कल संसद का शीतकालीन सत्र प्रारंभ हुआ और हो-हंगामे में दिन का अंत। मैं आधुनिक संजय की तलाश में था कि वह पूरे दिन की कथा सुनाए।
देश के किसी कोने में आकस्मिक ढंग से कोई मरता है तो उसके प्रति जिम्मेदारी किसकी है? एक बीएलओ परिवार को लिख रहा है कि मैं जीना चाहता हूं, लेकिन जी नहीं सकता और रो-रो कर आत्महत्या कर लेता है। तीसों बीएलओ आत्महत्या कर चुके हैं और न तो चुनाव आयोग के ज्ञानेश कुमार कुछ कहते हैं और न डिलिवरी करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। महाशय, आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? संसद में बहस भी नहीं करने देंगे। इस लोकतंत्र में आदमी क्या इतना सस्ता है? पहले भी न पहलगाम आतंकी हमला पर, न लालकिला मेट्रो स्टेशन के पास हुए विस्फोट पर, न एपेस्टिन मामले पर, न रुपये की गिरती साख पर, न बेरोजगारी पर, न गुलाम बनाने वाले कानून पर, न दिल्ली के प्रदूषण पर, न प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर संसद में बहस हुई। आखिर संसद क्यों है? क्या संसद की जरखरीद गुलाम है? देश भौंचक है। सरकार क्या केवल अपना एजेंडा चलायेगी और विपक्ष को ही सिरफिरा साबित करेगी? दुर्भाग्य यह है कि विपक्ष की मांग को प्रधानमंत्री ड्रामा कह रहे हैं। वे कहते हैं कि देश को ड्रामा नहीं, डिलिवरी चाहिए। क्या आपकी डिलिवरी यही है कि लोग दम तोड़ते रहें और आप खुद को दशरथ पुत्र साबित करते रहें।
लगता है कि प्रधानमंत्री पर कुछ ज्यादा ही नशा छा गया है। उन्हें कुछ दिख ही नहीं रहा है। न्यूयॉर्क के मेयर हुए हैं जोहरान ममदानी। वे भारतवंशी हैं। शुरुआत भारत से हुई, युगांडा गये और फिर अमेरिका। भारतीय विरासत से प्रेम करते हैं। उनका कहना है कि उन्हें भारत की सांस्कृतिक विविधता पसंद है। सबसे मजेदार है उनके चुनावी वादे। उन्होंने अमीरों के शहर में मध्य वर्ग के मुद्दे उठाए। बच्चों की देखरेख, सभी को फ्री हेल्थ सर्विस, सस्ते आवास आदि के वादे उन्होंने किए। उनकी पहली प्राथमिकता वादा पूरा करना है। वादे हमारे यहां भी होते हैं, लेकिन वादे पूरे करने के बजाय नये नैरेटिव गढ़ने लगते हैं। हम इतने शर्महीन हो गये हैं कि संसद में चर्चा करने से भी डरते हैं। छाती इतनी सिकुड़ गई है कि संसद से भी भागते रहते हैं और ऐसा वही कर सकता है जिसे देश से नहीं गद्दी से प्यार है।
सबसे दुर्भाग्य है हमारी निस्पंदता। दिल्ली में प्रदूषण सिर पर चढ़ कर बोल रहा है। बहुत से लोग दिल्ली छोड़कर कहीं और बस रहे हैं, लेकिन सरकार इस पर चर्चा तक करना नहीं चाहती। हर वर्ष जाड़े के मौसम में दिल्ली के प्रदूषण की चर्चा होती है और बात ज्यों-की-त्यों रह जाती है। सच्चाई यह है कि प्रदूषण की समस्या को कोई भी सरकार खत्म नहीं कर सकती, जब तक नीतियों में परिवर्तन न हो। हम पूंजी से लेकर सारी सुविधाओं का केंद्र दिल्ली को बनायेंगे। लोगों का जमावड़ा लगता रहेगा। लोग रोजी-रोजगार के लिए दिल्ली आते रहेंगे तो प्रदूषण कैसे दूर होगा? प्रदूषण दूर करने के लिए नयी विचारधारा और तंत्र की जरूरत है।
जो लोग तटस्थ होकर इस प्रक्रिया को देख रहे हैं, वे इसका निदान भी ढूंढ रहे हैं। गांधी ने ग्राम स्वराज का सपना देखा तो डॉ लोहिया चौखंभा राज का तो युवा चिंतक सुकांत पब्लिक पालिका। पब्लिक पालिका आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षणिक विकेंद्रीकरण की मांग करती है और एक स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करती है।
पब्लिक को दरिद्र बना कर देश के विकास का सपना नहीं देख सकते।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर






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