शिक्षा नीति 2020 और रोजगार की अवधारणा

Dr. Anil Kumar Roy     14 minute read         

यह लेख ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के पटना जिला सम्मेलन में दिये गये भाषण का लेखान्तरण है। भारत ऐतिहासिक रूप से भीषण बेरोजगारी और असमानता के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में नवागत शिक्षा नीति से अपेक्षा थी कि वह इन समस्याओं के समाधान के रास्ते बनाएगी। परंतु इस नीति के परिणाम इन समस्याओं को बढ़ाने वाले साबित होंगे।

रोजगार के दो तरीके हैं। एक वह, जिसमें शैक्षिक ज्ञान की विशेष आवश्यकता नहीं है। जैसे, ईंट ढोना, रिक्शा चलाना, खेत में निकौनी करना, ठेलों या बाजारों में फल-सब्जी आदि बेचना, घरों में या होटलों-ढाबों में साफ-सफाई का काम करना आदि। असंगठित क्षेत्र के ये और इस तरह के अन्य ढेर सारे काम करके जीवन-निर्वाह करने के लिए न तो स्कूल-कॉलेज से गुजरकर आने की जरूरत है और न ही किसी सर्टिफिकेट की। स्वाभाविक मानवीय सूझ-बूझ और संगति में प्राप्त कौशलों के द्वारा ये काम कर लिये जा सकते हैं।

दूसरे तरीके के लिये स्कूल-कॉलेज में आवाजाही करके एक सर्टिफिकेट लेकर बाहर आने की जरूरत है, जिस सर्टिफिकेट में संबंधित विषय/क्षेत्र में छात्र द्वारा हासिल की गयी दक्षता का स्तर अंकित होता है। तमाम तरह की नौकरियों में, जिसको पाने के लिए ही अधिकतर लोग सर्टिफिकेट हासिल करते हैं, किसी संस्थान द्वारा दिये गये इस प्रमाणपत्र की जरूरत होती है। इसके अलावा अनेक तरह के व्यवसायों और स्वरोजगार में भी शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होती है।इस तरह स्कूल-कॉलेज में प्राप्त शिक्षा के तार रोजगार के बाजार में उपलब्ध अवसरों और आवश्यकताओं से जुड़ते हैं।अत: शिक्षा और रोजगार का, विशेषकर संगठित क्षेत्र में प्राप्त होने वाले रोजगार का, सीधा और अन्योन्याश्रय संबंध है।

सामाजिक न्याय का वर्तमान संदर्भ

एक विचारधारा के रूप में सामाजिक न्याय सभी इंसानों को समान मानने के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इसके अनुसार मनुष्य-मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किस...

इधर हाल के वर्षों में रोजगार का क्षेत्र संकट में रहा है। यद्यपि देश ने दुनिया में सबसे तेज विकास दर हासिल की है1 और इसकी अर्थव्यवस्था ने दुनिया के अधिकांश देशों को पछाड़ दिया है2, फिर भी यह विगत 45 वर्षों में सबसे अधिक बेरोजगारी वाला देश बना हुआ है। वर्ष 2023 में, कोरोना के गुजर जाने के बाद भी, बेरोजगारी 8 प्रतिशत के ऊपर या उसके आस-पास है और यह ब्राजील, तुर्की, स्पेन और साउथ अफ्रीका को छोड़कर दुनिया में सबसे अधिक है।3 अत: इस चिंता का उपजना स्वाभाविक है कि वर्ष 2020 में जिस शिक्षा नीति को इतने जोर-शोर से लाया गया, उसमें रोजगार की बदहाली को सँभालने की कितनी संभावना है। शिक्षा नीति के प्रभावस्वरूप रोजगार के दो आयाम हो सकते हैं - 1. शिक्षा में रोजगारऔर 2.  शिक्षा के माध्यम से रोजगार। पहले इस नीति के परिणामस्वरूप शिक्षा में रोजगार के अवसरों को तलाशते हैं।

शिक्षा में रोजगार:

विद्यालयों-महाविद्यालयों की बंदी का रोजगार पर प्रभाव: शिक्षा नीति के अनुच्छेद 7.2 में कहा गया है कि सारे विद्यालयों का वित्तपोषण ‘व्यावहारिक’ नहीं है।4 इसके अनुच्छेद 7.3 में यह भी कहा गया है कि बहुत सारे विद्यालयों में शैक्षिक गुणवत्ता को कायम नहीं रखा जा सकता है।5 इसलिए 5 से 10 किलोमीटर की परिधि में अच्छे स्कूल खोले जाएँगे।6 इसका अर्थ है कि विद्यालयों की संख्या, विद्यालयों को अच्छा करने के नाम पर, कम की जाएगी। इसी दृष्टि के तहत प्रत्येक प्रखंड में एक पीएमश्री विद्यालय की परियोजना शुरू की गयी है।7 विद्यालयों को कम किए जाने की व्यवस्था के दूसरे घातक परिणामों की चर्चा छोड़ दें, केवल रोजगार की दृष्टि से ही देखें, तो स्वाभाविक है कि विद्यालयों के कम होने के कारण उनमें काम करने वाले शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों की संख्या कम हो जाएगी।

इस नीति के अनुसार केवल विद्यालयों का ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा संस्थाओं का भी समेकन होगा।8 इस नीति के परिणामस्वरूप अनेक महाविद्यालय बंद हो जा सकते हैं। और, इस तरह उच्च शिक्षा में भी शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों के रूप में प्राप्त होने वाले रोजगार के अवसर सिकुड़ जाएँगे।

इस नीति में सार्वजनिक विद्यालयों-महाविद्यालयों को समेकित करने की ही बात नहीं कही गयी है, बल्कि निजी विद्यालयों-महाविद्यालयों को ‘प्रोत्साहित’ करने की भी बात कही गयी है।9इस तरह भी सार्वजनिक विद्यालयों की प्रासंगिकता क्षीण होती जाएगी और वे बड़ी संख्या में बंद होंगे। इस तरह सार्वजनिक विद्यालयों-महाविद्यालयों में रोजगार की संभावना लगातार संकुचित होती जाएगी।

डिजिटल एवं दूरस्थ शिक्षा का रोजगार पर प्रभाव: दूसरा यह कि इस शिक्षा नीति में तीसरी कक्षा से ही दूरस्थ एवं डिजिटल शिक्षा दिये जाने पर बल दिया गया है10 और इसे कार्यान्वित करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों के द्वारा दीक्षा, SWAYAM, SWAYAM Prabha, National Digital Library, Spoken Tutorial, FOSSEE, Virtual Lab, e-YANTRA, NROER, मेरा मोबाइल मेरा विद्यालय, SMILE, Project Home Classes, पढ़ाई तुहार दुआर, बुनियाद, ई-विद्वान आदि दर्जनों डिजिटल प्लेटफ़ार्म तथा टीवी चैनल्स शुरू किए गये हैं। इसके शैक्षिक परिणाम क्या होंगे और ऐसी शैक्षिक प्रक्रिया से किस गुणवत्ता के उत्पाद निर्मित होंगे, यह बहस का अलग विषय है, परंतु इतना स्पष्ट है कि इस दूरस्थ एवं डिजिटल शिक्षा के प्रसार पर अत्यधिक बल देने से शिक्षकों एवं शिक्षकेतर कर्मचारियों की जरूरत कम हो जाएगी।

शैक्षिक प्रक्रिया में स्थानीय कार्यकर्ताओं के प्रवेश का रोजगार पर प्रभाव: तीसरा यह कि पठन-पाठन की प्रक्रिया में सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्थानीय रूप से उपलब्ध निपुण लोगों के साथ ही पीयर ट्यूटरिंग के रूप में छात्रों से भी सहयोग लेने का सुझाव दिया गया है।11 यह सहयोग दैनिक रूप से आमंत्रित शिक्षकों और कौशल प्रशिक्षकों के रूप में लिया जाएगा। विभिन्न मत-मतांतरों और अप्रशिक्षित व्यक्तियों के विद्यालय एवं शैक्षिक प्रक्रिया में प्रवेश और हस्तक्षेप के क्या परिणाम होंगे, यह फिर अलग से विमर्श का विषय है, लेकिन इस तरीक़े से स्थायी शिक्षकों की जरूरत कम किए जाने की आशंका तो होती ही है।

कुल मिलाकर यह कि इस शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप शिक्षा में प्राप्त होने वाले अवसर सिमट जाएँगे।

बिहार की स्कूली शिक्षा : नीति और नीयत पर सवाल

प्रस्तुत आलेख में तर्कपूर्ण ढंग से यह निष्पादित किया गया है कि वित्तीय अभाव का रोना रोकर सरकार ने शिक्षकों के बीच संवर्गीय विषमता उत्पन्न कर दी। चहारदीवारी क...

शिक्षा के माध्यम से रोजगार:

रोजगार के बारे में शिक्षा नीति की दृष्टि: अब बात करते हैं शिक्षा के माध्यम से प्राप्त होने वाले रोजगार के बारे में, जिस पर यह शिक्षा नीति बहुत बल देती है और मीडिया से लेकर पूरा सरकारी कुनबा प्रचार करता है और आमजन, जो इन नेताओं और मीडिया के द्वारा परोसे गए संवादों की तीलियों को जोड़कर धारणा बनाते हैं और इसे इस रूप में स्वीकार करते हैं कि इस नीति ने ‘विश्वगुरु’ होने के बंद दरवाज़ों को पूरी तरह खोल दिया है। इसी धारणा-निर्माण का प्रयास करते हुए शिक्षा नीति के आते ही मसौदा समिति के अध्यक्ष कस्तूरीरंगन ने इसे ‘job ticket for graduate’ बताया था,12 जबकि खुद उनके द्वारा तैयार किए गए मसौदे से वर्तमान शिक्षा नीति पूर्णतः भिन्न है - स्वरूप में भी और पहुँच में भी। केंद्रीय शिक्षा और कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तो हाल में कहा है कि इस शिक्षा नीति के कारण रोजगार पाने वालों की तादाद बढ़ भी गयी है।13 हालाँकि शिक्षा नीति अभी न तो पूरी तरह लागू हो पायी है और न ही इस नीति से प्रभावित छात्र अभी रोजगार के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए हैं। फिर भी उन्हें लगता है कि इस शिक्षा नीति की धमक से ही रोजगार में सुधार आ गया है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन ने बताया कि रोजगार और अनुसंधान को बढ़ाना नई शिक्षा नीति का उद्देश्य है।14 उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी इस नीति को युगांतरकारी मानते हैं कि पुरानी शिक्षा नीति मैकॉले की पद्धति पर आधारित थी, जो केवल नौकरी दिलाने का उद्देश्य रखती थी, जबकि नई शिक्षा नीति से युवा रोजगार प्रदाता बनेंगे।15 इसके पहले स्वयं प्रधानमंत्री अपील कर चुके थे कि युवा नौकरी करनेवाले नहीं, नौकरी देनेवाले बनें। तो पहला निष्कर्ष यह कि इस नीति के निर्माताओं का दृष्टिकोण ही शिक्षा के माध्यम से नौकरी पाने का नहीं, बल्कि स्वरोजगार हेतु सक्षम बनाने का है। इसी दृष्टि-सूत्र से इस शिक्षा नीति का ताना-बाना बुना गया है। भारत की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में यह दृष्टिकोण भी कितना वाजिब है और उसे कहाँ ले जाएगा, विभिन्न पैमानों पर इसे परखने की कोशिश करते हैं।

सामाजिक संदर्भ : ब्यूरोक्रेट्स से लेकर मंत्री तक और उनके पीछे मीडिया भी शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से रोजगार वृद्धि की अवधारणा को परोस रहे हैं, उसका कारण है कि इस नीति में कक्षा छह से ही व्यावसायिक शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण पर जोर दिया गया है।16 और उच्च शिक्षा में 50% छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा में खींच लाने का ध्येय रखा गया है।17 इस व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर ‘अपने हाथों से काम करने का अनुभव’ प्रदान करने का मिथ गढ़कर, साधन विहीन सरकारी विद्यालयों में, बच्चों को बढ़ईगिरी, बिजली का काम, मिट्टी का बर्तन आदि का कौशल प्रशिक्षण दिया जाएगा।18 यक़ीन कीजिए, इन्हीं कौशलों का उल्लेख किया गया है। कौशल प्रशिक्षण के नाम पर, जैसा कि शिक्षा नीति में उल्लिखित है, यदि बढ़ईगिरी का प्रशिक्षण दिया जाता है तो, जाहिर है, उसमें बढ़ई, लुहार आदि जातीय समुदाय के बच्चे ही अभिरुचि ले पायेंगे, क्योंकि यह उनके जातीय/पैतृक पेशे के अनुकूल होगा। ब्राह्मण समुदाय का कोई बच्चा शायद ही उस ट्रेड में अभिरुचि ले। अपरिपक्वस्था में कौशल प्रशिक्षण के शिक्षाशास्त्रीय पहलू की चर्चा अभी छोड़ भी दें तो भी अभावग्रस्त सरकारी विद्यालयों19 में पारंपरिक जातीय पेशे का प्रशिक्षण जातीय पेशों की उखड़ी हुई जड़ों को फिर से स्थापित करने का काम करेगा। पेशे के आधार पर जाति के विभाजन ने भारतीय समाज को हजारों वर्षों से एक बंद और ठहरा हुआ समाज बना कर रखा है। तो दूसरी बात यह कि इस शिक्षा नीति के रोजगार संबंधी दृष्टिकोण फिर से उसी भारतीय सामंती जातीय व्यवस्था को लौटाने के प्रयास जैसा साबित होगा, जिससे उबरने के जद्दोजहद में आजादी के बाद से यह देश लगा हुआ था।

बिहार की स्कूली शिक्षा : नीति और नीयत पर सवाल

प्रस्तुत आलेख में तर्कपूर्ण ढंग से यह निष्पादित किया गया है कि वित्तीय अभाव का रोना रोकर सरकार ने शिक्षकों के बीच संवर्गीय विषमता उत्पन्न कर दी। चहारदीवारी क...

कौशल प्रशिक्षण और सस्ती मजदूरी का संदर्भ : तीसरी बात कि अनेक शिक्षाविद लगातार इस बात को दुहराते रहे हैं कि शिक्षा नीति में कौशल प्रशिक्षण के नाम पर जिन कौशलों के प्रशिक्षण का उल्लेख किया गया है, वे निम्न आय वाली मजदूरी के कौशल हैं। अर्थात् यह शिक्षा नीति सरकारी स्कूल में पढ़नेवाले पिछड़े एवं गरीब परिवार के बच्चों को निम्न आय वाले कौशलों में ढकेलकर कॉरपोरेट्स तथा उच्च एवं मध्य वर्ग की सेवा के लिए सस्ते कुशल मजदूर मुहैया कराने का दृष्टिकोण रखती है।

असमानता का संदर्भ : चौथी बात। शिक्षा नीति में सब तक शिक्षा पहुँचाने की असमर्थता को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि सारे सरकारी विद्यालयों का वित्तपोषण और गुणवत्ता को बनाये रखना संभव नहीं है।20  इसलिए संभावना है कि इन ‘सर्वहारा’ विद्यालयों में हाथ से काम किए जाने योग्य सस्ती मजदूरी वाले कौशलों का प्रशिक्षण ही दिया जा सकेगा, जैसा कि नीति में निर्दिष्ट भी है। जबकि साधन-संपन्न परिवारों के बच्चे महँगे निजी विद्यालयों में कंप्यूटिंग, कोडिंग, मशीन लर्निंग, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस, वर्चुअल रियलिटी आदि सीखेंगे। और, इस तरह वे पूँजी और ज्ञान के साम्राज्य पर राज करेंगे और अपने हितों के अनुकूल विचार-निर्माण कर सकने में सक्षम होंगे। इस तरह विद्यालयों के अलग-अलग स्तरों में ज्ञान के अलग-अलग स्तर होंगे और इस स्तर-भिन्नता के विक्टिम (शिकार) बच्चे होंगे। अर्थात् विद्यालय असमानता का जनक होगा और फिर वह सामाजिक असमानता की नयी श्रेणियों के जन्म और पोषण का कारण बनेगा।21

आर्थिक बाधा और रोजगार का संदर्भ : शिक्षा नीति 2020 सार्वजनिक शिक्षा के वित्तपोषण से हाथ खींचने के सिद्धांत पर काम करती है। इसीलिए हाल के दिनों में तकनीकी पाठ्यक्रमों के शिक्षण शुल्क में वृद्धि की गई और अनेक शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों को ‘स्वायत्तता’ के नाम पर स्ववित्तपोषित बनाने की क़वायद की गई है तथा शैक्षिक संस्थानों के द्वारा ऋण लिए जाने की व्यवस्था की गयी है। ऐसी स्थिति में उच्च शिक्षा में शिक्षण-शुल्क का ज्यादा होना, इतना ज्यादा होना कि वह कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग की पहुँच से दूर हो जाए, संभव है। जब कमजोर वर्ग के बच्चों की पहुँच उच्च शिक्षा तक नहीं होगी या कम होगी तो उन वर्गों में शिक्षा के कारण प्राप्त होने वाले रोजगार में भी कमी आयेगी।

अपूर्ण शिक्षा शिक्षा और रोजगार का संदर्भ : एक बात यह भी कि नयी व्यवस्था में स्नातक की कक्षा में प्रत्येक वर्ष सर्टिफिकेट, डिप्लोमा, डिग्री आदि ‘निकास के कई विकल्प’ उपलब्ध कराये गये हैं।22कमजोर वर्ग के बच्चे, जो महँगी शिक्षा के कारण लंबे समय तक मैदान में टिक पाने में असमर्थ होंगे, वे बीच में ही सर्टिफिकेट या डिप्लोमा की डिग्री लेकर बाहर निकल जाएँगे। निश्चय ही इस अपूर्ण अल्पकालिक सर्टिफिकेट का महत्व पूर्णकालिक सर्टिफिकेट से कम महत्व का होगा। ऐसे में अपनी आर्थिक विवशता के करण अपूर्ण शिक्षा प्राप्त बच्चे पूर्ण शिक्षा प्राप्त बच्चों की सामने रोजगार के बाजार में ठहर नहीं पायेंगे। अर्थात् पूर्णकाल तक नहीं टिक पाने वाले कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए रोजगार प्राप्त कर पाना दुष्कर हो जाएगा।

सांप्रदायिकता के ख़तरे एवं भारतीय संविधान

हाल के दिनों में बहुसंख्यक सांप्रदायिक शक्तियों ने इस देश में सामाजिक विभाजन की जंग छेड़ रखी है। यह सत्ता-लोलुप राजनीतिक दल की शह पाकर हो रहा है। देश की सामा...

ज्ञानात्मक रूप से अक्षम प्रतिस्पर्धी उत्पाद और रोजगार का संदर्भ : इसके साथ किसी भी स्तर पर विषय-बदलाव की भी व्यवस्था की गयी है।23 अर्थात् स्नातक में इतिहास विषय से उत्तीर्ण छात्र स्नातकोत्तर में फिजिक्स विषय लेकर पढ़ सकता है। यदि कोई छात्र ऐसा करता है और किसी विशेष सामर्थ्य के कारण वह स्नातकोत्तर में अच्छे अंक ले भी आता है तो भी रोजगार के बाजार में फिजिक्स विषय के साथ स्नातक और स्नातकोत्तर किए अभ्यर्थी के सम्मुख उसे दोयम दर्जे का ही समझा जाएगा। विषयगत क्षमता के क्षेत्र में ऐसे छात्रों को विश्वविद्यालयों की भट्ठी से निकलनेवाली दो नंबर की ईंटों के रूप में चिह्नित किया जाएगा और उनके सम्मानजनक रोजगार पाने की संभावना कम होगी।

कुल मिलाकर यह कि शिक्षा के माध्यम से प्राप्त होनेवाले रोजगार के अवसर भी कमजोर परिवार के बच्चों के लिए सिमट जाएँगे। अर्थात् यह शिक्षा नीति सामर्थ्यवानों की एक अलग दुनिया और सामर्थ्यहीनों के लिए एक अलग दुनिया का निर्माण करेगी। यह मानवीय और सामाजिक मूल्यों के ही नहीं, राष्ट्रीय हितों और संवैधानिक स्थापनाओं के भी विपरीत है।

तो फिर क्या करें? सबसे पहले तो आवश्यकता है कि सरकारें जनपक्षी हों। आज जिस प्रकार सरकारें कॉर्पोरेट-विकास के ध्येय से काम कर रही हैं, उससे असमानता लगातार बढ़ती जाएगी और आम आदमी के जीवन में अभावों, बदहालियों और आपदाओं का अंबार हो जाएगा। ऐसा न हो, इसलिए सरकारों को मानव-विकास के ध्येय से काम करना होगा। सरकारें इस ध्येय से विचलित न हों, इसके लिए आम आदमी को भी लगातार सजग रहकर अपने लोकतांत्रिक हथियारों - विरोध, धरना, प्रदर्शन, लेखन, विमर्श आदि - का प्रयोग करते रहने होगा। सामाजिक जागरूकता के इस अभियान में बुद्धिजीवियों और संगठित नागरिकों का दायित्व अधिक हो जाता है। आम आदमी में सर्वव्यापी जागरुकता होने से राजनीतिक दबाव बनता है और इस राजनीतिक दबाव से सरकारों को जनपक्षी बनाये रखने में मदद मिलती है।

शिक्षा नीति 2020 के प्रावधान शिक्षा के निजीकरण के रास्ते को आसान ही नहीं बनाते हैं, बल्कि उसकी वकालत करते हैं और सार्वजनिक शिक्षा के ऊपर उसे लादने का प्रयास करते हैं। जैसे, अनुच्छेद 7.10 का वह प्रावधान, जिसमें सरकारी स्कूल को निजी स्कूल के साथ मिलकर काम करने की अनुशंसा की गयी है।24 शिक्षा को सब्जी खरीदने या कपड़ा पहनने जैसे व्यक्तिगत पसंद पर नहीं छोड़ा जा सकता है। यह राष्ट्रीय महत्व का मसला है, जो विभिन्न प्रकार से मानवीय, सामाजिक, आर्थिक, राष्ट्रीय आदि हितों को प्रभावित करता है। कॉर्पोरेट में मिलने वाली नौकरी को लक्ष्य बनाकर महँगी निजी संस्थाओं के द्वारा प्रदत्त शिक्षा के उत्पाद वस्तुत: एक व्यापारी होते हैं, जिन्होंने शिक्षा में पूँजी लगायी है और अब नौकरी से मुनाफा कमाना चाह रहे हैं। मुनाफे की इस चाह को भुनाकर कॉरपोरेट सारी मानवीय, सामाजिक संवेदनाओं का गला घोंटकर उन्हें अपने निजी विकास का असंवेदनशील यंत्र बनाकर रख देते हैं। सार्वजनिक और मानवीय हितों के लक्ष्य को ध्यान में रखकर सार्वजनिक शिक्षा ही गढ़ी जा सकती है। जब शिक्षा पूर्ण रूप से राज्य के द्वारा संचालित होती है तो सार्वजनिक संस्थाओं का विस्तार होता है, उसमें मुनाफा नहीं, लोकहित के तत्व विद्यमान होते हैं, जिससे गरिमापूर्ण रोजगार की संभावना भी सृजित होती है। इसलिए सर्वसुलभ और सर्वव्यापी सार्वजनिक शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है।

शिक्षकों के संवर्ग और सामाजिक समानता का सवाल

यह आलेख बिहार शिक्षक नियुक्ति नियमावली 2023 के संदर्भ में लिखा गया है। इस आलेख में यह दर्शाया गया है कि शिक्षकों के बीच संवर्गीय और आर्थिक विभेद समाज में व्य...

सर्वसुलभ और सर्वव्यापी सार्वजनिक शिक्षा में दो विशेषताओं का होना निहायत आवश्यक है। पहलासमान स्कूल एवं कॉलेज प्रणालीतथा दूसरा पड़ोस का विद्यालय। समान स्कूल प्रणाली की ओर बढ़ने की पहल बिहार में शुरू की गयी थी। परंतु असमानता पर आधारित इस सामाजिक एवं राजकीय व्यवस्था में वह अधिक देर तक साँस नहीं ले सकी और असमय कालकवलित हो गयी। समान स्कूल-कॉलेज प्रणाली का मतलब है कि सभी स्कूल-कॉलेज में अनिवार्य रूप से न्यूनतम भौतिक एवं शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो, जिससे उस भवन या स्थान को स्कूल/कॉलेज कहा जा सके और वहाँ की गतिविवधि को शिक्षा माना जा सके। दूसरा यह कि पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा का सख्ती से पालन हो, जिससे उस विद्यालय के पोषक क्षेत्र में आने वाले सभी बच्चों का नामांकन उसी विद्यालय में हो। ऐसा होने से उस पोषक क्षेत्र के सभी अधिकारियों, जन प्रतिनिधियों और समृद्ध-सक्षम लोगों के बच्चे उसी विद्यालय में नामांकित होंगे, जिससे सक्षम लोगों की भी निगाहें विद्यालय पर रहेंगी और तब विद्यालय अपने कुपोषण और मूर्च्छा से उबरकर श्रेष्ठ एवं अधिकतम निर्गम प्रदान कर सकेंगे। तभी शिक्षा में और शिक्षा के माध्यम से सम्मानजनक, विवेकसम्मत और राष्ट्रीय-मानवीय हितों के अनुकूल रोजगार की संभावना है।

— ००० —  

संदर्भ स्रोत :

  1. https://pib.gov.in
  2. https://www.bbc.co.uk
  3. https://tradingeconomics.com
  4. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020  
  5. उपर्युक्त
  6. अनुच्छेद 7.6, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 
  7. https://pmshrischools.education.gov.in
  8. देखें, अनुच्छेद 10, संस्थागत पुनर्गठन और समेकन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  9. अनुच्छेद 8.4, 8.7 आदि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020
  10. देखें, अनुच्छेद 3.5, 9.3 (झ), 12.2, 12.5 आदि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  11. देखें अनुच्छेद 2.7, 5.25, 6.20 आदि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  12. timesofindia
  13. timesnownews
  14. bhaskarhindi
  15. navbharattimes
  16. अनुच्छेद 4.26, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  17. अनुच्छेद 16.5, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  18. अनुच्छेद 4.26, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  19. 2 अगस्त, 2021 को लोकसभा में शिक्षामंत्री ने जबाव दिया था कि राष्ट्रीय स्तर पर आरटीई के निर्देशों का अनुपालन महज़ 25.5% हुआ है।
  20. अनुच्छेद 7, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  21. thequint.com
  22. अनुच्छेद 11.9, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  23. देखें अनुच्छेद 4.2, 11.9 आदि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  24. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020  
× लोकजीवन पर प्रकाशित करने के लिए किसी भी विषय पर आप अपने मौलिक एवं विश्लेषणात्मक आलेख lokjivanhindi@gmail.com पर भेज सकते हैं।

Disclaimer of liability

Any views or opinions represented in this blog are personal and belong solely to the author and do not represent those of people, institutions or organizations that the owner may or may not be associated with in professional or personal capacity, unless explicitly stated. Any views or opinions are not intended to malign any religion, ethnic group, club, organization, company, or individual.

All content provided on this blog is for informational purposes only. The owner of this blog makes no representations as to the accuracy or completeness of any information on this site or found by following any link on this site. The owner will not be liable for any errors or omissions in this information nor for the availability of this information. The owner will not be liable for any losses, injuries, or damages from the display or use of this information.


Leave a comment