धूप बगबगा कर उग गई है। छत पर आकर बैठा तो चिड़िया दिख गई। चिड़िया मोहती है। मनमोहक होती है उसकी उड़ान। संसार का सबसे लुभावना होता है वह सौंदर्य, जब अपने नन्हें-मुन्ने के मुख में चीं-चीं करती चारा डालती है। कृत्रिमता उनके जीवन में नहीं है। न उन्हें गहने पहनने हैं, न उन्हें खुद को सजाना है। उन्होंने कोई ऐसा यंत्र भी नहीं बनाया कि दूसरों पर नियंत्रण कर सकें। आदमी अपने को सबसे बड़ा बुद्धिमान समझता है। वह आजादी के सपने देखता है, लेकिन गुलामी के फंदे स्वीकारता है। अतिरिक्त की ख्वाहिश उसकी चेतना को गुलाम बनाती है। मनुष्य चार पुरुषार्थों के चक्कर में ताउम्र लगा रहता है -धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष। चिड़िया शायद मोक्ष नहीं चाहती है। धर्म का निर्वाह तो उसका स्वभाव है। अर्थ और काम भी वह काम लायक ही संपादित करती है। अतिरिक्त की चाहत उसकी प्रकृति नहीं है।
गांधी ने कहा था कि अतिरिक्त धन जमा करना पाप है। लेकिन मनुष्य को तो हर वक्त अतिरिक्त ही चाहिए। संतोष तो मजबूरी है। हर मनुष्य बेचैन और विह्वल है। तुलसीदास रामचरित मानस लिख गये। रत्नावली से फटकार के बाद घर से जो भागे, फिर लौटे नहीं। बनारस के लोमश घाट पर डेरा डाला। मगर यहां भी वे लोगों के द्वारा पीड़ित किए गए। रंज होकर कवितावली में उन्होंने लिखा-
“धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारौं न सोऊ।
‘तुलसी’ सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहौ कछु ओऊ।
मांगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ।”
तुलसीदास को संसार से बहुत काम नहीं था। न पत्नी का साथ था, न माता पिता थे। पुत्र-पुत्री तो बहुत दूर की बात थी। कल-कल करती गंगा और तुलसीदास की झोपड़ी। तब भी वहां के पंडित उन्हें क्यों बख्शते? तंग आकर उन्होंने ऐलान किया कि मुझे तुम कुछ भी कहो – धूत, अवधूत, राजपूत या जुलाहा- कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि किसी की बेटी से बेटे का ब्याह नहीं करना। इस पर भी तुम बाज नहीं आये तो भीख मांग कर खायेंगे और मस्जिद पर जाकर सोयेंगे। अपने वक्त का यह बड़ा ऐलान था। राम राम करते हुए मस्जिद में जाकर सोने का ऐलान। उस वक्त भी वे तथाकथित हिन्दू समाज में खप नहीं रहे थे। पंडितों में प्रतिस्पर्धा रही होगी। तुलसीदास लोकभाषा पर उतर आये थे। संस्कृत में लिपटे पंडितों को शायद यह पसंद नहीं आया होगा।
तुलसीदास बहुत तंग हुए बनारस में। उनके समय से लेकर अब तक कितने मंदिर बने। आश्चर्य यह है कि मंदिर बनाने के लिए मुस्लिम बादशाहों ने जमीन दी। मगर एक बनावटी कथा में तुलसीदास के राम घिर गए। बाबरी मस्जिद में आधुनिक स्वार्थी राजनीतिक संतों ने राम को उलझा दिया। प्रचारित यह हुआ कि बाबरी मस्जिद में ही राम का जन्म हुआ। बाबर ने बाकायदा यहां पर स्थित मंदिर को तोड़ा। इतिहास कहता है कि बाबर यहां गया ही नहीं। उसके समकालीन तुलसी बाबा ने ऐसा कुछ जिक्र नहीं किया। उल्टे उन्होंने हिन्दू समाज से कुपित होकर मस्जिद में सोने का ऐलान कर दिया।
जेड सुरक्षा में घिरे मोहन भागवत हिन्दू पुनर्जागरण की बात कर रहे हैं। जाति श्रेष्ठता बनी रहेगी। पुनर्जागरण भी होता रहेगा। बुद्धि से कम ही मतलब रहेगा। आंखों पर पट्टी और मन में चल लिए क्षुद्र राजनीति कर रहे भागवत जी पुनर्जागरण का ढोंग करते रहेंगे।
चिड़िया इतना कुछ नहीं कर सकती। उसे आजादी पसंद है, गुलामी का पट्टा नहीं।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर






