प्रोफेसर के पद पर प्रवचनकर्ता की नियुक्ति के मायने

Dr. Anil Kumar Roy     11 minute read         

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अकादमिक क्षेत्र से बाहर के व्यक्तियों को भी औपचारिक शिक्षा के दायरे में लाने की अनुशंसा की थी। इस नीति में राष्ट्रवाद, संस्कृति, परंपरा आदि विषयों को जिस तरह उठाया गया था, वह संदेह पैदा कर रहा था कि यह शिक्षा के भगवाकरण का प्रयास है और इस अनुशंसा की आड़ में सांप्रदायिक तत्वों को शिक्षा की चौखट के भीतर कर लिया जाएगा। इसलिए उस समय भी शिक्षाविदों ने इसका विरोध किया था। उस समय वह विरोध अनसुना कर दिया गया था। लेकिन आज वह आशंका सच साबित हो रही है। कैसे? इसके लिए इस लेख को अंत तक पढ़ें और संभव हो सके तो अपनी टिप्पणी भी ज़रूर करें।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपने वेबसाइट पर ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ के नाम से एक  पेज ( https://pop.ugc.ac.in ) बना रखा है। उसमें इस पद की भूमिका के बारे में कहा गया है - “The National Education Policy 2020 seeks to transform higher education by focusing on skill- based education to meet needs of the industry and the economy. Further, the NEP also recommends integrating vocational education with general education and strengthening industry-academia collaboration in HEIs. For skilling of youth at the optimum level, learners are required to think like employers and employers are to think like learners. Towards this, the UGC has taken a new initiative to bring the industry and other professional expertise into the academic institutions through a new category of positions called “Professor of Practice”. This will help to take real world practices and experiences into the class rooms and also augment the faculty resources in higher education institutions. In turn, the industry and society will benefit from trained graduates equipped with the relevant skills.

अर्थात् “राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 उद्योग और अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कौशल-आधारित शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करके उच्च शिक्षा को बदलने का प्रयास करती है। इसके अलावा एनएपी सामान्य शिक्षा के साथ व्यावसायिक शिक्षा को एकीकृत करने और उच्च शिक्षा संस्थानों में उद्योग शिक्षा सहयोग को मज़बूत करने की भी सिफ़ारिश करता है। इष्टतम स्तर पर युवाओं के कौशल के लिए शिक्षार्थियों को नियोक्ताओं की तरह सोचने की आवश्यकता होती है और नियोक्ताओं को शिक्षार्थियों की तरह सोचना होता है। इस दिशा में यूजीसी ने ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ नामक पदों की एक नयी श्रेणी के माध्यम से शैक्षणिक संस्थाओं में उद्योग और अन्य पेशेवर विशेषज्ञता लाने के लिए एक नयी पहल की है। यह वास्तविक दुनिया की प्रथाओं और अनुभव को क्लास रूम में ले जाने में मदद करेगा और उच्च शिक्षा संस्थानों में संकाय संसाधनों को भी बढ़ाएगा। बदले में उद्योग और समाज को प्रासंगिक कौशल से लैस प्रशिक्षित स्नातकों का लाभ मिलेगा।”

कुपोषित शिक्षा की पीठ पर ‘शक्तिमान’ की सवारी का अभिप्राय

यह लेख बिहार में वर्तमान निरीक्षण प्रणाली के संदर्भ में लिखा गया है। इसमें दिखाया गया है कि नवउदारवादी आचरण के अनुकूल ही फ़िल्मी धूम-धड़ाके की निरीक्षण प्रणा...

यूजीसी के इस पृष्ठ में आगे बताया गया है कि अकादमिक क्षेत्र से बाहर के लोगों के तकनीकी ज्ञान को स्थापित धारा के साथ जोड़ने के लिए वांछित अकादमिक उपाधियों से वंचित लोगों को भी अकादमिक संस्थाओं के साथ अस्थायी रूप से जोड़ा जायेगा। इस पद के लिए विषय और ग़ैर अकादमिक क्षमता को निर्धारित करते हुए कहा गया है कि इस पद पर इंजीनियरिंग, विज्ञान, तकनीक उद्यम, मीडिया, साहित्य, कला, प्रशासन, न्याय व्यवस्था, ग्रामीण विकास, जल संरक्षण, जैविक खेती आदि के क्षेत्र में ‘महत्वपूर्ण विशेषज्ञों’ (distinguished experts) की नियुक्ति की जाएगी, जिन्होंने उपर्युक्त क्षेत्रों में ‘उल्लेखनीय योगदान’ (remarkable contribution) दिया है। इस पद पर नियुक्त व्यक्ति के लिए जिन छह कार्यों का उल्लेख किया गया है, उसमें व्याख्यान देने के अतिरिक्त कोर्स और करिकुलम को विकसित करना, छात्रों में नवोन्मेष को प्रोत्साहित करना, अकादमिक संस्थाओं के साथ इंडस्ट्री के संयोजन को बढ़ाना, नियमित शिक्षकों के साथ मिलकर शोध को बढ़ावा देना आदि बताया गया है। यह पद तीन प्रकार का होगा - एक वह, जिसे इंडस्ट्री से भुगतान किया जाएगा; दूसरा वह, जिसे उच्च शिक्षा से भुगतान किया जाएगा और तीसरा प्रकार अवैतनिक है। इस पद पर एक साल के लिए नियुक्ति की जाएगी, जिसे अधिकतम तीन वर्षों के लिए विस्तार दिया जा सकता है और विशेष परिस्थिति में एक साल का और सेवा-विस्तार दिया जा सकता है।  

इस पद के उद्देश्यों और सेवा शर्तों पर अनेक प्रश्न हैं। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि औद्योगिक संस्थाओं से आयातित व्यक्ति के सहयोग से जब ‘कोर्स’ और ‘करिकुलम’ विकसित किए जाएँगे तो विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विषय अभी तक जिन ज्ञानात्मक, संवेदनात्मक, मानवीय और सामाजिक पहलुओं की चिंता को लेकर चल रहे थे, उनकी उपेक्षा होगी। अकादमीशियनों और शिक्षाशास्त्रियों के बदले औद्योगिक और व्यावसायिक विशेषज्ञों के निर्देश से विकसित पाठ्यक्रम औद्योगिक और व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाले भर होकर रह जाएँगे। उस पाठ्यक्रम को पढ़कर निकलने वाले छात्र अपने विषय के ज्ञानात्मक विस्तार से अपरिचित, मानवीय संवेदनाओं से शून्य तथा सामाजिक चेतना से रहित एक कुशल कारीगर भर होंगे, क्योंकि उद्योग और व्यापार ज्ञान, मानवता और समाजिकता के खूँटों को उखाड़कर ही अपने अस्तित्व को स्थापित करता है। परंतु सबके बावजूद पूरे गाइडलाइन में यह नहीं उल्लेख किया गया है कि धार्मिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में विशेषज्ञता-प्राप्त व्यक्ति या किसी प्रवचनकर्ता को ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ के पद पर नियुक्त किया जा सकता है।

शिक्षा नीति 2020 और रोजगार की अवधारणा

यह लेख ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के पटना जिला सम्मेलन में दिये गये भाषण का लेखान्तरण है। भारत ऐतिहासिक रूप से भीषण बेरोजगारी और असमानता के दौर से गुजर रहा ह...

शिक्षा नीति2020 के पूरे डॉक्यूमेंट में भी शिक्षा को व्यावसायिक कौशल के साथ जोड़ने पर ज़ोर तो दिया गया है, शैक्षिक संस्थाओं को औद्योगिक संस्थाओं के साथ जोड़ने पर भी बल दिया गया है, औद्योगिक समूह के व्यक्तियों को साथ लेकर ‘कोर्स’ और ‘करिकुलम’ के निर्माण की भी बात आती है तथा किसी क्षेत्र में विशेष कार्य करने वाले लोगों को बुलाकर छात्रों को उनके कार्यों से अवगत कराने की अनुशंसा भी है, परंतु ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ के नाम से धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्तियों की सवैतनिक नियुक्ति की अनुशंसा स्पष्ट रूप से नहीं मिलती है। शिक्षा नीति की जिन अनुशंसाओं के बेहतर परिणाम आ सकते थे, जैसे - शून्य से 18 वर्ष तक शिक्षा अधिकार का विस्तार, मध्याह्न भोजन के साथ सुबह में नाश्ता देना आदि, उनकी पूरी अनदेखी ही नहीं की गयी, बल्कि बजट में भी कटौती की गयी। लेकिन ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ की बहाली के लिए यूजीसी ने तत्परता दिखाते हुए तत्काल गाइडलाइन जारी करके आवेदनपत्र भी माँगना शुरू कर दिया। यूजीसी के वेबसाइट पर ‘Registered Experts’ के रूप में अब तक 8,645 लोगों ने अपना निबंधन करा रखा है। ये कौन लोग हैं, इनकी कुशलताओं की उपलब्धियाँ क्या हैं, किन क्षेत्रों में इनकी विशेषज्ञता है, इन बातों की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। अख़बारों के स्रोत से यह भी पता चलता है कि अब विश्वविद्यालयों में स्वीकृत कुल पदों में 10 प्रतिशत ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ ही होंगे।

इस पद पर अभी तक किन-किन क्षेत्रों के किन-किन विशेषज्ञों को कहाँ-कहाँ नियुक्त किया गया है, इसका विवरण न तो यूजीसी के वेबसाइट पर मिलता है और न ही गूगल में सर्च करने पर प्राप्त होता है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक़ इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले व्यक्ति हैं असम के मुख्यमंत्री के भाई दिगंत बिस्वा सर्मा। वर्ष 2023 के 21 अगस्त को उनकी नियुक्ति का पत्र निर्गत करते हुए असम के डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय ने उन्हें भारतीय ज्ञान प्रणाली से छात्रों को परिचित कराने तथा विभिन्न पाठ्यक्रमों में ‘समृद्ध भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों तथा विरासत’ की शिक्षा देने का दायित्व प्रदान किया है। इस कार्य के लिए विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘एक साल या अगली सूचना, जो पहले हो’ तक के लिए नियुक्त किया है। जबकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के निर्देशों में कहीं भी ‘भारतीय संस्कृति और विरासत के लिए ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ की नियुक्ति का प्रावधान नहीं है।

दिगंत बिस्वा सर्मा की योग्यता क्या है? गूगल में सर्च करने पर उनकी डिग्री का पता नहीं चलता है। डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के CIKS पेज पर इनके बारे में इस तरह उल्लेख किया गया है - Mr. Diganta Biswa Sharma, Devotee of Shri Ramkrishna, Vivekananda and Shri Aurobindo, “Sahitya Academy Translation Awardee.” इनके फ़ेसबुक प्रोफाइल से ज्ञात होता है कि इन्होंने गुवाहाटी कॉमर्स कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की थी। कहाँ तक, इसका ज़िक्र नहीं है। अपने परिचय में इन्होंने फ़ेसबुक पर इस तरह जानकारी दी है - ‘Diganta Biswa Sarma, Devotee of Shri Aurobindo; Member EC, GU; Member, GC, Sahitya Academy; Translation Awardee’ ग़ौरतलब है कि डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय और इनके अपने फ़ेसबुक पेज पर लिखे नाम के स्पेलिंग में भी अंतर है। साहित्य अकादमी के वेबसाइट पर सामान्य परिषद की सूची से ज्ञात होता है कि ये बिरांगना सती साधनी राजकीय विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में सामान्य परिषद के सदस्य हैं। बिरांगना सती साधनी राजकीय विश्वविद्यालय के वेबसाइट पर उपलब्ध शिक्षकों की सूची में इनका नाम नहीं है। इस वेबसाइट के एग्जीक्यूटिव काउंसिल, ऐकडेमिक काउंसिल आदि के पृष्ठ नहीं खुलते हैं। अत: यह पता नहीं चल पता है कि बिरांगना सती साधनी विश्वविद्यालय से किस हैसियत में साहित्य अकादमी के सामान्य परिषद के सदस्य हैं। Linkedin पर इनके दिए गए परिचय से ज्ञात होता है कि ये असम सरकार में नौकरी करते थे और अब रिटायर कर गए हैं। किस पद से यह नहीं बताया गया है। अर्थात् ये कॉलेज में पढ़ते थे और अब नौकरी से रिटायर हो चुके हैं, इस अस्पष्ट जानकारी के अलावा इनकी अकादमिक योग्यता और कार्यों के बारे में सार्वजनिक रूप से कोई जानकारी नहीं मिलती है। लेकिन इतना स्पष्ट होता है कि इनमें उस तरह की कोई तकनीकी, औद्योगिक या व्यावसायिक योग्यता नहीं है, जिनके बारे में यूजीसी का गाइडलाइन बताता है।  

हेमंत बिस्वा सर्मा का नियुक्ति पत्र
हेमंत बिस्वा सर्मा का नियुक्ति पत्र

ये गुवाहाटी कॉमर्स कॉलेज में 30 सितंबर, 2021 से 11 अप्रैल, 2022 तक अध्यक्ष भी थे। यह वही सरकारी कॉलेज है, जिसमें इन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी। एक साल से भी कम समय में ये इस पद से हट गए या हटा दिए गए, इसका विवरण नहीं मिलता है। Amazon पर इनकी तीन किताबें दिखती हैं - Bhinna Samay Abhinna Mat, Eta Saponar Pam Khedi, Samagata Samay. ये तीनों असमी भाषा में हैं और आमेजन पर फ़िलहाल अनुपलब्ध हैं। ‘भिन्न समय अभिन्न मत’ के अनुवाद पर ही इन्हें साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

इनकी विशिष्टता धार्मिक व्याख्यान देने की है। असम विश्वविद्यालय में 5 दिसंबर, 2020 से 25 दिसंबर, 2021 के दौरान गीतापर दिये गये इनके 100 व्याख्यानों को बड़ी और रिकॉर्ड उपलब्धि के रूप में विभिन्न माध्यमों से पेश किया गया है। इसके अलावा भी 21 फ़रवरी, 2022 से 8 जून, 2023 तक असम विश्वविद्यालय और आईआईटी गुवाहाटी में महर्षि अरविंद के गीता दर्शन पर इनकी व्याख्यान-शृंखला आयोजित की गयी थी।

सामाजिक न्याय का वर्तमान संदर्भ

एक विचारधारा के रूप में सामाजिक न्याय सभी इंसानों को समान मानने के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इसके अनुसार मनुष्य-मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किस...

कुल मिलाकर एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी की ज्ञानात्मक क्षमता यही है कि वह धार्मिक प्रवचन करता है। इस क्षमता के बल पर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर बहाल हो जाना अटपटा लगता है। इसलिए अटपटा लगता है कि इसके पहले किसी धार्मिक प्रवचन करने वाले को प्रोफेसर बनाने के बारे में नहीं सुना था। ऐसा, शायद, पहली बार हुआ है। यह भी आश्चर्य का विषय है कि विश्वविद्यालयों में एक धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनकर्ता की नियुक्ति की गयी है। इनके प्रवचनों की शृंखला विश्वविद्यालयों और आईआईटी जैसी वैज्ञानिक संस्थाओं में भी कराये जा रहे हैं, जिनके ज़िम्मे वैज्ञानिकता, तार्किकता और भौतिकता के विकास का उत्तरदायित्व है। विज्ञान की शिक्षा ले-दे रहे लोगों के बीच परमात्मा, परलोक और पुनर्जन्म की कथा परोसी जा रही है। संस्कृति और नैतिकता के सुहाने शब्दों की आड़ में शैक्षिक संस्थाओं को किस तरह धार्मिक अड्डों में तब्दील किया जा रहा है, यह समझने की बात है।

तो इनकी वह क्षमता क्या है, जिसके बल पर लीक से हटकर यह पद हासिल किया है? इनकी सबसे बड़ी क्षमता है कि ये असम के वर्तमान मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सर्मा के भाई हैं। ग़ौरतलब है कि विश्वविद्यालयों में इनके प्रवचनों की शृंखला 2020 से शुरू होती है। यही समय वह भी है, जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति लायी गयी और 2023 तक आते-आते इन्हें प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस का पद थमा दिया जाता है। यह सब एक सोचे-समझे तरीक़े से होता हुआ प्रतीत होता है। इस तरह दिगंत बिस्वा सर्मा की इस नियुक्ति से स्पष्ट होता है कि विश्वविद्यालयों में एक विशेष सांस्कृतिक सोच और विशेष राजनीतिक संबद्धता वाले व्यक्तियों के प्रवेश के लिए ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अकादमिक जगत से बाहर के व्यक्तियों के प्रवेश की गुंजाइश बनायी गयी है। इस शिक्षा नीति के आने के समय से ही शिक्षाविद यह आशंका ज़ाहिर करते रहे हैं कि इसके द्वारा हिंदू धर्म प्रचारकों को शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश कराने की क़वायद की गयी है। आज यह आशंका सच साबित हो रही है।

यह भी पता लगाने की कोशिश की गयी कि क्या किसी दूसरे धर्म के भी किसी प्रतिनिधि को कहीं भी इस पद पर बहाल किया गया है। गूगल में सर्च करने पर कोई जानकारी नहीं मिल सकी। इस तरह यह बहुसंस्कृतिवादी देश में एकल संस्कृति को प्रोत्साहित करने का भी मामला है।

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दिगंत बिस्वा सर्मा की नियुक्ति संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन का भी मामला है। संविधान का अनुच्छेद 28(1) कहता है कि राज्य निधि से संचालित किसी भी शैक्षिक संस्थान में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। लेकिन ये धर्म-विशेष के प्रवक्ता के रूप में राज्य निधि से संचालित विश्वविद्यालय में नियुक्त किए गए हैं। इस तरह इनकी नियुक्ति से संविधान की अवहेलना का भी मामला बनता है।

क्या देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी इस पद पर किसी प्रवचनकर्ता या धर्मगुरु की नियुक्ति की गयी है? इस बात के लिए सर्च करने पर कोई दूसरा नाम नहीं मिलता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के वेबसाइट पर ‘फैकल्टी मेम्बर’ के रूप में किसी का नाम ‘प्रोफेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ के रूप में नहीं है। आईआईटी खड़गपुर ने टाटा स्टील लिमिटेड के सीईओ टी वी नरेंद्रन को शासी मंडल के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया है, जहाँ ये औद्योगिक ज़रूरतों के अनुरूप शिक्षा को मोड़ने की कोशिश करेंगे। यह भी चिंतनीय है। लेकिन दिगंत विस्वा सर्मा की तो नियुक्ति ही परलोक, आत्मा और परमात्मा का प्रवचन पसारकर अवैज्ञानिकता और रूढ़िवाद फैलाना है और आदिकाल की मानसिकता में छात्रों को ले जाना है, जिससे बड़ी मुश्किल से बाहर निकला जा सका है।

इस तरह राजनीति और धर्म के सुहृद मिलन ने, संस्कृति और परंपरा के नाम पर, ज्ञान के आलोक के ऊपर अपनी गेरुआ चादर डाल दी है। — ००० —

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