Category जन पत्रकारिता

भारत में बढती असमानता पर ऑक्सफेम की रिपोर्ट

grayscale photo of people holding banner
जब जोंक पूँजीपति खून चूसने में मशगूल होते हैं, राजसत्ता उन रक्त्जीवियों की हिफाजत में सन्नद्ध होती है और बुद्धिजीवी भी सत्ता के दरबार में सारंगी बजाकर चारण-गान करने में विभोर होते हैं तो घने अंधेरों में घिरे भूखे और अधनंगे लोग, रोशनी की तलाश में, सड़कों पर उतर आते हैं. दुनिया में अब तक जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं, वहाँ भी इसी तरह का फर्क रहा है. एक तरफ बेतहाशा अमीर रहे हैं और दूसरी तरफ अन्न और वस्त्र के लिए बिलबिलाते लोगों का हुजूम रहा है. और, इन दोनों के बीच खड़ी सत्ता अमीरों की तरफदारी में बिलबिलाते लोगों को क़ानून का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर डंडे बरसाती रही है.

धार्मिक दंतकथाओं की कुहेलिका में खोती जाती वैज्ञानिक बहस

male game character
हम "मेरा भारत महान" का नारा लगाते हुए आदिम युग में प्रवेश कर रहे हैं।सा किया जा सकता है? क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सारी शीर्षस्थ संस्थाएं अप्रामाणिक और अविश्वसनीय हो गई है?

लोकसभा में उपलब्ध कराई गई जानकारी ऐसी भी होती है

शिक्षा में अभिरुचि रखने वाले हर शख्स के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि लोकसभा के अतारांकित प्रश्न संख्या 1094 के उत्तर में दिनांक 17 दिसंबर, 2018 को शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सत्यपाल सिंह ने क्या जवाब दिया। आर टी…

लोकतंत्र, पुलिस और हम (लोकतंत्र की शव-परीक्षा – 1)

street, road, people
यही लोकतंत्र है. राजतंत्र और लोकतंत्र में बहुत फर्क नहीं है. प्रवृत्ति वही है, प्रक्रिया में थोडा-सा बदलाव करके झाँसा उत्पन्न किया गया है. राजतंत्र में जहाँ सामंतों और सैनिकों के बल पर जनता में दहशत उत्पन्न करके सिंहासन पर काबिज हुआ जाता है, वहीँ लोकतंत्र में पूँजीपतियों, अपराधियों के बल पर जनता की भावनाओं और संवेदनाओं को नियंत्रित करके समर्थन प्राप्त कर लिया जाता है.

निजी विद्यालयों की लूट पर लगाम लगाने का माँगपत्र

write, child, school
इतना ही नहीं। ये विद्यालय शिक्षा-बिक्री केन्द्र के साथ ही वस्तु-विक्रय के रूप में भी धंधा करते हैं। इन विद्यालयों ने पोशाक, टाई, बेल्ट, डायरी, कॉपी, कलम के साथ ही निजी प्रकाशकों की हर साल बदली जाने वाली किताबों को अपने यहाँ से या निर्दिष्ट दूकान से ही खरीदने के लिए विवश करके शिक्षा के मंदिर को परचून की दूकान से भी बदतर बना दिया है।

आम बजट 2018 : किसके लिए?

gray pen beside coins on Indian rupee banknotes
निश्चय ही यह बजट उन एक प्रतिशत लोगों के लिए है, जिनके हिस्से में 73 प्रतिशत विकास जाता है. बाकी 99 प्रतिशत लोगों के लिए भी ढूँढने पर कुछ मिल ही जाएगा. ऐसा ही है हमारा आम बजट, 2018. यह ऐसा बजट है, जिसकी चिंता के केंद्र में आम आदमी नहीं है, कॉर्पोरेट और कंपनियां हैं. पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे की चिंता कर रहा है, इसलिए सरकार भी उनकी चिंता कर रही है. शायद आम लोगों के लिए अभी चिंता किये जाने की जरूरत भी नहीं है. आम लोग अभी हिन्दु-मुसल्माअन, मंदिर-मस्जिद, तीन तलाक, पाकिस्तान, चीन, तिरंगा, राष्ट्रवाद आदि की चिंता में लगे हैं. .......... जब वे भी अपनी चिंता करने लगेंगे तो सरकार को भी उनकी चिंता होगी. धन्यवाद!

सोवियत क्रांति के सौ वर्ष

man holding a book statue

साल 2017 सोवियत क्रांति का सौवाँ वर्ष है। पूरे विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियाँ और उसी तरह भारत की भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ ‘महान सोवियत क्रांति’ का शताब्दी वर्ष मना रही हैं। 8 नवंबर, 1917 को बोल्शेविकों के द्वारा सत्ता पर कब्जे…

सामाजिक न्याय के अस्पताल में शिक्षा की शव-परीक्षा

shallow focus photo of girl holding newspaper

‘सामाजिक न्याय’, ‘सबका साथ, सबका विकास’ आदि आजकल बास्केट बॉल खेल की गेंद की तरह हर राजनीतिज्ञ के हाथ में उछलता हुआ जुमला है और हर दल इस गेंद को अपने पाले में करने की कोशिश में लगातार लगा हुआ…

उच्च शिक्षा के ताबूत में एक और कील

Photograph of Girls Wearing Uniform
मुश्किल है हम उस दौर में जी रहे हैं, जिसके सामने से शिक्षा की शवयात्रा निकल रही है, लेकिन हमारी आँखें इसलिए नम नहीं हो रही हैं, क्योंकि हमें समझाया गया है कि शिक्षा कब्र में नहीं, स्वर्ग में जा रही है.

दंगों की राजनीतिक आर्थिकी

grayscale photo of man near smoke

इस साल रामनवमी के अवसर पर बिहार के कई जिलों में सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कोशिश हुई। इन तनावों को दंगा नहीं कहा जा सकता है। सांप्रदायिक दंगे का अर्थ होता है – संप्रदाय के आधार पर दोनों पक्षों…