्याय, शोषण तथा असहयोग को समाप्त करना तथा मानवीय गरिमा की स्थापना करना ही सामाजिक न्याय है। सीमित अर्थों में इसका तात्पर्य लोगों के व्यक्तिगत संबंधों में अन्याय को समाप्त करने से है, जबकि व्यापक अर्थों में इसका सम्बन्ध लोगों के जीवन में राजनीतिक, सामाजिक आरै आर्थिक सन्तुलन कायम करने से है। इसलिए सामाजिक न्याय को व्यापक अर्थों में समझा जाना चाहिए। आज सामाजिक न्याय की आवश्यकता व्यक्ति के समुचित विकास और समावेशी समाज की  स्थापना के लिए है, वैसे लोग जो असुरक्षित समूह के हैं या हाशिये पर हैं, उन्हें भी समाज की मुख्यधारा में जोड़े जाने के लिए है। लोगों के गरिमामय जीवन को सुनिश्चित करना राज्य के ऊपर सामाजिक न्याय के अन्तर्गत निहित है। सामाजिक रूप से बहिष्कृत, जिसे समाज की मुख्यधारा में हाशिये पर रखा गया है, वैसे समूह, जो लाभ से वंचित समूहों के रूप में हैं, उन्हें भी संसाधनों तक पहुँच सुनिश्चित करने तथा तथा उनका सामाजिक जीवन भी गरिमामय और सम्मान पूर्वक रह सके, यही सामाजिक न्याय है। इसके साथ ही समाज के सभी व्यक्तियों के बीच सामंजस्य स्थापित करना एवं सभी लोगों को सामाजिक समानता उपलब्ध कराना सामाजिक न्याय का उद्देश्य है। आधुनिक समय में सामाजिक न्याय लाना कल्याणकारी राज्य का मूल लक्ष्य बना है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के सभी नागरिकों को कानून के सामने समानता एवं कानून के अधीन सुरक्षा प्रदान करता है, अनुच्छेद 15 धर्म, मूल , वंश, जाति, लिंग या जन्म के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव का निषेध करता है, राज्य के नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत  सामाजिक न्याय को समानता के साथ जोड़कर सामाजिक, आर्थिक न्याय सुनिश्चित करता है। संविधान की प्रस्तावना सामाजिक न्याय के उद्देश्य को और भी अधिक स्पष्ट करता है।[3]

सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता-समानता

आधुनिक काल के विचारकों ने सामाजिक न्याय को प्रमुख अवधारणा बना दिया है। दुनिया के करीब सभी देश लोक कल्याणकारी राज्य का मूल लक्ष्य भी सामाजिक न्याय मानते हैं। लोकतांत्रिक देशों के द्वारा लोक  कल्याणकारी राज्य के उदय एवं मानवाधिकारों की विश्वव्यापी लोकप्रियता के कारण भी सामाजिक न्याय की महत्ता पर जोर दिया जाने लगा है। कुछ विद्वानों में सामाजिक न्याय और व्यक्गित स्वतंत्रता के बीच प्राथमिकता को लेकर विवाद रहा है। यूरोप के पूँजीवादी देश अपने संवैधानिक प्रावधानों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रमुखता देते हैं और पूँजीवादी विचारक समानता की तुलना में स्वतंत्रता को वरीयता देते हैं। खुली अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धा और मुनाफा पर बल देती है। इनकी दृष्टि में समानता के लिए विशेष प्रयास करने की जरूरत नहीं है। उदारवादी विचारकों का मानना है कि आर्थिक क्रियाओं में समाज या राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। वे स्वतंत्रता को निजी मालकियत वाली अर्थव्यवस्था का आधार तत्व मानते हैं। वे निजि सम्पत्ति और खुला बाजार को विकास का पैमाना मानते हैं।[4] इस कारण से समाज के लोगों में आर्थिक विषमता बढ़ी है और समाज में गरीब दिन-प्रतिदिन गरीबी के दलदल में फँसता जा रहा है और अमीर एवं कारपोरेट घरानों की सम्पत्ति में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी  होती जा रही है। ऐसा कहा जाता है कि जितनी अधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता दी जाएगी, समाज में समानता उतनी ही सीमित हो जाएगी और समानता स्थापित करने के लिए जितना अधिक दबाव बनाया जाएगा उतना ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता सीमित हो जाएगी।

वहीं दूसरी आरे समाजवादी विचारक सामाजिक न्याय को सर्वप्रमुख मानते हैं और सामाजिक न्याय को समानता से जोड़कर देखते हैं ताकि सामाजिक-आर्थिक विषमता का न्यूनीकरण हो सके और गरीबी को निर्णायक रूप से कम किया जा सके ताकि सभी लोगों को आर्थिक अवसर समान रूप से मिल सके। सामाजिक न्याय के तहत राज्य की नीतियाँ सतत रोजगार प्रदान करने और उनकी आय में वृद्धि करने के लिए आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए। साथ ही समाज के सभी वर्गों तक संसाधनों का वितरण सर्वमान्य स्वीकृति के आधार पर हो, यही सामाजिक न्याय का मूल तत्व है। समाज के सभी वर्गों के लोगों की स्वतंत्रता, समानता और अधिकारों की रक्षा ही सामाजिक न्याय है।[5] यह मानवाधिकार एवं समाज की अवधारणा पर आधारित एक ऐसी संकल्पना है, जिसका उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना है और जो समावेशी समाज की परिकल्पना के रास्ते से ही होकर गुजरती है।

इस प्रकार स्वतंत्रता और समानता सामाजिक न्याय के मूल में निहित हैं। किसी एक के अभाव में सामाजिक न्याय का अभाव होगा, क्योंकि स्वतंत्रता व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियों के विकास के लिए आवश्यक है, जिससे व्यक्ति की सृजनशीलता-कार्यशीलता में वृद्धि होती है। समानता के अभाव में दासत्व व गुलामी की स्थिति निर्मित हो जाती है। समाज में कुछ लोग बहुत आगे हो जाते हैं और कुछ बहुत ही पीछे हो जाते हैं। इसलिए स्वतंत्रता और समानता दोनों ही न्याय के लिए आवश्यक हैं।

सामाजिक न्याय और कल्याणकारी योजनाएँ

वर्तमान आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में उपभोक्तावाद और पूँजी-प्रेम  के परिणामस्वरूप समाज में विशेषीकरण का विकास हो रहा है और श्रम विभाजन जन्म ले रहा है। श्रम विभाजन ने किसान-मजदूर तथा कॉरपोरेट राजनेता-नौकरशाह  को एक-दूसरे से पृथक बना दिया है। समाज में सामाजिक-आर्थिक अन्तराल बढ़ रहे हैं और श्रम एवं पूँजी अलग-अलग व्यक्तियों के हाथों में चली गयी है, जिससे शोषण, उत्पीड़न तथा सम्पति एवं शक्ति का असमान वितरण होता जा रहा है। हम विकास के उच्च पायदान पर जाने की बात तो करते हैं, परंतु गरीबी एवं विषमता जिस पैमाने पर है, उसका इस तरह बने रहना सामाजिक न्याय के तहत स्वीकार्य नहीं है। गरीबी निर्णायक रूप से कम करना तथा सभी वर्गों और लोगों के लिए आर्थिक अवसर बढ़ना इसकी संकल्पना का महत्वपूर्ण तत्व है। समाज के प्रत्येक तबके के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने हेतु सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का निर्माण एवं कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी राष्ट्र और राष्ट्र के लोग स्वतंत्रता, समानता, सुरक्षा और सामाजिक कल्याण की नीतियों के निर्माण की माँग कर रहे हैं। इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2007 से हर वर्ष 20 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस घोषित किया है।[6]

असुरक्षित समूह के विकास हेतु  शिक्षा, स्वास्थ्य, राजेगार, प्रशिक्षण,पोषाहार इत्यादि की व्यवस्था के लिए तथा सामाजिक कल्याण की नीतियों के निर्माण हेतु बहुत सारी कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण हुआ भी है और संचालन भी हो रहा है। इसके लिए लोगों के द्वारा आवाज भी उठायी जा रही है।[7]

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार कानून, शिक्षा का अधिकार कानून, वृद्धों, बच्चों, महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्गों एवं उपेक्षित और असुरक्षित समूह के लिए कल्याणकारी योजनाएँ संचालित हो रही हैं। इसके बावजूद कम प्रगति की जा सकी है।[8] ये तमाम कल्याणकारी एवं सरकारी योजनाएँ भ्रष्टाचार की बालिवेदी पर चढ़ गयी हैं। भ्रष्टाचार न केवल ऊपरी स्तर पर देखा जा रहा है, बल्कि पूरी तरह से नीचे तक फैला हुआ है। राजनेता अपने निजी लाभ के लिए अपनी जनशक्ति का दुरूपयोग कर रहे हैं और नौकरशाह-राजनेता के स्वार्थ गठबन्धन सामाजिक न्याय के मूल्यों को नुकसान कर रहे हैं। आज इनके अमानवीय चरित्र जन-मानस के सामने प्रदर्शित हो रहे हैं। आज ईमानदार राजनीतिज्ञ एक दुर्लभ प्रजाति बन चुका है और लोकसेवक तानाशाह एवं भ्रष्ट हो गए हैं, जिस कारण लोगों के हितों के लिए निर्मित सामाजिक-आर्थिक कल्याण की योजनाओं को धरातल पर नहीं उतारा जा पा रहा है। इससे सामाजिक समरसता का अभाव हो रहा है।

शिक्षकों के संवर्ग और सामाजिक समानता का सवाल

यह आलेख बिहार शिक्षक नियुक्ति नियमावली 2023 के संदर्भ में लिखा गया है। इस आलेख में यह दर्शाया गया है कि शिक्षकों के बीच संवर्गीय और आर्थिक विभेद समाज में व्य...

सामाजिक न्याय और शिक्षा

कमजोर वर्गों में व्याप्त हानिकारक प्रथा, अंध-विश्वास, अवैज्ञानिक तथा आधुनिक अनुसंधान की अवहेलना भी इनकी मुक्ति के मार्ग में बाधक है। ग्रामीण क्षेत्रों में जादू-टोना, भूत-प्रेत तथा रूढ़िवादी परम्पराएँ इनके सामाजिक विकास में अवरोध पैदा कर रही हैं और समाज की मुख्य धारा से काफी दूर कर रही हैं। ऐसी हानिकारक प्रथाओं का त्याग करने की जरूरत है। इसके लिए जागरूकता कार्यक्रम को अधिक-से-अधिक प्रोत्साहित करने पर बल देना चाहिए और वैज्ञानिक अनुसंधान एवं वैज्ञानिक शिक्षा को सभी वर्गों तक ले जाना चाहिए। संवैधानिक  प्रावधानों के अन्तर्गत सामाजिक न्याय की संकल्पना के तहत शिक्षा सहज, सुलभ, नि:शुल्क तथा अनिवार्य होनी चाहिए। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत 6-14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून बनाया गया है। लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के प्रावधानों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि शिक्षा को बाजार के हवाले एव निजी क्षेत्र को सौंपने का प्रयास है।[9] जैसा कि हम जानते हैं कि शिक्षा के निजीकरण एवं बाजारीकरण से शिक्षा के अधिकार कानून का मतलब ही समाप्त हो जाता है। शिक्षा जगत के लोगों का मानना है कि शिक्षा नीति 2020 से स्वतंत्र शिक्षा व्यवस्था समाप्त हो जाएगी और शासक वर्ग के वैचारिक आधार पर निर्मित शिक्षा व्यवस्था हो जाएगी। शासक वर्ग शिक्षा का संचालन अपनी कंट्रोल पॉलिसी के तहत करेगा, जिससे शिक्षा में परम्परागत तथा अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के सम्माहित होने की सम्भावनाएँ बनी हैं। निजी एवं बाजार के हवाले शिक्षा होने से वंचित एवं कमजोर वर्गों के लोग शिक्षा से वंचित हो जाएँगे, जो सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधानों का भी उल्लंघन है।

सामाजिक न्याय और अजा-अजजा

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी की करीब एक चौथाई आबादी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों की है, जो कई पीढ़ियों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से वंचित रही है। आज भी सामाजिक व्यवस्था में देखने को मिलता है कि दलित वर्ग आर्थिक रूप से दूसरे पर निर्भर है, राजनीतिक रूप से शक्तिहीन तथा सांस्कृतिक रूप से उच्च जातियों के अधीन है। संवैधानिक तथा अन्य विधिक प्रावधानों के बावजूद यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि हमारे समाज में दलित एवं अन्य कमजोर वर्गों के प्रति अन्याय एवं शोषण निरन्तर जारी है। इसके लिए आवश्यक है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या के प्रतिशत के वास्तविक अनुपात के आधार पर धनराशि का उपयोग इन वर्गों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए हो और योजनाएँ बनायी जाएँ और उस पर खर्च किया जाए। शिक्षा एवं साक्षरता के स्तरों में विद्यमान भारी अन्तर को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाए।

सामाजिक न्याय और महिला

महिलाएँ हमारे समाज में गैर बराबरी वाला अर्द्धभाग है, जो भेदभाव का शिकार तथा असुरक्षित रही हैं। वे पितृसत्तात्मक समाज, सामाजिक निषेधों, अंधविश्वास, सांस्कृतिक व्यवहारों, प्रतिकूल सामाजिक परम्पराओं की वजह से हमेशा से ही असुरक्षित रही हैं। मनुस्मृति की इस उक्ति से और भी स्पष्ट हैः-

“पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थाविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र्य अर्हति।।

सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं को बराबरी की भागीदारी के बिना समतामूलक समाज की स्थापना असम्भव है।[10] इसलिए जरूरी है कि अनुकूल सामजिक-आर्थिक वातावरण तैयार हो, महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण हो ताकि अपने संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त कर सकें। महिलाओं को  प्रशिक्षण, कौशल विकास, समान रोजगार के अवसर प्रदान करना तथा उनके लिए प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक सुगम एवं सुलभ बनाया जाना और नियम कानून के जरिए महिलाओं के विरूद्ध प्रत्येक प्रकार की हिंसा को रोकने के लिए प्रभावशाली नियम बनाना और उनकी समीक्षा करना आवश्यक है। इसके साथ ही 2011 की जनगणना के आँकड़े के अनुसार भारत में लिंगानुपात 1000 पुरुष पर 943 महिलाएँ हैं। इस लिंगानुपात को सुधारना आवश्यक है। इसके लिए जरूरी है कि संसाधनों पर उनका नियंत्रण हो ताकि लैंगिक समानता और न्याय के सिद्धान्तों को स्थापित किया जा सके।

सामाजिक न्याय और बच्चे

विश्व में सर्वाधिक बच्चे भारत में हैं। विश्व का लगभग हर पाँचवाँ बच्चा भारत में रहता है। लगभग19 प्रतिशत बच्चे भारत में हैं। ऐसा अनुमान है कि देश कि कुल बच्चों में 40 प्रतिशत बच्चे असुरक्षित हैं, जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है। जैसे, जिनके पास रहने के लिए घर या आश्रय नहीं है, जिनके माता-पिता या अभिभावक उसकी देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं, जिनमें शारीरिक-मानसिक निःशक्तता है, शोषण से ग्रस्त बच्चे, हिंसा से पिड़ित बच्चे, सशस्त्र संघर्ष में फँसे बच्चे, गैर कानूनी कार्य में संलग्न बच्चे, बीमारी से ग्रसित बच्चे आदि (यूनिसेफ़ के मापदण्ड के अनुसार)। इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के जीवित बने रहने और उनकी समृद्धि, विकास एवं संरक्षण के लिए अत्यधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। देश में बच्चों के अधिकार और कल्याण के लिए संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं। बच्चे सर्वाधिक असुरक्षित समूह होते हैं। इसलिए समावेशी दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए। बच्चों के शारीरिक देख-रेख पर बल देना चाहिए। बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास के साथ-साथ उनकी देखरेख, शिक्षा, आवास, पोषण, स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान देना चाहिए ताकि अन्याय एवं असमानता को समाप्त किया जा सके।

सामाजिक न्याय और मजदूर

भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक वैश्वीकरण के कारण बेरोज़गारी, निर्धनता के चलते नौकरी की तलाश में लोग एक देश से दूसरे देश, एक राज्य से दूसरे राज्य और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्रवास करते हैं, जो अधिकांश मज़दूर वर्ग के लोग होते हैं। प्रवासन की वजह से जहाँ वे रहते है वहाँ इन्हें अत्यन्त कम अथवा न के बराबर सामाजिक संरक्षण प्राप्त होता है। कोविद 19 के समय में पूरे देश में लॉकडाऊन में हमने देखा कि प्रवासी मजदूर कितना लाचार एवं विवश हैं। इसलिए प्रवासी श्रमिकों के मान-सम्मान को ध्यान में  रखकर मजबूत श्रमिक नीतियों की जरूरत है ताकि सामाजिक संरक्षण के साथ सामाजिक सुरक्षा भी मिले। हाल के दिनों में संगठित क्षेत्र में श्रमिक कानून में बदलाव कर काम के घंटे को 12 घंटा किया गया है। पुन: काम के घंटे को आठ घंटा किया जाना चाहिए। उसी तरह ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत खेतिहर असंगठित श्रमिक एवं शहरों में कार्यरत निर्माण कार्य में संलग्न श्रमिक को समाजिक सुरक्षा एवं संरक्षण की आवश्यकता है ताकि अन्याय एवं असमानता की समाप्ति की जा सके।

सामाजिक न्याय एवं निःशक्त जन

ऐसे व्यक्ति जो शारीरिक एवं मानसिक अक्षमता के कारण पूर्णतः या आंशिक रूप से व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं, उन्हें नि:शक्त कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति प्रायः समाज में उपेक्षित जीवन जीते हैं। इसके लिए दिव्यांगजनों के प्रति सामाजिक व्यवहार को सुधारने वाले प्रयासों का विस्तार करना चाहिए। वैसे सभी बच्चों का पोषण एवं टीकाकरण शत-प्रतिशत सुनिश्चित होना चाहिए। निःशक्तता की सही पहचान कराकर उचित चिकित्सीय सहायता के आधार पर इलाज कराना चाहिए। इसके साथ ही सभी बच्चों को विद्यालय भेजना चाहिए। युवा एवं दिव्यांग व्यस्कों को परिवार और आर्थिक जीवन में पूरी तरह भाग लेने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।

सामाजिक न्याय एवं बुजुर्ग

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत बुजुर्गों की आबादी है। 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्ति को सामान्यतः वृद्ध माना जाता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, व्यक्ति की शारीरिक सक्रियता कम होती जाती है और वैसे-वैसे उनकी असुरक्षा भी बढ़ती जाती है। इनके लिए सामाजिक सुरक्षा योजना, वृद्धावस्था पेंशन योजना तथा चिकित्सीय सहायता जैसे प्रावधान किए जाने चाहिए।अकेलापन, परिवर से अलगाव एवं कमजोर स्वास्थ्य इनकी बड़ी समस्या है, जो परिवार के अन्य सदस्यों को वृद्धजनों की देखभाल के लिए उत्साहित करता है।

भारत : प्रसन्नता की प्रतीक्षा (वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट 2023)

एक जागरूक लोकतंत्र का रास्ता समाजवाद की ओर आगे ले जाता है और इसके लिए नागरिकों का जीवन-स्तर ऊपर उठाकर सुख और शांति का माहौल स्थापित करता है। लेकिन एक दिक्भ्र...

सामाजिक न्याय एवं उपेक्षित-असुरक्षित समूह

भारत में वैसे लोग, जिनके पास रहने के लिए घर या आश्रय नहीं है, बेरोज़गार मजदूर, रोग से पीड़ित व्यक्ति, सेक्स वर्कर, एच०आई०बी/एड्स से पीड़ित व्यक्ति, बन्धुआ मज़दूर, तलाकशुदा एवं विधवा महिलाएँ, अंधविश्वास से पीड़ित महिलाएँ, अनाथ बालिकाएँ, खानाबदोश लोग आदि वैसे समूह हैं, जो समाज में असुरक्षित, हाशिए पर स्थित एवं उपेक्षित हैं, जिन्हे संरक्षण की आवश्यकता है। उसी तरह जाति एवं सम्प्रदायिक प्रभावित लोगों, शरणार्थी,आन्तरिक विस्थापित लोग भी उपेक्षित एवं असुरक्षित वर्ग में आते हैं।

इस प्रकार सामाजिक न्याय का सिद्धान्त लोकतंत्र को सुदृढ़, अर्थपूर्ण एवं गतिशील बनाता है आरै शासन व्यवस्था को निरंकुश होने से रोकने का कार्य करता है। लेकिन वर्तमान आर्थिक नीतियों के अन्तर्गत जिस प्रकार आज सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी  क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है, शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली जैसे क्षेत्र निजी क्षेत्र एवं कारपोरेट के हवाले किए जा रहे हैं, यह देश के संवैद्यानिक प्रावधानों और सामाजिक न्याय की  संकल्पना के विपरीत है। युवा वर्गों में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है और रोज़गार के अवसरों का सृजन नहीं हो पाना तथा रिक्त पदों पर भर्ती नहीं हो पाना आदि ऐसे सवाल हैं, जो सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। सामाजिक न्याय युक्त समाज में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सामाजिक विकास, व्यक्ति के गरिमा पूर्ण जीवन, सभी व्यक्ति के आत्म-सम्मान की रक्षा, बिना भेदभाव के जीवन, सबके लिए न्याय, सभी के लिए समान अवसर, समाज का समावेशी विकास के आधार पर सोच विकसित करने और दुनिया को देखने एवं समझने का नया नजरिया होना चाहिए ताकि सामाजिक न्याय की संकल्पनाओं  के तहत गरीबी निवारण, सबके लिए मानवाधिकार, पूर्ण रोज़गार, सभी के लिए वैज्ञानिक शिक्षा, लैंगिक समानता, हाशिये पर स्थित लोग एवं असुरक्षित समूह के लोगों को समाज के विकास की मुख्यधारा में लाया जा सके।  

संदर्भ संकेत

  1. पांडेय तेजस्कर /पाण्डेय बालेश्वर, ‘समाज कल्याण प्रशासन’, रावत पब्लिकेशन, 2019, पृष्ठ 190, 195, 197, 202
  2. मिश्र दया कृष्ण/राठौड़ ए०एस०, ’सामाजिक प्रशासन’, ISBN-81-85788-16-2 पृष्ठ-2, 3
  3. सिंह बीरकेश्वर प्रसाद, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, ज्ञानदा पब्लिकेशन, संस्करण 2010 पृष्ठ-95
  4. सिंह अस्मिता, ‘नारी मुक्तिः दशा एवं दिशा’, समीक्षा प्रकाशन - 2017, पृष्ठ-36, 38
  5. कटारिया सुरेन्द्र, ‘सामाजिक प्रशासन’, आर०बी०एस०ए० पब्लिशर्स, सातवां संस्करण 2013, पृष्ठ-36, 38,
  6. सचदेव आर० डी०, ‘भारत में समाज कल्याण प्रशासन’, किताब महल पब्लिशर्स, दसवाँ संसकरण, 2013 पृष्ठ-25
  7. त्रिपाठी श्री प्रकाश मणि, ‘राजनीतिक अवधारणाएँ एवं प्रवृत्तियाँ’ ज्ञानदा प्रकाशक, चतुर्थ संशोधित एवं परिवर्धित संसकरण-2007, पृष्ठ 25
  8. भौमिक अभिजीत, ‘भारतीय समाजः समस्याएँ एवं समाधान’, ओमेगा पब्लिकेशन, संस्करण 2015, पृष्ठ-62, 17
  9. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का ड्राफ्ट  
  10. फड़िया बी०एल०, ‘लोक प्रशासन’ पृष्ठ- 877/1018 साहित्य भवन पब्लिकेशन, संस्करण 2008

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