कुपोषित शिक्षा की पीठ पर ‘शक्तिमान’ की सवारी का अभिप्राय

Dr. Anil Kumar Roy     22 minute read         

यह लेख बिहार में वर्तमान निरीक्षण प्रणाली के संदर्भ में लिखा गया है। इसमें दिखाया गया है कि नवउदारवादी आचरण के अनुकूल ही फ़िल्मी धूम-धड़ाके की निरीक्षण प्रणाली शुरू की गई है। इसका उद्देश्य सार्वजनिक विद्यालयों के शिक्षक और शिक्षा प्रणाली को बदनाम करके तहस-नहस करना और उसके स्थान पर पिज्जाई विद्यालयों को स्थापित करना है।

(UDISE, 2015-16 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या)
(UDISE, 2015-16 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या)

शिक्षा पर काम करते हुए दो पक्षों की ओर सर्वाधिक ध्यान जाता है और शिक्षा को दुरुस्त करने की सारी क़वायदें इन्हीं दो पक्षों के इर्द-गिर्द घूमती भी हैं। एक का संबंध समाज से है, अर्थात् समाज में कहाँ तक और विभिन्न सामाजिक वर्गों में कहाँ तक शिक्षा की पहुँच हो पा रही है। सब तक शिक्षा पहुँचाने का प्रयास इसलिए किया जाता है, क्योंकि इसे जीवन के रूपांतरकारी तत्व के रूप में देखा जाता है। रूपांतरण का यह लाभ व्यक्ति से होते हुए अंततोगत्वा समाज और राष्ट्र को प्राप्त होता है। इसीलिए शिक्षा को सब तक पहुँचाने की कोशिश राज्य के द्वारा की जाती है। अर्थात् इस पक्ष का मुख्य संबंध नामांकन और ठहराव से है। दूसरे का संबंध गुणवत्ता से है। गुणवत्ता का अर्थ उस शैक्षिक क्षमता से है, जो उस कक्षा में पढ़ते हुए छात्र से अपेक्षित होती है। यह शिक्षा का कारण तत्व है, अर्थात् जिसके लिए शिक्षा दी जाती है। इसमें देखा जाता है कि कक्षानुसार शैक्षिक क्षमता (ज्ञानात्मक एवं संज्ञानात्मक - दोनों) बच्चे में विकसित हुई या नहीं। इन्हीं दोनों कसौटियों - नामांकन और गुणवत्ता - पर बिहार में शिक्षा का भौतिक परीक्षण करेंगे।

शिक्षा नीति 2020 और रोजगार की अवधारणा

यह लेख ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के पटना जिला सम्मेलन में दिये गये भाषण का लेखान्तरण है। भारत ऐतिहासिक रूप से भीषण बेरोजगारी और असमानता के दौर से गुजर रहा ह...

(A) वस्तुगत परीक्षण

  नामांकन की वस्तुस्थिति: पहले नामांकन को लेते हैं। शिक्षा के आँकड़ों के लिए UDISE की रिपोर्ट को सबसे प्रामाणिक माना जाता है, जिसे सरकार के द्वारा हर वर्ष प्रकाशित किया जाता है। यूडायस की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2015-16 में बिहार के सभी प्रकार के सरकारी विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं (कक्षा 1 से 5 तक) में नामांकित होने वाले छात्रों की कुल संख्या 1,40,11,809थी। मगर वर्ष 2021-22 तक आते-आते सरकारी विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं (कक्षा 1 से 5 तक) में नामांकित बच्चे-बच्चियों की  संख्या घटकर महज़ 1,16,19,527 ही रह गयी। अर्थात् महज़ छह वर्ष बीतते-बीतते सरकारी विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं में क़रीब 24 लाख नामांकन घट जाता है। इसी तरह इन्हीं वर्षों में उच्च प्राथमिक कक्षाओं में भी नामांकन का अंतर देखा जा सकता है। बढ़ती हुई जनसंख्या (वर्ष 2015-16 में प्रजनन दर 2.2 थी। NFHS 5 के अनुसार वर्ष 2021-22 में भी प्रजनन दर 2.0 थी। अर्थात् जन्म दर नकारात्मक नहीं रही है, जैसा कि कई लोग घटते हुए नामांकन का कारण घटते हुए जन्म दर को बताने लगते हैं।) के बावजूद यह घटता हुआ नामांकन बताता है कि शिक्षा तक बच्चों की पहुँच घट रही है। गाड़ी पीछे खिसकने लगी है। लेकिन यह चिंता का विषय नहीं बनता है। नीचे के चित्र से इस तुलनात्मक स्थिति को समझा जा सकता है।

(UDISE, 2015-16 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या)
(UDISE, 2015-16 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या)
(UDISE, 2021-22 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या)
(UDISE, 2021-22 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या)

ठहराव की वस्तुस्थिति : जिन बच्चों ने नामांकन ले भी लिया है, उनका ठहराव आज भी भारी चिंता का विषय है। उच्च एवं उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में नामांकन की संख्या, पिछले वर्षों की अपेक्षा, कुछ अधिक दिखायी पड़ती है, परंतु यह हर्षदायी नहीं है। वर्ष 2019-20 में छीजन दर (dropout rate) जहाँ 16.1 था, वह अगले ही वर्ष 2020-21 में बढ़कर 17.6 हो गया (UDISE+ 2019-20, 2021-22)। इसमें भी सभी सामाजिक वर्गों की बालिकाओं की स्थिति अधिक चिंताजनक है। शिक्षामंत्री द्वारा विधानसभा में दिये गये जवाब के अनुसार आठवीं कक्षा से नवीं कक्षा में पहुँचने के पहले ही क़रीब ढाई लाख लड़कियाँ हर वर्ष स्कूल की रेलगाड़ी से उतर जाती हैं। नीचे दिये गये विधानसभा में शिक्षामंत्री के जवाब की कॉपी से इसकी पुष्टि होती है।   

(दिनांक 16-03-2021को शिक्षामंत्री के द्वारा बिहार विधानसभा में दिया गया जवाब)
(दिनांक 16-03-2021को शिक्षामंत्री के द्वारा बिहार विधानसभा में दिया गया जवाब)

गुणवत्ता की वस्तुस्थिति : नामांकन और ठहराव के बाद गुणवत्ता को लेते हैं। गुणवत्ता को आँकने में असर बहुत मशहूर है। इतनी मशहूर कि सरकार भी अपने दस्तावेजों में इसके निष्कर्षों का उपयोग करती है और अपनी योजनाओं में इसे आधार बनाती है। (नयी शिक्षा नीति के विमर्श पत्र को देखा जा सकता है।) वर्ष 2023 में प्रकाशित वही रिपोर्ट बताती है कि सरकारी स्कूल की 5वीं कक्षा में पढ़नेवाले केवल 37.1% बच्चे ही दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते हैं। लेकिन इससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली बात पढ़ने के स्तर में लगातार आती हुई गिरावट है। पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 43% बच्चे वर्ष 2012 में और 45% बच्चे 2014 में दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते थे, जो अब 37% ही पढ़ सकते हैं। उसी तरह वर्ष 2012 में सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले 80% बच्चे दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते थे, जो अब 69.7% बच्चे ही पढ़ सकते हैं। अर्थात् गुणवत्ता का स्तर भी लगातार नीचे की ओर जा रहा है। लेकिन व्यवस्थापकों ने कभी इस प्रश्न को भी ईमानदारी के साथ खड़ा नहीं होने दिया। नीचे दिये गये चित्र में इसे देखा जा सकता है -

(B) समस्या के भौतिक और व्यवस्थागत कारण क्या हैं?

अभी तक हमने रोगी के लक्षणों को देखने की कोशिश की। रोग के लक्षण तो प्रकट होते हैं, परंतु उसके कारण अंतर्निहित होते हैं, प्रच्छन्न और अदृश्य। अब हम उन अंतर्निहित कारणों की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे। इस परीक्षण में हम पाते हैं कि:

शिक्षकों की भारी कमी : विद्यालयों में शिक्षकों के अभाव को उसी तरह देखा जाना चाहिए, जिस तरह रोगी में हीमोग्लोबिन की कमी की कमी को देखा जाता है। जिस तरह रक्तविहीन व्यक्ति अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करने में असमर्थ होता है, उसी तरह शिक्षक विहीन शिक्षा व्यवस्था भी अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करने में असमर्थ होगी। इसके लिए आवाज़ तो उठती रही है, मगर लगातार उठती उन आवाजों का असर ढाक के तीन पात की तरह रहा है। बिहार में क्या स्थिति है, इसे शिक्षामंत्री के द्वारा ही जानने की कोशिश करते हैं। विधानसभा में शिक्षामंत्री द्वारा दिये गये जवाब में बताया गया है कि बिहार के विद्यालयों में 3 लाख 15 हज़ार से अधिक शिक्षकों के पद रिक्त हैं। वर्षों से ये पद खाली हैं और इनको भरे जाने की न तो कोई रूटीन है और न ही कोई तत्परता कहीं दिखाई देती है। राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण कभी-कभी भर्ती की प्रक्रिया शुरू होती भी है तो उसमें इतना समय लगता है कि तब तक उससे अधिक पद ख़ाली हो गये होते हैं।

विधानसभा में शिक्षामंत्री के द्वारा शिक्षकों की रिक्ति पर दिये गये जवाब की कॉपी
विधानसभा में शिक्षामंत्री के द्वारा शिक्षकों की रिक्ति पर दिये गये जवाब की कॉपी

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक़ भी शिक्षकों की कमी के मामले में बिहार देश में अव्वल है। अभी भी यहाँ क़रीब 2 लाख, 75 हज़ार से अधिक शिक्षकों के पद ख़ाली पड़े हैं।

माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक के रूप में उत्क्रमित किए गये विद्यालयों में, विषयवार तो क्या, शिक्षक ही नहीं हैं। इन उत्क्रमित माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में बिना एक दिन भी क्लास किए लाखों छात्र प्रतिवर्ष परीक्षा भी देते हैं और उत्तीर्ण भी होते है और वो भी अच्छे अंकों से। दशकों से ऐसा ही हो रहा है, मगर इन विद्यालयों में पढ़ने वाले पिछड़े समुदाय के बच्चों के लिए, जिनकी बेहतरी का आश्वासन परोसकर ही सरकारें सत्ता में आती हैं, कोई ठोस चिंता नहीं की गयी है।

प्रश्न यहीं पर खड़ा होता है कि जब स्कूल गए बिना भी फर्स्ट डिवीज़न से पास किया जा सकता है तो फिर विद्यालय के होने और उस पर होने वाले व्यय की ज़रूरत क्या है? मुझे भय है कि कुछ ही दिनों में यह विचार आकार लेने लगेगा, जिस तरह संवैधानिक व्यवस्था में समानता, धर्मनिरपेक्षता, न्याय आदि शब्दों की ज़रूरत और पूरे संविधान की ज़रूरत के बारे में कहा जाने लगा है, और फिर बिना किसी प्रतिरोध का सामना किए राज्य उसे कार्यरूप में परिणत भी कर देगा, क्योंकि विद्यालय बंदी की प्रतिरोधविहीन प्रवृत्ति पूरे देश के साथ ही बिहार में भी दिखाई पड़ रही है। इसके बाद बच्चे अपने घर के मोबाइल से फोटो और आधार कार्ड अपलोड करके फॉर्म भर लेंगे और परीक्षा दे लेंगे। विद्यालय में पढ़ने की जरूरत से वंचित करके, धीरे-धीरे, विद्यालय के होने की ज़रूरत को ही निरस्त किया जा रहा है। इसे समझने की और इस प्रवृत्ति का विरोध करने की ज़रूरत है।  

सामाजिक न्याय का वर्तमान संदर्भ

एक विचारधारा के रूप में सामाजिक न्याय सभी इंसानों को समान मानने के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इसके अनुसार मनुष्य-मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किस...

   पाठ्यपुस्तकों का अभाव : बात केवल शिक्षकों के अभाव की ही नहीं है। बात किताबों के अभाव की भी है। शिक्षा अधिकार के तहत जिन बच्चों को किताबें दी जानी थीं, उनमें से आधे से अधिक बच्चों को आधा सत्र बीत जाने के बाद भी किताबें मयस्सर नहीं हो सकी हैं। बच्चे सड़क की ओर इस उम्मीद में ताकते रह जाते हैं कि शायद कोई उनकी किताब लेकर आये तो वे उसके पन्ने पलट सकें।

शैक्षिक प्रक्रिया में किताबों का महत्व उस भोजन की तरह होता है, जिसके बिना सुसंगत शैक्षिक जीवन असंभव हो जाएगा। जिन बच्चों को किताब जैसी प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है, वे कैसे पढ़ पाते होंगे और क्या पढ़ते होंगे, यह समझने के लिए शिक्षाशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। हालाँकि कुछ रफ़ूगर टाइप के सरकारी शिक्षाविद पुस्तक विहीन पढ़ाई के मॉडल की उसी तरह वकालत करते हैं, जैसे कुछ दिन पहले शिक्षकों के अभाव की पूर्ति के लिए बहुकक्षा शिक्षण का मॉडल बनाकर प्रशंसित हो रहे थे। शिक्षा को मिट्टी में मिलाने में नासमझी से भरे नौकरीपेशा शिक्षाविदों की भारी भूमिका रही है।

शिक्षा अधिकार का अनुपालन : बात केवल शिक्षकों और पुस्तक के अभाव तक ही सीमित नहीं है। जिन संसाधनों की पूर्ति से किसी स्थान को विद्यालय कहा जा सकता है, उसमें बिहार में केवल 11.1% की ही पूर्ति हो पायी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी यह केवल 25.5% ही है। लेकिन मुख्य चर्चा से यह बात ग़ायब रहती है कि जब कोई स्थान विद्यालय होने की कसौटी पर ही खड़ा नहीं उतरता है तो वहाँ होने वाली शैक्षिक गतिविधियाँ कितनी हो पाती होगी और कितनी उत्पादक होती होगी? चूँकि यह प्रश्न राज्य के द्वारा किए जाने वाले व्यय से संबंधित है, इसलिए इस प्रश्न को राज्य के द्वारा की जाने वाली चर्चा के केंद्र में कभी नहीं लाया जाता है। नीचे लोकसभा के प्रश्नोत्तर की कॉपी है, जिसमें मंत्री ने शिक्षा अधिकार के मानकों के अनुरूप संरचनात्मक वास्तविकता से संबंधित जवाब दिया था -

प्रशिक्षण : प्रशिक्षण से ही शिक्षा प्रदान करने का कौशल और तकनीक विकसित होता है। लेकिन यह सर्वाधिक उपेक्षित और अध्यातव्य क्षेत्र है। शिक्षामित्र से शिक्षक बने लाखों लोगों के साथ प्रशिक्षण के क़ानूनी दायित्व की खानापूर्ति भर की गई। जो विधिवत प्रशिक्षित हैं, उनमें भी प्रशिक्षण में प्राप्त कौशल को कक्षायी व्यवहारों में उतारने की न तो प्रेरणा है और न ही समझ। दिन-रात निरीक्षणरत अधिकारियों ने भी इसलिए न तो कभी प्रेरित किया और न ही कक्षाओं में खड़े होकर कभी व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया। वास्तविकता है कि ख़ुद भी वे अधिकारी इस कार्य में सक्षम नहीं हैं। संकुल केंद्रों पर चलनेवाला मासिक शैक्षिक सशक्तिकरण कार्यक्रम न तो प्रेरणा पैदा कर सका और न ही कोई कौशल विकसित कर सका और अब बंद भी हो गया। नौकरी के दौरान दिये जाने वाले प्रशिक्षण अर्थात् रीफ़्रेशर कोर्स अब इतिहास की बात है। प्रशिक्षण की विषयवस्तु और तरीक़े को कैसे इस तरह उपयोगी बनाया जा सके ताकि नयी ज़रूरतों के मुताबिक़ पेशेवर शिक्षक उत्पन्न हो सकें, इस पर संजीदगी से विचार ही नहीं किया जाता है। सब मिलाकर हमारे विद्यालयों में अशिक्षा के विरुद्ध लड़ने वाले ऐसे सैनिकों की फौज खड़ी है, जिसमें लड़ने का हुनर ही नहीं है।

शिक्षा समितियों और प्रबंध समितियों की भूमिका : शिक्षा की बदहाली पर होने वाली चर्चा से यह बात भी प्रायः अनुपस्थित रहती है कि ‘जिनके बच्चे, उनके द्वारा देखभाल’ की विशुद्ध वैचारिक अवधारणा पर शिक्षा समितियों और प्रबंध समितियों का गठन किया गया, वे कैसी भूमिका निभा रहे हैं तथा नामांकन, ठहराव, शैक्षिक गुणवत्ता, संसाधनों की पूर्ति, योजनाओं के निर्माण आदि में उनका क्या योगदान है। यदि वे अपने विहित कर्तव्यों की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं तो उसके कारणों की तलाश की जाये और तदनुसार उसकी पूर्ति की जाये।

बिहार की स्कूली शिक्षा : नीति और नीयत पर सवाल

प्रस्तुत आलेख में तर्कपूर्ण ढंग से यह निष्पादित किया गया है कि वित्तीय अभाव का रोना रोकर सरकार ने शिक्षकों के बीच संवर्गीय विषमता उत्पन्न कर दी। चहारदीवारी क...

अधिकारियों की भूमिका : शैक्षिक गतिविधियों में अधिकारियों की भूमिका लिवर की तरह है। शिक्षा-व्यवस्था को दुरुस्त रखने के लिए पदानुक्रम में बड़े-छोटे अधिकारियों की जो भारी फौज खड़ी की गयी है, उनकी व्यावसायिक जवाबदेही कभी तय नहीं की गयी। वेतन तथा अन्य वित्तीय लेन-देन की सुचारुता, सूचनाओं और रिपोर्ट्स को लेने-देने और निरीक्षण के अलावा विद्यालय की समस्याओं और अभावों से जूझकर उसका समाधान करने, उसे सहायता पहुँचाने और विद्यालय के रूप में उसकी उपयोगिता स्थापित करने की न तो उन्होंने कभी जवाबदेही ली और न ही इस बात में कभी दिलचस्पी रही। यह ताना-बाना ही इस प्रकार बुना गया कि वे जवाबदेही और दिलचस्पी से बचे रहें। उनकी भूमिका उस डॉक्टर की तरह हो गयी, जिसे मोटी तनख़्वाह तो इसलिए दी जाती रही कि वह मरीज़ों को स्वस्थ बनाये। मगर स्वस्थ होने की जवाबदेही का ठीकरा मरीज़ों के सिर पर ही फोड़कर वह अपने कर्तव्य की इतिश्री घोषित कर देता है।

लेकिन शिक्षा पर होने वाली चर्चा में इस बात से भी कतराकर निकल जाने की प्रवृत्ति होती है कि शैक्षिक परिस्थितियों को बेहतर बनाने के वास्ते प्रतिमाह मोटी तनख़्वाह लेने वाले अधिकारियों की लंबी फौज अपने विहित कर्तव्य का पालन कितनी जवाबदेही और निष्ठा से करती है। यदि उनकी जवाबदेही शैक्षिक परिस्थितियों के उन्नयन में सहयोग की नहीं होकर केवल फाइलों को इधर-उधर करने और विद्यालय के छिद्रान्वेषण के द्वारा धन-उगाही होकर रह गयी है तो इनका होना ही शैक्षिक परिस्थितियों को कमजोर कर रहा है। क्यों नहीं इनकी भूमिका पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए?

शिक्षकों के संवर्ग और सामाजिक समानता का सवाल

यह आलेख बिहार शिक्षक नियुक्ति नियमावली 2023 के संदर्भ में लिखा गया है। इस आलेख में यह दर्शाया गया है कि शिक्षकों के बीच संवर्गीय और आर्थिक विभेद समाज में व्य...

अभिमुखता : सर्वहारा वर्ग के जिन बच्चों के लिए अब ये सार्वजनिक विद्यालय बचे हुए हैं, उनकी शैक्षिक अभिमुखता को कैसे बहाल और सशक्त किया जाये तथा उनकी अशैक्षिक पृष्ठभूमि में शैक्षिक उपादेयता को कैसे स्थापित किया जाये, इस अंतराल का समाधान किए बग़ैर सार्वभौम शिक्षा की जंग कैसे जीती जा सकती है? अभिमुखता के सशक्तिकरण के लिए स्कालरशिप, साइकिल आदि की योजनाएँ शुरू की गयीं। शुरुआत में उसका लाभ भी दिखाई पड़ा। लेकिन अब वे उपाय व्यर्थ साबित होते जा रहे हैं। वस्तुत: शिक्षा की उपादेयता शैक्षिक गुणवत्ता में है, न कि स्कालरशिप प्राप्त करने में है। शिक्षा का रूपान्तरकारी प्रभाव दिखाई नहीं पड़ रहा है, जो शिक्षा प्राप्त करने का मूल उद्देश्य है, इसीलिए शैक्षिक अभिक्रियाएँ आकर्षित नहीं करती हैं। इस पर गंभीरता से विचार किए जाने की ज़रूरत है।

तो शिक्षा का परीक्षण करने पर इन सात प्रमुख तत्वों की कमी दिखाई पड़ती है। इनकी कमी के कारण ही शिक्षा कुपोषित हो गयी है और इस कुपोषण के कारण ही अपने दायित्व-निर्वहन में असमर्थ हो रही है।

(C) इस कुपोषण को दूर करने के लिए हो क्या रहा है?

नामांकन, ठहराव और गुणवत्ता के उपर्युक्त विवेचन में हमने देखा कि हरेक स्तर पर चिंताजनक स्थिति बनी हुई है। इसकी बीमारी के कारणों की तलाश करते हुए भी हमने देखा कि शिक्षा की सेहत के लिए जो अनिवार्य विटामिंस और खनिज होने चाहिए, उसकी घोर कमी है। इसलिए इस कमी को दूर करने के प्रयास होने चाहिए थे। परंतु शिक्षा को तंदुरुस्त करने के लिए इन कमियों को दूर करने के बजाय प्रशासनिक निरीक्षण के नाम पर तमाम अधिकारियों के साथ ही क्लर्क, आदेशपाल, जीविका दीदी, टोला सेवक आदि सभी को इसको देखने वालों की जमात में खड़ा कर दिया गया है। उपचार की बिना किसी व्यवस्था के निरीक्षण की अटूट क़वायद उस मातमपुर्सी की तरह है, जिसमें किसी असाध्य रोग से ग्रस्त पल-पल मृत्यु की ओर उन्मुख रोगी के शुभेच्छु और परिजन कातर नज़रों से उसे देखकर संवेदना व्यक्त करते हैं।

निरीक्षण और अनुश्रवण, स्कूल की शैक्षिक प्रक्रिया में जिसे सबसे महत्वपूर्ण मान लिया गया है, के बारे में दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए। पहली यह कि यह प्रशासनिक प्रक्रिया है - रोब, धौंस और आतंक पर आधारित। और, ऐसी प्रशासनिक प्रक्रिया के द्वारा संभावनात्मक गतिविधियों को अंजाम नहीं दिया जा सकता है। शिक्षा एक संभावनात्मक गतिविधि है, रोड कंस्ट्रक्शन का काम नहीं है कि उसे रोज़-रोज़ देखकर कार्य की प्रगति का ज्ञान हो जाएगा। इसलिए शैक्षिक प्रक्रिया में निरीक्षण की अत्यल्प भूमिका है। लेकिन इस अत्यल्प महत्व के कार्य को सर्वप्रमुख मान लिया गया है, ठीक वैसे ही, जैसे चटनी को ही भोजन बना दिया जाए।

निरीक्षण की यह प्रक्रिया भी अपमानपूर्ण तरीक़े से संगठित की गयी है, जिससे शिक्षकों की रही-सही मर्यादा भी मिट्टी में मिल जाये। इसमें तमाम अधिकारियों के अलावा सभी कर्मचारी, लिपिक, आदेशपाल, जीविका दीदी, टोला सेवक आदि सभी, जो शैक्षिक व्यवस्था से बाहर के हैं या अनौपचारिक रूप से हैं, अब विद्यालय में जाकर निरीक्षण और जवाब-तलब कर सकते हैं। जिस प्रधानाध्यापक को अपने ही विद्यालय के टोला सेवक को बैठाकर जवाब देना पड़े, उस विद्यालय में उसकी हैसियत क्या रह जाएगी और उसकी आत्मा कैसे तिल-तिल मरती होगी, यह किसी बुद्धिमान व्यक्ति को अलग से समझाने की ज़रूरत नहीं है

यह निरीक्षण भी अत्यंत संकीर्ण दायरे में होता है। जो अधिकारी, अब सभी कर्मचारी, लिपिक, आदेशपाल, जीविका दीदी आदि को भी स्कूल निरीक्षण की जवाबदेही दी गयी है, विद्यालय में निरीक्षण के लिए जाते हैं, उनमें से किसी का ध्यान शैक्षिक गतिविधियों और बच्चों में सीखने के अभाव की ओर कदापि नहीं रहता है, जिसके लिये ही विद्यालय होता है। बल्कि उनके तमाम कर्तव्य की इतिश्री शिक्षकों और छात्रों की उपस्थिति की जाँच करके हो जाती है।

दूसरी यह कि निरीक्षण की पूरी दीवार ही छिद्रान्वेषण (faultfinding) की नींव पर खड़ी की गयी है। अर्थात् इसकी पूरी प्रक्रिया (process) ही नकारात्मक है। नकारात्मक प्रक्रियाओं से सकारात्मक परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जबकि इसे सहयोगात्मक होना चाहिए। सहयोगात्मक किस तरह? इसके लिए कुछ दिन पहले देखे एक वीडियो से उदाहरण देता हूँ। वीडियो में तथाकथित रूप से राजस्थान के शिक्षा सचिव बोल रहे थे कि एक पायलट जब जहाज़ को उड़ाता है तो उस एयरक्राफ्ट का पूरा सिस्टम उसके प्रति विश्वास और उसकी सहायता में तत्पर होता है। यदि ऐसा नहीं हो तो वह पायलट जहाज़ ठीक से न उड़ा पाएगा या दुर्घटना हो जा सकती है। लेकिन एक शिक्षक जब विद्यालय में प्रवेश करता है तो शिक्षा का पूरा सिस्टम उसके प्रति अविश्वास और विरोध के साथ खड़ा हो जाता है। यह अविश्वास उसकी योग्यता-दक्षता के प्रति भी है और चरित्र के प्रति भी। यह भी अजीब विरोधाभास है कि जो सिस्टम उसे नियुक्त करता है, बहाली के बाद वही सिस्टम उसके विरुद्ध खड़ा हो जाता है। इस विरोधाभासी राजनीतिक समाजिकी को तार्किक रूप से देखने-समझने की ज़रूरत है। यह अविश्वास अब समाज के उस तबके में भी फैला दिया गया है, जिनके बच्चों को सँवारने का दायित्व उन्हें सौंपा गया है। इसलिए निरीक्षण की जो थोड़ी-बहुत भूमिका है, उसे पुनर्गठित (reconstruct) किए जाने की आवश्यकता है, जिसका आधार विश्वास और सहयोग हो। अन्यथा इसके परिणाम विध्वंसकारी सिद्ध होंगे। गिजुभाई ने कहा था - प्रत्येक शिक्षाधिकारी अपने अध्यापकों का नेता होता है, वरिष्ठ शिक्षक और शिक्षाविद होता है। उसी पर उसके विभाग के अध्यापक निर्भर रहते हैं। वह जैसा दृष्टि-बिंदु प्रस्तुत करेगा, वैसी ही शिक्षकों की भावना निर्मित होगी।” [1]  

(D) सुधारात्मक गतिविधि की राजनीतिक आर्थिकी :

क्या यह सब कुछ विचित्र-सा नहीं लगता है कि बिहार की शिक्षा में अभी एकाएक इतना हड़कंप क्यों मच गया है? शक्तिमान की तरह एक शिक्षाधिकारी का अचानक फ़िल्मी अन्दाज़ में धमाकेदार अवतरण होता है और सारी मर्यादायों और परंपराओं को ताक पर रखकर वह इस तरह तहलका मचाना शुरू कर देता है, जैसे सारी शैक्षिक व्यवस्था ही उसके सामने शत्रु के रूप में खड़ी हो। वह लगातार कठोर-से-कठोर आदेश जारी करता है, किसी का वेतन बंद करता है, किसी को बर्खास्त करता है, किसी को अपमानित करता है, शिक्षामंत्री के आप्त सचिव का सचिवालय में प्रवेश बंद कर देता है और इसी तरह वह, कहानी वाले खरगोश की तरह, इतनी तेज दौड़ता है कि उसे बाउंड्री की भी सुधि नहीं रहती और अपनी सीमा को पार करके कुलपति के वेतन पर रोक लगा देता है और विश्वविद्यालय के खातों को फ्रिज करने का आदेश तक जारी कर देता है, लोकसेवा आयोग को निर्देशित करने लगता है और अपने हरेक प्रयास से एक नया विवाद उत्पन्न करता है। केवल इतना ही नहीं, वह विरोध के संवैधानिक अधिकारों को कुचलकर हड़ताल करने पर दंड देने का आदेश जारी कर देता है, दंड देता भी है और शिक्षा अधिकार के तहत निर्धारित की गयी छुट्टियों के क़ानूनी प्रावधान को भी पलट देता है। यह सब वह ढ़िसुम-ढ़िसुम के हेरोइक अंदाज़ में करता है। इस बात में संदेह नहीं है कि ऐसा वह अपने ‘बॉस’ की इच्छा से ही कर पा रहा होगा। इस अराजक व्यवहार के लिए शिक्षकों में चाहे जो आक्रोश हो, लेकिन अधिकांश लोग इसे सुधार के रूप में देखते और मानते हैं। इस तरह बिहार सरकार के अपर मुख्य सचिव के के पाठक लोगों के बीच बॉलीवुड स्टार के रूप में स्थापित होते हैं। लेकिन इस फ़िल्मी अंदाज़ से सनसनी तो फैलायी जा सकती है, लोगों को मज़ा तो आ सकता है, लोगों का समर्थन भी हासिल किया जा सकता है, लेकिन व्यवस्थात्मक सुधार नहीं हो सकते हैं, बल्कि और अधिक अराजकता ही उत्पन्न होती है, जैसा कि बुलडोज़र कार्रवाई, जिसे बहुतायत लोगों का समर्थन प्राप्त है, के बावजूद उत्तरप्रदेश में अपराध का स्तर देश में सबसे अधिक है।

इस अधिकारी के द्वारा मचाये गए तहलका से शिक्षा की बर्बादी का सारा संवाद शिक्षकोन्मुख हो जाता है और सारी समस्याओं की जड़ में शिक्षकों का अनुपस्थित होना स्थापित होने लगता है। तमाम अधिकारी से लेकर मीडिया, बुद्धिजीवी और आमजन, कई बार तो ख़ुद शिक्षक भी, समझने और समझाने में लग जाते हैं कि समस्याओं की बुनियाद में शिक्षक का अनुपस्थित होना है और उसको ‘टाइट’ और दंडित करके ही शिक्षा की बर्बादी रोकी जा सकती है। जबकि वास्तविकता इसके ठीक उलट है।

शिक्षक अनुपस्थिति की वास्तविकता :

शिक्षकों की जिस अनुपस्थिति को इतना बड़ा हंगामा बनाया गया है, उसकी वास्तविकता क्या है? वर्ष 2017 में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के द्वारा किए गये अध्ययन के मुताबिक़ महज़ 2.5 प्रतिशत शिक्षक ही वास्तव में अनुपस्थित पाये गये -

“अनुपस्थिति के दर्ज कारणों में से सबसे ज़्यादा ‘अधिकृत छुट्टी’ 9.1 प्रतिशत रही, इसके बाद ‘आधिकारिक अकादमिक कार्य’ 3.8 प्रतिशत और ‘बिना कारण के अनुपस्थिति’ 2.5 प्रतिशत रही। इस तरह देखें तो अध्यापक अनुपस्थिति की प्रवृत्ति - जो कि बिना कारण के अनुपस्थित रहना है - वह महज़ 2.5 प्रतिशत पाई गयी। …… कर्तव्य की अवहेलना वाली श्रेणी - जिसे बिना कारण के अनुपस्थित रहना कहा जाता  है - उसकी दरें दूसरे अध्ययन में भी काफ़ी कम देखी गयी है।” *[2]

वर्ष 2022 के अध्ययन में असर की भी रिपोर्ट है कि बिहार में 10 से 20 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं। यह रिपोर्ट यद्यपि यह नहीं बताती है कि बिना कारण बताये अनुपस्थिति का प्रतिशत कितना है, लेकिन अन्य रिपोर्ट को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि इसमें भी बिना कारण बताये अनुपस्थिति की दर 2 या 3 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। देखें नीचे के चित्र में बिहार में छात्रों और शिक्षकों की अनुपस्थिति की स्थिति -

और, इस अत्यल्प अनुपस्थिति को लेकर उत्पन्न किए गए शोर-शराबे में लगभग आधे शिक्षकों का अभाव, सत्र के अंत तक भी किताबों की अनुपलब्धता, 12 वर्षों में 11% अनुपालन (compliance), वर्गकक्ष और उसमें बैठने के साधनों का अभाव, शिक्षकों का अन्यान्य कार्यों में नियोजन, यहाँ तक कि प्राथमिक शिक्षकों का माध्यमिक कक्षाओं की परीक्षाओं और उत्तरपुस्तिका के जाँचने में लगाना आदि अभावों, उपेक्षाओं और नासमझियों से उत्पन्न त्रासदियों को छिपा दिया जाता है।

लेकिन जिस शिक्षाधिकारी को शिक्षकों का नेता और शैक्षिक प्रक्रिया का अगुआ होना चाहिए, वह अविश्वास और विरोध में क्यों खड़ा रहता है, इसका उत्तर राज्य की नवउदारवादी चारित्रिक विशेषता में समाहित है। अमेरिकी लेखक Owen Devis ने नवउदारवादी शैक्षिक सुधारों के जो छह तरीक़े बताये हैं, उनमें Misdiagnosing the root problem (मूल समस्या की गलत पहचान) और Pushing accountability through perks and penalties (भत्तों और दंड के माध्यम से जवाबदेही टालना) भी है। [3]

अर्थात् समस्याओं की ग़लत व्याख्या और दंड का प्रावधान नवउदारवादी राज्य की चारित्रिक विशेषताएँ है। इसी चारित्रिक प्रवृत्ति के कारण राज्य इस प्रकार के अनर्गल कार्यक्रमों को जन्म देता है और पोषित भी करता है। और, इस तरह राज्य-पोषित शिक्षा-व्यवस्था को बदनाम करके उसकी जवाबदेही से अंततोगत्वा अपना पिंड छुड़ा सकने में कामयाब हो जाएगा, क्योंकि तब तक जहाँ-तहाँ खड़े सार्वजनिक विद्यालयों के पक्ष में खड़ा होनेवाला कोई नहीं रह जाएगा।

राजनीतिक अर्थशास्त्र को जाननेवाला यह समझता है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सत्ता जब आर्थिक समस्याओं का हल नहीं ढूँढ पाती है तो अराजकता और फासीवादी आचरणों को जायज़ ठहराने के लिए राष्ट्रवाद का जाल फेंकती है और इस तरह वह समर्थन जुटाती है। उस जाल में फँसे लोग लोकतांत्रिक मूल्यों को फिसड्डी मानकर फासीवादी मूल्यों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। और इस तरह उन्हीं की नज़रों के सामने उनके अधिकारों को रौंद दिया जाता है और वह भी वाहवाही लूटकर।

ठीक उसी तर्ज़ पर वास्तविक कमियों को उजागर न करके सारी समस्याओं के लिए शिक्षकों को जवाबदेह ठहराया गया, उनका मान-मर्दन किया गया, ख़ौफ़ उत्पन्न किया गया, उन्हें संवैधानिक अधिकारों से लाठी के ज़ोर पर वंचित किया गया और इस सबके लिए जनसमर्थन जुटाया गया। और यह सब कर लेने के बाद शिक्षक सप्लाई करने के लिए कॉरपोरेट ठेकेदारों को आमंत्रित किया गया। इसमें शिक्षकों को कम-से-कम पारिश्रमिक देने की शर्त पर उन पूँजीपतियों को आमंत्रित किया गया है, जिनका वार्षिक लेन-देन 10 करोड़ रुपये से ऊपर हो। [4] इन सारी हलचलों और माहौल को दहशतज़दा करने का असली अभिप्राय इसी व्यवस्था को और इसी तरह की व्यवस्थाओं को लागू करने के लिए हुआ है।

हमने नालंदा और विक्रमशिला के गीत बहुत गाये हैं। ये सुनने में अच्छे भी लगते लगते हैं। ‘सामाजिक न्याय’ का शंखनाद हमें उत्साह से भर देता है। परंतु वर्तमान की दुर्दशा से आँखें चुराकर न तो यह गीत गया जा सकता है और न ही उत्साह के अतिरेक से उन्मत्त हुआ जा सकता है। क्रोनी कैपिटलिज्म के इस अभूतपूर्व दौर में आज की जरूरत है कि शैक्षिक समस्याओं के सही संदर्भ को समझें, अभावों से जूझ रहे संस्थानों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तत्परता दिखायें, प्रशासन को सहयोगी की भूमिका में खड़ा करें और सार्वजनिक संस्थाओं के प्रति विश्वास को बढ़ाने का हर संभव प्रयास करें। सार्वजनिक शिक्षा की रक्षा करने, उसकी प्रक्रिया में सामाजिकता का समावेश करने और उसके उद्देश्य को समाजोन्मुख बनाने के लिए प्रयास करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

संदर्भ-स्रोत :

  1. बाल शिक्षण और शिक्षक, वागदेवी प्रकाशन, 2001, पृष्ठ 236
  2. “अध्यापक अनुपस्थिति प्रवृत्ति : एक अध्ययन”, अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, मार्च 2017
  3. 6 ways neoliberal education reform is destroying our college system
  4. Request for Proposal, Tender No.: Coaching Institutes/Education/2023/01, Education Department, Government of Bihar
× लोकजीवन पर प्रकाशित करने के लिए किसी भी विषय पर आप अपने मौलिक एवं विश्लेषणात्मक आलेख lokjivanhindi@gmail.com पर भेज सकते हैं।

Disclaimer of liability

Any views or opinions represented in this blog are personal and belong solely to the author and do not represent those of people, institutions or organizations that the owner may or may not be associated with in professional or personal capacity, unless explicitly stated. Any views or opinions are not intended to malign any religion, ethnic group, club, organization, company, or individual.

All content provided on this blog is for informational purposes only. The owner of this blog makes no representations as to the accuracy or completeness of any information on this site or found by following any link on this site. The owner will not be liable for any errors or omissions in this information nor for the availability of this information. The owner will not be liable for any losses, injuries, or damages from the display or use of this information.


Leave a comment